जहां गलियां रखी जाती हो। जहां संभावनाओं को आमंत्रण दिया जाता हो। वहां संवेदनाएं मर जाती है। वहां संस्कार मर जाते हैं। वहां समझौता करना पड़ता है। यहां जोधपुर के पत्रकार भी एक समझौता ही कर रहे हैं। हमें प्लॉट की बजाय अपनी कलम की धार पर जोर देना चाहिए। क्या फर्क पड़ता है ये निकम्मी और अंसवेदनशील सरकारें हमें प्लॉट नहीं देती। हमें अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए…।
डी.के.पुरोहित. जोधपुर
अभी-अभी एक पत्रकार संगठन की अनुशंसा पर पूर्व नरेश गजसिंह ने मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा को जोधपुर के पत्रकारों को रियायती दर पर प्लॉट देने के लिए पत्र लिखने की खबर मिली। राइजिंग भास्कर चाहता तो उस विज्ञप्ति को हूबहू छाप सकता था। मगर यह जर्नलिज्म नहीं है। सवाल है कि क्या प्लॉट महंगा है और जोधपुर का पत्रकार इतना सस्ता है कि गजसिंह से पत्र लिखाने की नौबत आ गई। सबसे पहली बात तो जो सरकारें दस साल से जोधपुर के पत्रकारों को प्लॉट नहीं दे रही तो गोली मारो ऐसी सरकारों को। अपने पुरुषार्थ पर प्लॉट बनाओ।
दूसरे कई जिलों जिसमें जोधपुर से छोटे-छोटे जिले शामिल है अपने बलबूते पर प्लॉट ले लिए। एक नहीं दो दो तीन तीन बार। मगर जोधपुर के पत्रकारों का प्लॉट का मामला दस साल से अटका हुआ है। क्या जोधपुर के पत्रकार भिखारी है जो ऐसी निर्लज और असंवेदनहीन सरकारों की गरजें करेंगे। मिनिस्टरों और महाराजाओं से पत्र लिखवाए जाएंगे? क्या मुख्यमंत्री की आंखें फटी हुई है। क्या उन्हें इस मुद्दे का भान नहीं है। मगर मुख्यमंत्री भी क्या करेंगे जोधपुर के पत्रकार खुद ही आपस में लड़ रहे हैं। अपने हक के लिए मिलकर जो नहीं बोल सकते वे अपने अधिकार को छीनकर प्राप्त करने की बजाय गरजें करने को विवश होते हैं। इसीलिए जोधपुर के पत्रकार बैचारे बने हुए हैं। अगर जोधपुर के पत्रकारों को अपनी क्षमताओं पर भरोसा नहीं है तो प्लॉट की बातें छोड़ देनी चाहिए।
प्लॉट हम पैसे देकर ले रहे हैं। मुफ्त में नहीं ले रहे। रियायती दर पर डॉक्टरों, वकीलों, शिक्षकों और सबको मिल रहे हैं तो पत्रकारों को भी मिलने चाहिए। पत्रकार भी इसी समाज का हिस्सा है। मगर पत्रकार इतना गया गुजरा भी नहीं है कि अपने हक के लिए मिन्नतें करें। गरीबदास बनकर रहे। लानत है ऐसे प्लॉटों पर। हमारे जैसा पत्रकार जिंदगी भर किराऐ के मकान में रहना पसंद कर लेगा मगर प्लॉट के लिए गिड़गिड़ाने के पक्ष में नहीं है। मगर इस ईमानदारी के साथ वही पत्रकार बोल सकता है जो इतनी साफ साफ बातें लिखने का सामर्थ्य रखता हो। हम अपने अपने खूंटों से बंधे हैं। हमारी अपनी सीमाएं हैं। मीडिया भी अब पहले जैसा मीडिया नहीं रहा। यहां हर संभावना के लिए रास्ते खुले रहते हैं। जहां गलियां रखी जाती हो। जहां संभावनाओं को आमंत्रण दिया जाता हो। वहां संवेदनाएं मर जाती है। वहां संस्कार मर जाते हैं। वहां समझौता करना पड़ता है। यहां जोधपुर के पत्रकार भी एक समझौता ही कर रहे हैं। हमें प्लॉट की बजाय अपनी कलम की धार पर जोर देना चाहिए। क्या फर्क पड़ता है ये निकम्मी और अंसवेदनशील सरकारें हमें प्लॉट नहीं देती। हमें अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए।
सबसे पहली जिम्मेदारी तो उन मीडिया के घरानों की होनी चाहिए जो अपने पत्रकारों को इतना वेतन दे कि वह अपने रहने के लिए छोटा सा आशियाना बना सके। लेकिन बड़े बड़े अखबारों के स्ट्रींगर करोड़पति हो गए। बड़ी बड़ी गाड़ियों में घूमते हैं। कई मीडिया घरानों के पत्रकारों ने बंगले बना लिए। ठाकुर सुहाती खबरें छापकर अपना घर भरने में पत्रकार लगे हुए हैं। यह बात सब पर लागू नहीं होती। ऐसा नहीं कि आज साफ-सुथरी पत्रकारिता और साफ-सुथरे पत्रकार नहीं है। ब्लैकलिस्टरों की लिस्ट में एक वर्ग ऐसा है जिसे लोग अच्छी दृष्टि से नहीं देखते क्यों कि वे दुनिया की दौड़ में शामिल नहीं हुए। वे ब्लैकमैलर नहीं बने। उन्होंने अपनी कलम बेची नहीं। यहां लोग पांच सौ का लिफाफा लेने से लेकर पांच करोड़ तक लेने वाले हैं। बड़ी मीडिया के बड़े पत्रकार लुटेरे हैं। खुद उनके मालिक महालुटेरे हैं। वे बड़ा सौदा करते हैं। बड़े सौदागार हैं। ये सौदा मीडिया, सत्ता, औद्योगिक घरानों और पेशेवर लोगों के साथ ससंद से सड़क तक चलता रहता है। बात प्लॉट की चली है तो मुझे हंसी आती है कि अब प्लॉट के लिए पूर्व नरेश गजसिंह तक को लिखना पड़ा। सवाल है कि दस साल तक प्लॉट क्यों नहीं मिले? इसमें कमजोरी किसकी? गजसिंह क्या मीडिया से ज्यादा पॉवरफुल है। अगर गजसिंह इतने ही पॉवरफुल है तो राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए पचास पत्र लिख दिए फिर मान्यता क्यों नहीं दिला सके। सवाल हम किसी की क्षमताओं पर नहीं उठा रहे। हम पहले से ही गजसिंह से क्षमा मांग लेते हैं कि हम उनका मान मर्दन नहीं करना चाहते। हम तो अपनी लकीर छोटी नहीं करना चाहते। हम नहीं चाहते कि पत्रकार बिरादरी की लकीर छोटी हो। पत्रकार अगर स्वाभिमान के साथ रहता है तो स्वाभिमान के साथ प्लॉट मिलने चाहिए। क्या एक प्लॉट के लिए बार-बार गिड़गिड़ाना। ठोकर मारो ऐसे प्लॉटों को। हम सबको सामूहिक रूप से घोषणा कर देनी चाहिए कि हमें हमारा हक नहीं मिला तो अब हम प्लॉट के लिए गिड़गिड़ाएंगे नहीं। मगर इसके लिए खुद पत्रकारों की नीयत साफ होनी चाहिए। पत्रकारों में संगठन होना चाहिए। पता चले कि प्लॉट तो मिल रहे हैं और चार पत्रकार कोर्ट का द्वार खटखटा कर अडंगा डाल दे। इसलिए पहले खुद को इतना मजबूत बनाओ कि प्लॉट तो क्या भगवान भी कहे कि मांग क्या चाहिए हम देंगे। हो सकता है राइजिंग भास्कर की भाषा कठोर हो। मगर आप भाषा की कठोरता नहीं पत्रकारों के स्वाभिमान के सवाल पर हमारा साथ देंगे। उम्मीद है। बिना किसी पूर्वाग्रह के ये बात हम रख रहे हैं। आशा है मेरे पत्रकार साथी बुरा नहीं मानेंगे।
