नारी और उसकी अंतरआत्मा
क्या हूं मैं??
क्या गुनाह किया है मैंने यही कि-
लड़की के रूप में जन्म लिया मैंने,
प्रकृति ने मुझे इतना सुंदर, इतना प्यारा बनाया,
तो फिर…
क्यूं मेरा जीवन और बचपचन छीना जाता है?
क्यूं मुझे हीन समझता जाता है?
क्यूं मेरे सपनों को हर समय, हर मोड़ पर रौंधा जाता है?
क्यूं मुझे डर के साये में जीना होता है?
क्यूं मेरे आत्मविश्वास को डगमगाया जाता है?
क्या कोई वजूद नहीं है मेरा?
जब मैंने किए खुद से ये सवाल,
तब मेरी अंतरआत्मा ने मुझे झकझोरा,
और कहा…
हे तेरा वजूद,
दुर्गा, महाकाली, मां जगदम्बे का स्वरूप तुम्हारा,
चांद सी शीतल,
फूल सी कोमल,
नीर सी चंचल हो तुम,
धरा जैसा सहनशील स्वभाव तुम्हारा,
तूने ही तो सारी सृष्टि को रचा,
तूने ही तो किया सारे रिश्तों को पूरा,
मां, बहन, बेटी, बहू, जीवन साथी बन,
बांधा बंधन प्यारा,
यह सृष्टि है तेरा वजूद,
तू नहीं तो यह सृष्टि नहीं,
तू यूं मन न मसोस,
पढ़-लिख कुछ बन,
कर अपने सपनों को पूरा,
बदल समाज और उसकी कु-सोच को,
मिटा असमानता और हीनता की दीवार को,
दौड़ा अन्याय के विरोध की लहर को,
और ला न्याय से परिपूर्ण नई सहर को,
उठ खड़ी हो, कर हौसलों को तू बुलंद,
संकटों में न डगमगा,
तू सदा धीर हो,
अपने आत्मविश्वास के साथ तू नीडर हो।