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डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि” की एक गजल

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कब गिर जाए आदमी…

कब गिर जाए आदमी ज़मीर से, पता नहीं चलता,
मौत कब कैसे आ जाए समीर से पता नहीं चलता।

दुनिया जालिम है कब मदद का मेहनताना मांग ले,
क़त्ल किस का होगा, शमशीर से पता नहीं चलता।

हार होगी या जीत ये सब रणभूमि ही बताएगी हमें,
राजन बेताज कब होगा वज़ीर से पता नहीं चलता।

पूछ के देखो बताएगा ग़रीब, कहां महल अमीर का,
है घर किधर ग़रीब का ये अमीर से पता नहीं चलता

हैसियत कपड़ों से देखना, ये गलतफ़हमी है हमारी,
कितनी है दौलत पास, फ़कीर से पता नहीं चलता।

कै़द है “जैदि” क़फ़स में कब तलक रहेगा पता नहीं,
हौसलों में कितनी जान जंजीर से पता नहीं चलता।

मायनें:-

समीर:-हवा
शमशीर:-तलवार
कफ़स:-पिजंरा

शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”

Rising Bhaskar
Author: Rising Bhaskar


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