कविता : रविदत्त मोहता

सरहदों और सिरहदों के बीच क्यों रहता है मनुष्य…?

दूसरों की आहट पहने-पहने क्यों घूमते हो
अरे!ये तुम किसके पांव के नाप पहने फिरते हो?

अपने पांव के नाप को किसकी आहट में उतार आये हो!
और ये तुम किस गाँव अपने पांव बेच आये हो..?

कहते हो कि तुम यहाँ बहुत हिफाजत से हो !
पर यह तो बताओ कि कब से इस हिरासत से हो..?

अरे!तुम तो खाते हो रोटी की जगह रोटी के गोल-गोल आकार
और ये किस तरह की बगावत पर हो..?

क्या कभी किसी की भूख मिटी है
रोटी खाकर..?
गोल-गोल आकारों को खाकर यहां तुम
किस हालात की हवालात से हो..?

अगर गोल होना ही रोटी होता! तो सूरज खा जाता
पृथ्वी की गोलाई को..!
चंद्रमा खा जाता
तारों की गोल तन्हाई को..!

सिरहाने अपने..सड़कों के पुल रखकर क्यों सोते हो!
अपने सिरहाने सिर रखकर सरहद पार क्यों करते हो?

और..

तुम किस्सों में हिस्सों को छिपाकर क्यों रखते हो
हिस्सों में देश को बचाकर क्यों रखते हो..?

*सरहदों में किसी देश में छिपाया नहीं जा सकता
इंसान की हिरासत में देश को बचाया नहीं जा सकता..!

इसलिए हदों की हद में रहना छोड़ दो
इंसान बनो..!

सिरहदों में रखी सरहदें जोड़ दो
महान बनो…!

तुम किसी देश की *सरहद नहीं हो
न हो तुम किताबों की वैचारिक *सिरहद..

तुम इसलिए इंसाफ हो..
क्योंकि तुम मुकम्मल इंसान हो..!

(Ref-आजकल विश्व में चल रहे सभी अलग-अलग सरहदों के युद्धों में मारे गए निर्दोष लोगों को समर्पित)

*सरहद-Border
*सिरहद-Mind-border

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