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Saturday, March 15, 2025, 10:18 am

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कासिम बीकानेरी की गजलें

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(कासिम बीकानेरी वरिष्ठ कवि और शाइर हैं। आप साहित्य की हर विधा में लिखते हैं। आपकी रचनाओं में मानव प्रेम, देशभक्ति, पर्यावरण, करुणा और समसामयिक विषयों का समावेश रहता है। आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। फिल्मों से भी जुड़ाव रहा है। आप बेहतरीन लेखक होने के साथ अच्छे कलाकार भी हैं। यहां कासिमजी की कुछ गजलें पेश हैं।)

बात करें

घनेरी ज़ुल्फ़ की, काली घटा की बात करें
सहर के नूर की, उस मह-लक़ा की बात करें

दिलों के गुंचे खिलाती फ़ज़ा की बात करें
महक बिखेरती ताज़ा हवा की बात करें

शफ़क़ पे लाला-ओ-गुल के हसीन मंज़र की
कि दस्ते-नाज़ के रंगे-हिना की बात करें

दिलो-दिमाग़ में तेरा ही है तसव्वुर जब
तो और कौन है जिस दिल-रुबा की बात करें

ख़याल मिलता नहीं है किसी से जब अपना
तो इस जहान में किस हमनवा की बात करें

तज़ाद ज़ाहिरो-बातिन में कुछ नहीं उसके
हसीन जिस्म की, चाहे क़बा की बात करें

लुभा रही है महकती हवा जो मदमाती
है वक़्त सुब्ह का बादे-सबा की बात करें

हमें वफ़ा के सिवा और कुछ नहीं आता
वो लाख ज़ुल्म की,जोरो-जफ़ा की बात करें

कुछ और सोचने की हमको है कहां फ़ुर्सत ?
जो तुझ को भूलें तो किस ख़ुश-अदा की बात करें

हमारे प्यार की परवा नहीं उसे तो न क्यूँ
हम अपना दर्द भुलाकर, दवा की बात करें

दिया है ज़ख़्म जो उसने कहीं न भर जाए
“चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें”

फ़ना की तर्ह बक़ा भी तो इक हक़ीक़त है
फ़ना को याद रखें और बक़ा की बात करें

ज़रा भी क़द्र वफ़ा की जिसे नहीं कोई
जहां में उससे अ़बस क्यूं वफ़ा की बात करें

हमें तो शौक़ नहीं, तब्सिरा करें ‘क़ासिम’
वफ़ा को जुर्म वो मानें, सज़ा की बात करें

000

कुछ वहां ठहरे

देखने को तुझे जहां ठहरे
कुछ यहां और कुछ वहां ठहरे

आबरू हो रही यहां नीलाम
किस लिए कोई अब यहां ठहरे ?

मुझको ले जाओ उस जगह पे, जहां
धरती ठहरे न आसमां ठहरे

कोशिशें रोकने की ख़ूब ही कीं
चल दिये वो मगर , कहां ठहरे

दूरियां कम न हो सकीं हरगिज़
लाख अपनों के दरमियां ठहरे

था चराग़ों का जुर्म बस इतना
क्यूं हवाओं के दरमियां ठहरे

प्यार से आशना नहीं जो लोग
कौन ऐसों के दरमियां ठहरे

याद उनकी हमारे साथ रही
इस नगर में जहां जहां ठहरे

इन सवालों से कुछ नहीं हासिल
आप किस से मिले,कहां ठहरे ?

राज़ इसका बता दो ‘क़ासिम’ को
‘कैसे मुट्ठी में ये धुआं ठहरे’

000

खुशी के एवज

मैं चाहता हूं फ़क़त प्यार दोस्ती के एवज़
हज़ार ग़म मिलें फिर चाहे इस ख़ुशी के एवज़

जहां में प्यार की दौलत से हूं मैं मालामाल
मुझे मिला है ये सब कुछ सुख़नवरी के एवज़

तिरे वजूद में इक दाग़ को किया शामिल
ये क्या मिला है क़मर तुझको चांदनी के एवज़

इस एक बात की ख़ातिर मैं क्यूं करूं शिकवा
मेरे नसीब में ज़ुल्मत है रोशनी के एवज़

तिरे बग़ैर मैं जी कर भी क्या करूंगा यहॉं
मैं मांग लूंगा तुझे अपनी ज़िंदगी के एवज़

मैं चुप रहा तो ज़माने ने कम मुझे समझा
मिला है ये मुझे इनआ़म ख़ामुशी के एवज़

मलाइका की इबादत है बे-ग़रज़ लेकिन
बशर को चाहिए फ़िरदौस बन्दगी के एवज़

तिरे लिए ही ग़मों से की दोस्ती हमने
‘हज़ार दर्द सहे हैं तिरी ख़ुशी के एवज़’

बड़े क़रीने से दिल में बसाके रखता हूं
वो दाद, मिलती है मुझको जो शाइरी के एवज़

सुकून के लिए ‘क़ासिम’ भटक रही दुनिया
क़रार तुझको मिला बांट कर ख़ुशी के एवज़

000

दीवार

ऐसी तहज़ीब ज़माने में चला दी जाए,
ये जो नफ़रत की है दीवार गिरा दी जाए

मेरी क़ीमत भी मुझे आज बता दी जाए,
करके नीलाम, मिरी बोली लगा दी जाए,,

नूरे-वहदत से हो रोशन ये ज़माना सारा,
भटके लोगों को चलो राह दिखा दी जाए,,

दौरे-फ़ितना में हमें इसकी ज़रूरत है बहुत,
हर क़दम एक नई शम्अ़ जला दी जाए

कोई दरिया जो तक्कबुर में अगर आता है,
उसको सूरत किसी सागर की दिखा दी जाए,,

सर्द मौसम में नहीं पास में कंबल जिसके,
इक सख़ावत से भरी शॉल चढ़ा दी जाए,,

ईद का दिन है गले मिलके चलो यूं कर लें
क्यूँ न अग़यार से रंजिश को मिटा दी जाए,,

जो भी होगा,नहीं अंजाम की मुझको परवाह,
जाके हक़ बात उसे आज बता दी जाए,

आज शिद्दत की है गर्मी मेरी ज़िंदां में यहां,
मुझको अब इसके शिगाफ़ो से हवा दी जाए,,

देश के हम पे हैं एहसान बहुत सुन ‘क़ासिम’,
क्यूँ न इसके लिए ये जान लुटा दी जाए,,

000

चांद

फ़लक पे आज हसीं देखो कितना लगता चॉंद
चमक बिखेरता अपनी है चौहदवीं का चॉंद

वो मुझसे आए जो मिलने तो ईद मेरी हुई
जो उनको देखा तो फीका लगा फ़लक का चॉंद

ख़ुशी का अपनी करूं आज कैसे मैं इज़हार
बताऊं क्या मिरे आंगन में आज उतरा चॉंद

कभी जो ओट में बादल की छुप गया जाकर
उदास दिल रहा जब तक न फिर से देखा चॉंद

मैं उसके चेहरे को तशबीह चॉंद की देकर
सभी से कहता हूं सबसे हसीं है मेरा चॉंद

अंधेरी रात को रोशन सदा वो करता है
जो चॉंदनी से सदा रहता है नहाया चॉंद

है काइनात का सय्यारा चॉंद भी लेकिन
वजूद अपना अलग सबसे पर है रखता चॉंद

क़मर के हुस्न की क्या बात होती है वल्लाह
नदी में, झील में, सागर में जब भी दिखता चॉंद

बसाने बस्ती चला चॉंद पर भी अब इंसान
ठिकाना आदमी का भी कभी बनेगा चॉंद

लगे है चेहरा मुझे चॉंद की तरह उसका
इसीलिए तो रखा नाम मैंने उसका चॉंद

सभी को एक सी देता है रोशनी अपनी
इसीलिए तो सभी को है अपना लगता चॉंद

ये चंद्रमा की कलाएं भी ख़ूब हैं ‘क़ासिम’
कभी बहुत है बड़ा उर कभी है छोटा चॉंद

 

Rising Bhaskar
Author: Rising Bhaskar


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