(कासिम बीकानेरी वरिष्ठ कवि और शाइर हैं। आप साहित्य की हर विधा में लिखते हैं। आपकी रचनाओं में मानव प्रेम, देशभक्ति, पर्यावरण, करुणा और समसामयिक विषयों का समावेश रहता है। आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। फिल्मों से भी जुड़ाव रहा है। आप बेहतरीन लेखक होने के साथ अच्छे कलाकार भी हैं। यहां कासिमजी की कुछ गजलें पेश हैं।)
बात करें
घनेरी ज़ुल्फ़ की, काली घटा की बात करें
सहर के नूर की, उस मह-लक़ा की बात करें
दिलों के गुंचे खिलाती फ़ज़ा की बात करें
महक बिखेरती ताज़ा हवा की बात करें
शफ़क़ पे लाला-ओ-गुल के हसीन मंज़र की
कि दस्ते-नाज़ के रंगे-हिना की बात करें
दिलो-दिमाग़ में तेरा ही है तसव्वुर जब
तो और कौन है जिस दिल-रुबा की बात करें
ख़याल मिलता नहीं है किसी से जब अपना
तो इस जहान में किस हमनवा की बात करें
तज़ाद ज़ाहिरो-बातिन में कुछ नहीं उसके
हसीन जिस्म की, चाहे क़बा की बात करें
लुभा रही है महकती हवा जो मदमाती
है वक़्त सुब्ह का बादे-सबा की बात करें
हमें वफ़ा के सिवा और कुछ नहीं आता
वो लाख ज़ुल्म की,जोरो-जफ़ा की बात करें
कुछ और सोचने की हमको है कहां फ़ुर्सत ?
जो तुझ को भूलें तो किस ख़ुश-अदा की बात करें
हमारे प्यार की परवा नहीं उसे तो न क्यूँ
हम अपना दर्द भुलाकर, दवा की बात करें
दिया है ज़ख़्म जो उसने कहीं न भर जाए
“चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें”
फ़ना की तर्ह बक़ा भी तो इक हक़ीक़त है
फ़ना को याद रखें और बक़ा की बात करें
ज़रा भी क़द्र वफ़ा की जिसे नहीं कोई
जहां में उससे अ़बस क्यूं वफ़ा की बात करें
हमें तो शौक़ नहीं, तब्सिरा करें ‘क़ासिम’
वफ़ा को जुर्म वो मानें, सज़ा की बात करें
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कुछ वहां ठहरे
देखने को तुझे जहां ठहरे
कुछ यहां और कुछ वहां ठहरे
आबरू हो रही यहां नीलाम
किस लिए कोई अब यहां ठहरे ?
मुझको ले जाओ उस जगह पे, जहां
धरती ठहरे न आसमां ठहरे
कोशिशें रोकने की ख़ूब ही कीं
चल दिये वो मगर , कहां ठहरे
दूरियां कम न हो सकीं हरगिज़
लाख अपनों के दरमियां ठहरे
था चराग़ों का जुर्म बस इतना
क्यूं हवाओं के दरमियां ठहरे
प्यार से आशना नहीं जो लोग
कौन ऐसों के दरमियां ठहरे
याद उनकी हमारे साथ रही
इस नगर में जहां जहां ठहरे
इन सवालों से कुछ नहीं हासिल
आप किस से मिले,कहां ठहरे ?
राज़ इसका बता दो ‘क़ासिम’ को
‘कैसे मुट्ठी में ये धुआं ठहरे’
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खुशी के एवज
मैं चाहता हूं फ़क़त प्यार दोस्ती के एवज़
हज़ार ग़म मिलें फिर चाहे इस ख़ुशी के एवज़
जहां में प्यार की दौलत से हूं मैं मालामाल
मुझे मिला है ये सब कुछ सुख़नवरी के एवज़
तिरे वजूद में इक दाग़ को किया शामिल
ये क्या मिला है क़मर तुझको चांदनी के एवज़
इस एक बात की ख़ातिर मैं क्यूं करूं शिकवा
मेरे नसीब में ज़ुल्मत है रोशनी के एवज़
तिरे बग़ैर मैं जी कर भी क्या करूंगा यहॉं
मैं मांग लूंगा तुझे अपनी ज़िंदगी के एवज़
मैं चुप रहा तो ज़माने ने कम मुझे समझा
मिला है ये मुझे इनआ़म ख़ामुशी के एवज़
मलाइका की इबादत है बे-ग़रज़ लेकिन
बशर को चाहिए फ़िरदौस बन्दगी के एवज़
तिरे लिए ही ग़मों से की दोस्ती हमने
‘हज़ार दर्द सहे हैं तिरी ख़ुशी के एवज़’
बड़े क़रीने से दिल में बसाके रखता हूं
वो दाद, मिलती है मुझको जो शाइरी के एवज़
सुकून के लिए ‘क़ासिम’ भटक रही दुनिया
क़रार तुझको मिला बांट कर ख़ुशी के एवज़
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दीवार
ऐसी तहज़ीब ज़माने में चला दी जाए,
ये जो नफ़रत की है दीवार गिरा दी जाए
मेरी क़ीमत भी मुझे आज बता दी जाए,
करके नीलाम, मिरी बोली लगा दी जाए,,
नूरे-वहदत से हो रोशन ये ज़माना सारा,
भटके लोगों को चलो राह दिखा दी जाए,,
दौरे-फ़ितना में हमें इसकी ज़रूरत है बहुत,
हर क़दम एक नई शम्अ़ जला दी जाए
कोई दरिया जो तक्कबुर में अगर आता है,
उसको सूरत किसी सागर की दिखा दी जाए,,
सर्द मौसम में नहीं पास में कंबल जिसके,
इक सख़ावत से भरी शॉल चढ़ा दी जाए,,
ईद का दिन है गले मिलके चलो यूं कर लें
क्यूँ न अग़यार से रंजिश को मिटा दी जाए,,
जो भी होगा,नहीं अंजाम की मुझको परवाह,
जाके हक़ बात उसे आज बता दी जाए,
आज शिद्दत की है गर्मी मेरी ज़िंदां में यहां,
मुझको अब इसके शिगाफ़ो से हवा दी जाए,,
देश के हम पे हैं एहसान बहुत सुन ‘क़ासिम’,
क्यूँ न इसके लिए ये जान लुटा दी जाए,,
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चांद
फ़लक पे आज हसीं देखो कितना लगता चॉंद
चमक बिखेरता अपनी है चौहदवीं का चॉंद
वो मुझसे आए जो मिलने तो ईद मेरी हुई
जो उनको देखा तो फीका लगा फ़लक का चॉंद
ख़ुशी का अपनी करूं आज कैसे मैं इज़हार
बताऊं क्या मिरे आंगन में आज उतरा चॉंद
कभी जो ओट में बादल की छुप गया जाकर
उदास दिल रहा जब तक न फिर से देखा चॉंद
मैं उसके चेहरे को तशबीह चॉंद की देकर
सभी से कहता हूं सबसे हसीं है मेरा चॉंद
अंधेरी रात को रोशन सदा वो करता है
जो चॉंदनी से सदा रहता है नहाया चॉंद
है काइनात का सय्यारा चॉंद भी लेकिन
वजूद अपना अलग सबसे पर है रखता चॉंद
क़मर के हुस्न की क्या बात होती है वल्लाह
नदी में, झील में, सागर में जब भी दिखता चॉंद
बसाने बस्ती चला चॉंद पर भी अब इंसान
ठिकाना आदमी का भी कभी बनेगा चॉंद
लगे है चेहरा मुझे चॉंद की तरह उसका
इसीलिए तो रखा नाम मैंने उसका चॉंद
सभी को एक सी देता है रोशनी अपनी
इसीलिए तो सभी को है अपना लगता चॉंद
ये चंद्रमा की कलाएं भी ख़ूब हैं ‘क़ासिम’
कभी बहुत है बड़ा उर कभी है छोटा चॉंद
