परहित ही सनातन
यूं तो धर्म की परिभाषा
बता पाना होगा नामुमकिन
हर मानव मन में प्रेम हो
जो काम आए हर मुश्किल
जात पात का भेद नहीं
सब की सेवा करे बस निश्छल
जैसे नदियां, पेड़, बादल और मौसम
हर हाल में देते साथ
प्रेम, करुणा और दया
हर दिल में हो यही ज़ज्बात
परहित में मन हो जाए विचलित
ऐसे हो मन की अभिलाषा
ना रहे कोई भूख से व्याकुल
रहे ना बिन जल प्यासा
जोड़े हम कड़ी कड़ी से
बने जंज़ीर मजबूत
अपना धर्म है निराकार
जिसमें भक्ति भरी अकूत
सभी त्योहार में हो शामिल
सनातन सभ्यता अपनायें
होली दिवाली या हो दशहरा
चाहे हो तीर्थ स्नान
महाकुम्भ का मेला पावन
कर लो प्रयाग स्नान
अपना धर्म महान
रे बंधु
भारत देश महान।
