राइजिंग भास्कर डॉट कॉम. नई दिल्ली
मान लीजिए आज किसी अखबार में सीनियर सब एडिटर हैं या रिपोर्टर हैं तो भूल जाइए कि आप पत्रकारिता कर रहे हैं। यह आप सटॉम्प पर लिख कर लें ले कि आप कोर्ट के बाहर बैठे टाइपिस्ट से अधिक कुछ नहीं हैं। आप अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं लिख सकते। सारा एजेंडा मालिकों, संपादकों, स्टेट एडिटरों, नेशनल एडिटरों और ग्रुप एडिटर का चलता है। हमने उदित भास्कर और राइजिंग भास्कर शुरू करने की जरूरत क्यों पड़ी? क्याेंकि हमने समाज, देश और तिरंगे झंडे के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए घर फूंककर तमाशा देखने का संकल्प लिया है। हम जानते हैं कि हम आग से खेल रहे हैं। हमारा कभी चौराहे पर एक्सीडेंट हो सकता है। कोई सिरफिरा हमें गोली मार सकता है। हमें पानी, चाय और खाने में जहर मिलाकर मार दिया जा सकता है। हमें ऐसी-एेसी चीजें खिलाई जा सकती है जिससे हम या तो सुसाइड कर लेंगे या फिर हमारी हार्ट अटैक से मौत हाे सकती है। लेकिन ये पंक्तियां लिखते समय तनिक भी नहीं डर रहे हैं। भगवान आदमी काे एक बार इस धरती पर बैजता है और एक बार मरता है। इसलिए जिंदगी से मोह नहीं है और मौत का कोई डर नहीं हैं। पत्रकारों की हालत यह है कि वह अपनी मर्जी का हैडिंग तक नहीं लगा सकता। किस खबर को क्या रूप देना है और किस मुद्दे को किस तरह प्रस्तुत करना है यह आपके अखबार के आका तय करते हैं। यहां कहने के आपके अखबार में 17 सीनियर सब एडिटर हो सकते हैं, मगर किसी को 10 हजार रुपए मिल रहे हैं, किसी को 15 हजार रुपए मिल रहे हैं, किसी को 20 हजार रुपए मिल रहे हैं, किसी को 25 हजार रुपए मिल रहे हैं और किसी काे उससे भी अधिक। बड़े-बड़े अखबार बड़े-बड़े सर्वे करते हैं और दुनिया भर की गंदगी को साफ करने का ठेका उठाते हैं और खुद के दफ्तर के बाहर गटर बह रहा है तो कोई एक शब्द नहीं लिखता। ये ताे हुई व्यवस्थाओं और अव्यवस्थाओं की बात।
अब आते हैं मूल बात पर। अखबार कैसे बिकता है। एक खबर को बेचने के लिए आपके अखबार के आका किसी भी हद तक जा सकते हैं। खुद ही मुद्दा उठाएंगे और फिर उन मुद्दों को भुनाने के लिए पब्लिक ऑपिनियन का ढोंग रचा जाएगा। एनजीआे से टाइपकर हस्ताक्षर अभियान की नौटंकी की जाती है। समझदार लोग तो अखबार पढ़ते ही नहीं हैं। समाचारों की गंदगी देखकर घृणा सी होने लगी है। किसी खबर को कितनी हाइट तक ले जाना है इसमें पुलिस, पाॅलिटिशन, विभाग, न्यायपालिका और पता नहीं कितने समूह काम करते हैं। अखबार झूठ का पुिलंदा है। यह खबर नहीं जनता की भावनाआें से आए दिन रेप होता है। यह हाल केवल अखबारों का नहीं है समस्त टीवी चैनलाें और यू-ट्यूब चैनलों का है। लाकतंत्र में अखबार अब नौटंकी हो गए हैं। आज अखबारों के संपादक खुद ही हैडिंग और सह हैडिंग लगाकर दे देंगे और खबर का स्थान तय कर देंगे। उसी सांचे में खबर को ढालना है। रिपोर्टर खबर देता क्या है, उसका स्वरूप क्या हो जाता है। एसी रूम में बैठकर लिखने वाले संभल जाओ, आपके अखबार रद्दी के ढेर में भी नहीं बिकेंगे। यह जनता बेवकूफ नहीं हैं। एक-एक शब्द की समीक्षा होती है। आज जो अखबार दुनिया का सबसे विश्वनीय और तेज बढ़ता हुआ है कल उसे मिर्चीबड़े खाकर पूंछने में काम में लिया जा सकता है या फिर बच्चों की पोटी साफ करने में अखबार का उपयोग हो सकता है।
आज मेरी वरिष्ठ कवयित्री सुशीला अरूण से बात हुई। बोली मैंने राजस्थान पत्रिका अखबार शुरू कर दिया है। इसमें खबरें अच्छी आती है। यह बात लिखकर हम पत्रिका की सराहना नहीं कर रहे, मगर अखबारों को अपना घमंड और ईगो का चौगा उतारकर फेंक देना होगा। आज आज टॉप पर हो तो कल सड़क पर कटोरा लिए फिर सकते हैं। जो बड़े-बड़े अखबार बड़ी बड़ी बातें करते हैं वो अपने पत्रकारों की खबरें ही नहीं छापते। संपादकों को कोई खबर दी जाती है तो 15-15 दिन तक उत्तर नहीं दिया जाता। अगर आप खबर लगा नहीं सकते तो कम से कम मना तो कर सकते हैं। मगर धूर्त और मक्कार किस्म के संपादक जो बोलते नहीं हैं, मगर जिनके भीतर जहर भरा हुआ है। उन्हें अब समझ लेना चाहिए कि आप किसी पत्रकार को 25 हजार रुपए देकर खरीद लिया है। हम तो पत्रकारिता करते ही नहीं हैं। नौकरी करते हैं। स्पेल चलाकर और गलतियां निकालकर खबर सबमिट कर देते हैं। आपको जो छापना है छापो। हमारी बला से। आपका अखबार है। आप उनके मालिक हो। हमारी नौकरी सुरक्षित रहे या ना रहे, मगर आज भी हम खामोश रहे तो कल इतिहास हम पर थूकेगा। कहने को आप सच बेधड़क की बात करते हो। मगर सच बेधड़क होने से पहले आप अपने पत्रकार से कभी पूछते हो आपके परिवार में क्या चल रहा है? आपके घर की जरूरतें पूरी हो रही है? एक संपादक हुआ करते थे कुलदीप व्यास। उनके समय में किरण राजपुरोहित ने महंगाई पर खबर छापी और कहा कि आज अगर किसी कर्मचारी को 15 हजार रुपए सेलेरी मिल रही है तो महंगाई के जमाने में महीने के अंत में उसके पास 100 रुपए भी नहीं बचते। जब हमने व्यासजी से कहा कि हमारा वेतन तो 6 हजार रुपए है आप खुद ही छाप रहे हो कि 15 हजार वेतन वाला 100 रुपए भी नहीं बचा पाता। तो कम से हम हमारी तनख्वा भी 15 हजार तो कर दो, मगर उस बेशर्म संपादक ने जवाब दिया-आपको कहीं 15 हजार रुपए मिलते हो तो चले जाओ। जिस संस्था में आदमी 20-20 साल से काम कर रहा हो और उसे अचानक कह दिया जाए कि आप कहीं और चले जाओ…इससे ज्यादा बदमाशी क्या होगी?
पत्रकारिता तो हमने अब शुरू की है। हमारे ख्वाब बड़े हैं। सच नहीं भी हुए ताे गिला नहीं रहेगा। लेकिन इतना साफ है अब हम चुप बैठने वाले नहीं हैं। जब आप अपने अखबार में अपनी पसंद की कोई खबर ही नहीं लगा सकते तो इसे कौन पत्रकारिता कहेगा? ये पंक्तियां लिखते समय हमें 25 हजार की नौकरी जाने का भी खतरा है। मगर 25 हजार की नौकरी छीन कर कोई हमारी किस्मत नहीं छीन सकता। हम तो लिखेंगे। लिखते रहेंगे।