-क्या वसुंधरा राजे नई पार्टी बनाएगी और अपनी राजनीतिक ताकत का प्रदर्शन करेगी, क्या फिर से कमल से छिटक कर कोई गुलाब खिलेगा या कांटों की राह पर चलने से पहले ही मुरझा जाएगा, राजनीति में चुप बैठना कभी कभी समझदारी होती है, मगर लंबी खामोशी नैपथ्य में भी डाल सकती है, इसलिए चतुर खिलाड़ी वही होता है जो मौका मिलते ही राजनीतिक पिच पर चौके-छक्के जड़ना शुरू कर दे। लेकिन इस बात का ध्यान रखना हाेगा कि उसे क्लीन बोल्ड होने से और कैच आउट होने से भी बचना है…वसुंधरा की हालत इस समय उस दौर से गुजर रही है कि उसके पास विकल्प तो कम है, मगर मौका अभी नहीं तो फिर कभी नहीं…लोकसभा चुनाव सिर पर है…किसानों का आंदोलन सामने है, राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदल रहा है, ऐसे में अगर वह नई पार्टी बनाकर गहलोत से हाथ मिलाती है तो राजनीति की पाठशाला में फिर से वसुंधरा का एक नया चैप्टर पढ़ाया जाएगा, नहीं तो राजनीति की क्लास में यही पढ़ाया जाएगा एक थी वसुंधरा…यही हाल अशोक गहलोत का होने वाला है। इसलिए वसुंधरा जी, गहलोत जी उठिए, अपने को फिर से साबित कीजिए…
डीके पुरोहित. जोधपुर
राजनीति में जो दिखता है वो होता नहीं और जो नहीं दिखता है वो कभी कभी हो जाता है…पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भजनलाल शर्मा नाम के भोलेराम के जीव के नाम की पर्ची निकालकर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। अब समय पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का है…नरेंद्र मोदी कभी कच्ची गोटियां नहीं खेलता, मगर आदमी अपनों से ही हारता है। अपनों का साथ भी कम तब मिलता है जब अपनों के साथ राजनीति इस कदर हाे जाए कि सपनों पर कुठाराघात हो जाए। राजनीति में जब नेताओं का इस्तेमाल किया जाए और वक्त आने पर दूध से मक्खी की तरह निकाल दिया जाए तो उसे क्या कहा जाए? वसुंधरा राजे की विधानसभा चुनाव के पहले चरण में घोर उपेक्षा की गई। टिकट वितरण में उसकी बिल्कुल नहीं चली। राजनीतिक मंचों पर उनकी उपेक्षा की गई। वसुंधरा खून के घूंट पीती गई। उसने मुंह से उफ तक नहीं की। यही वसुंधरा की गंभीरता थी। समझदारी थी। धैर्य था। जब टिकटों की घोषणा हुई और चारों तरफ आग लग गई। विरोध की लपटें उठीं तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अहसास हुआ कि कुछ तो गलत हो रहा है। तब अंतिम दौर में वसुंधरा को खुश किया गया। उसे साथ में लिया गया। उसके कहे मुताबिक सीटें दी गई। परिणाम बदला। जब 3 दिसंबर को रिजल्ट आया तो कमल खिला। कमल खिला तो वसुंधरा भी खिली। मगर यह खिलखिलाहट अधिक देर नहीं चली। जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जुगल जोड़ी ने राजस्थान में सरकार बनाने के विकल्प ढूंढ़ने शुरू कर दिए। और मीडिया कयास ही लगाता रहा। दर्जनों नाम मीडिया ने गिना दिए और किसी को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। किसी भी अखबार या किसी भी चैनल की भविष्यवाणी सही नहीं हुई और मुख्यमंत्री बन गए भजनलाल शर्मा। वसुंधरा के हाथों से यह खेल रचा गया। वो लक्ष्मीबाई अपनों से लोहा लेती रही। सबकुछ रौंधे गले से रुलाई रोकते हुए सहन किया। मगर तभी वसुंधरा ने संकल्प ले लिया था कि वक्त आने पर वह इसका जवाब देगी। वो चाहती तो उसी समय खेल बिगाड़ सकती थी। क्योंकि आज भी कम से कम 40 एमएलए उसके पास उसके पाले के हैं जो कभी भी उसके इशारे पर उसके साथ जा सकते हैं। मगर वसुंधरा ने तुरंत प्रतिक्रिया नहीं दी।
खैर अब बात अशोक गहलोत की करते हैं। भारत में उन्हें जादूगर कहा जाता है। जादूगर की जादूगरी की इस बार हवा निकल गई। 90 से अधिक टिकट तो जादूगर ने अपने ही विधायकों, सांसदों और मंत्रियों के रिपीट कर दिए, जिनकी छवि जनता में खराब थी। जिन पर करेप्शन के आरोप थे। जिनका सीधा-सीधा जनता में विरोध था। चूंकि इन विधायकों ने अशोक गहलोत की सरकार बचाने में मदद की और अशोक गहलोत के पक्ष में एक साथ सामूहिक इस्तीफे दिए तो अशोक गहलोत ने भी उनसे वफादारी निभाई। यहीं उनकी राजनीतिक भूल सामने आ गई। उसी समय अगर अशोक गहलोत समझदारी दिखाते और टिकट वितरण में कुछ इनोवेशन करते और चतुराई दिखाते तो आज कम से कम से उनके पास 150 सीटें आती। क्योंकि अशोक गहलोत के खिलाफ जनता में किसी प्रकार की नाराजगी नहीं थी। उनके काम आज भी जनता के बीच बोलते हैं। उन्होंने सारे समाज के लोगों को खुश रखा। उनसे कोई नाराजगी नहीं थी। नाराजगी उनके विधायकों, सांसदों और मंत्रियों से थी। इसलिए अगर उसी समय अशोक गहलोत टिकटों का वितरण सही करते तो आज तस्वीर कुछ अलग ही होती। खैर अब जो हुआ नहीं उसकाे याद करने से लकीर पीटने से कोई मतलब नहीं है। मगर राजनीति में अंतिम समय तक हार नहीं मानी जाती। अभी भी अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे के लिए सारे रास्ते खुले हैं।
ये हैं रास्ते : वसुंधरा राजस्थान की मुख्यमंत्री बने, अशोक गहलोत प्रधानमंत्री बनने का प्रयास करे
अब जाे नए समीकरण बनाए जा सकते हैं, उसके मुताबिक वसुंधरा राजे को नई पार्टी बनानी चाहिए और नई पार्टी बनाकर अशोक गहलोत के विधायकों के समर्थन से सरकार बनानी चाहिए। हमारा सुझाव है वसुंधरा को भारतीय जन पार्टी (भाजपा) बनानी चाहिए। अब वैसे भी वसुंधरा की राजनीति बची कितनी है? केंद्र में उन्हें अधिक से अधिक मंत्री बनाया जा सकता है। राजस्थान में उनके पास केवल विधायकी है। अब लोकसभा चुनाव में उन्हें खड़ा किया जाता है और वो जीतती है तो किसी विभाग का मंत्री बना दिया जाएगा। लेकिन इससे वसुंधरा के कलेजे को ठंडक पहुंचने वाली नहीं है। उसके अपमान का घूंट काफी गहरा है। जो जहर उसने पिया है, उसका जवाब भी वह जहर से ही देगी तब प्रधानमंत्री को अपनी गलती का अहसास होगा। लोकतंत्र में काम संख्या से होता है। संख्या वसुंधरा के पक्ष में थी। मगर वीटो पॉवर का इस्तेमाल करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वसुंधरा राजे की जगह भजन को भजन करवाए। अब देखना है कि भजन के भजन कब तक चलते हैं। भजन भजन ही करते रहेंगे और राजस्थान में नया कीर्तन शुरू हो जाएगा। अब इस नए कीर्तन की शुरुआत जल्द होने की उम्मीद की जा रही है। राजस्थान में वसुंधरा राजे को अपनी सरकार बनाने के प्रयत्न करने शुरू कर देने चाहिए और अशोक गहलोत को राष्ट्रीय राजनीति में हाथ आजमाने चाहिए। मल्लिकार्जुन खरगे के वश की बात नहीं है कांग्रेस को संभालना। राहुल की स्थिति यह है कि उसे देश में हास्यास्पद बना दिया गया है। उसकी स्थिति जोकर से अधिक कुछ नहीं है। वो जब बोलता है तो खुद कांग्रेसी डरते हैं कि कुछ गड़बड़ ना हो जाए। इसलिए ऐसे नेता से कांग्रेस को भगवान ही बचाए। सोनिया की अब उम्र हो चुकी है। प्रियंका से ज्यादा उम्मीद नहीं है। रही बात कांग्रेस में प्राण फूंकने की तो यह काम केवल और केवल अशोक गहलोत कर सकते हैं। अशाेक गहलोत की छवि अभी भी ईमानदार राजनेता और साफ-सुथरे व्यक्तित्व की है। अशोक गहलोत विकास की राजनीति करते हैं। वे जोड़ने की राजनीति करते हैं। वे विनाशकारी राजनीति नहीं करते। राजस्थान में उन्होंने जो कार्य किए हैं, वे देश भर में नजीर बने हैं। उनका कोरोना काल में मैनेजमेंट सराहनीय रहा। उन्होंने पांच साल में विकास के नए आयाम छुए। अशोक गहलोत का जवाब केवल अशोक गहलोत है। सचिन पायलट अभी अशोक गहलोत के सामने बच्चे हैं। इसलिए उन्हें कांग्रेस को मजबूत बनाने में अशोक गहलोत का साथ देना चाहिए। दोनों मिलकर चलेंगे तो कांग्रेस ताकत बनेगी और दोनों में मनमुटाव रहा तो दोनों को नुकसान होने वाला है। इसलिए अब एक ही रास्ता बचता है कि अशोक गहलोत राष्ट्रीय राजनीति में जाए और प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी उम्मीदवारी जताए। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस समय कांग्रेस को फिर से जीवित करना है तो अशोक गहलोत का उदय होना जरूरी है। अशोक गहलोत 72 पार के हो गए हैं। अब उनके पास ऊर्जा के साथ काम करने का समय कम ही बचा है। ऐसे में उन्हें अपनी प्रतिभा और अनुभव दिखाने का पूरा मौका मिलना चाहिए। अशोक गहलोत राजनीति के चतुर खिलाड़ी है। वे नरेंद्र मोदी की तरह भलेही प्रखर वक्ता नहीं हो लेकिन चालें चलने और राजनीतिक निर्णय लेने में उनका मोदी से कम दिमाग चलता हो ऐसा नहीं है। अशोक गहलोत राजनीति के शहंशाह है। वे खुद कहते आए हैं हर गलती कीमत मांगती है। उन्होंने विधानसभा चुनाव में जाे गलती की उसकी कीमत उन्होंने चुका ली। लेकिन अब फिर गलती करते हैं तो उनका अंत होना निश्चित है। राजनीति में सक्रियता जरूरी है। चुप बैठना और हथियार डाल देना योद्धाओं की निशानी नहीं है। अशोक गहलोत ऐसे योद्धा हैं जो अपने पर आ जाएं तो अभी बहुत कुछ कर सकते हैं। अगर अभी भी अशोक गहलोत नहीं संभले तो उन्हें राजनीति में बहादुर शाह जफर बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। हालांकि हम तो पहले ही लिख चुके हैं कि राजस्थान कांग्रेस में बहादुर शाह जफर बनने की ओर अग्रसर अशोक गहलोत। लेकिन गहलोत से हमारा विशेष प्रेम है। क्योंकि गहलोत के मानवीयता से ओतप्रोत गुणों के हम कायल हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हम अलग नजरिए से देखते हैं और अशोक गहलोत को अलग नजरिए से। वसुंधरा राजे को भी हम कम नहीं आंकते। अभी हमारे सामने तीन नेता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे। हम भी चाहते हैं कि राजस्थान में फिर से राजनीतिक भूचाल आए और भजन सरकार के भजन शांत हो। क्योंकि भजन सरकार लोकतांत्रिक सरकार नहीं है। यह थौपी हुई सरकार है। विधायक दल ने भजनलाल शर्मा को नेता नहीं चुना है। यह पर्ची सरकार है। पर्ची सरकार को पर्चा दिखाना जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि अशोक गहलोत और वसुंधरा फिर से अपनी ताकत पहचाने। राजस्थान ही ऐसा स्टेट है जहां से देश में कांग्रेस के लिए माहौल बन सकता है।
जोधपुर का आदमी मुख्यमंत्री बना, अब प्रधानमंत्री बन गौरव बढ़ाए
अशोक गहलोत ने मुख्यमंत्री बनकर राजस्थान का गौरव बढ़ाया। अब अशोक गहलोत को देश का प्रधानमंत्री बनकर गौरव दिखाना चाहिए। अभी राजनीति के सारे रास्ते बंद नहीं हुए हैं। राजनीति लंबी प्रक्रिया है। जब पल में प्रलय हो सकता है तो राजनीति में पल में भूचाल भी आ सकता है। जरूरत है इच्छा शक्ति की। राजनीति में चतुर दिमाग चाहिए। हर समय अपने को साबित करना पड़ता है। एक साथ हजार दिमाग के घोड़े दौड़ाने पड़ते हैं। कभी आंसू बहाने पड़ते हैं, कभी आंख दिखानी पड़ती है, कभी हंसना पड़ता है कभी गंभीर होना पड़ता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में राम और कृष्ण दोनों के गुण है। इस मामले में अशोक गहलोत थोड़े कमजोर हैं। वे कट्टर राजनीतिज्ञ नहीं है। राजनीतिक कट्टरता की बजाय वे उदार राजनीति के पोषक हैं। उन्हें कट्टर भलेही नहीं होना चाहिए मगर राजनीतिक परिस्थितियों का आकलन करने का अनुमान लगाना आना चाहिए। इस समय देश में नरेंद्र मोदी के अलावा कोई नेता नहीं है जो देश का नेतृत्व कर सके। ऐसे में अशोक गहलोत को उनका विकल्प बनना चाहिए। कांग्रेस को बिना देर किए अशोक गहलोत को देश का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर देना चाहिए।
रविंद्रसिंह भाटी को कांग्रेस में शामिल करने का उचित समय
यह समय कांग्रेस के लिए उचित है जब रविंद्र सिंह भाटी को कांग्रेस में शामिल करवाने के प्रयास करने चाहिए। रविंद्र सिंह भाटी को भाजपा ने और एबीवीपी ने हर बार धोखा ही दिया है। वे अगर राजनीति में जिंदा है तो अपने खुद के दम पर। ऐसे युवा, प्रतिभाशाली और जनाधार वाले राजपूत नेता को कांग्रेस में शामिल कर पार्टी को उसकी प्रतिभा का लाभ लेना चाहिए। रविंद्रसिंह भाटी कमाल का नेता है। उसमें जो आत्मविश्वास है वो आत्मविश्वास ही उसकी ताकत है। युवाशक्ति का जनाधार रविंद्रसिंह भाटी के पास है। रविंद्रसिंह भाटी तेज तरार नेता है। कांग्रेस में वैसे भी अब अच्छे नेताओं की कमी है। यह कमी रविंद्रसिंह भाटी पूरी कर सकता है। इसलिए अशोक गहलोत को चाहिए कि रविंद्र को कांग्रेस में शामिल करवाए। रविंद्र की उम्र अभी 26 साल है। पूरा भविष्य उसके सामने हैं। कांग्रेस में प्राण-फूंकने में रविंद्रसिंह भाटी और अशोक गहलोत दोनों तरुप के इक्के साबित हो सकते हैं। यह समय सोचने का नहीं त्वरित निर्णय लेने का है। राजनीति में त्वरित निर्णय लेने पड़ते हैं। जाे पार्टी और जो नेता निर्णय नहीं ले सकता, उसे राजनीति में हाशिए पर आने में वक्त नहीं लगता। ऐसे में हे मल्लिकार्जुनाें, हे राहुल गांधियों, हे सोनिया गांधियों, हे प्रियंका गांधियों मुक्त करो कांग्रेस को…कांग्रेस को जिंदा रखना है तो वंशवाद की परंपरा को तोड़ो और आगे बढो। अगर सत्ता के इर्द गिर्द घूमते रहोगे तो खुद भी खत्म हाे जाओगे और पार्टी भी खत्म हाे जाएगी। अब रविंद्रसिंह जैसे युवा नेताओं को आगे बढ़ाने की जरूरत है। इधर सुनील चौधरी भी लोकसभा चुनाव लड़ने को आतुर है। वो अखबारबाजी भी करने लगा है। हालांकि अखबारबाजी करने से कोई नेता नहीं बन जाता। इसके लिए रविंद्रसिंह भाटी जैसा मादा भी होना चाहिए। रविंद्र जब बोलता है तो हर कोई खिंचा चला जाता है। मां भगवती का आशीर्वाद रहा तो, पिता तुल्य बुजुर्गों और मेरे भाइयों…ऐसे कई जुमले हैं जो रविंद्र को भीड़ से अलग बनाते हैं। ऐसी प्रतिभा की बीजेपी ने अनदेखी की। अब रविंद्र को बीजेपी का मोह छोड़ देना चाहिए। बीजेपी में नेताओं की भरमार है। जब वटवृक्ष बहुत सारे हो तो नई पौध नहीं पनप पाती। इसलिए अगर रविंद्र को राजनीतिक भविष्य बनाना है तो कांग्रेस का दामन थाम लेना चाहिए। वैसे भी रविंद्र सिंह भाटी ने शिव की जनता से विकास के नाम पर वोट मांगे थे। रविंद्र ने किसी भी पार्टी या किसी भी नेता का विरोध व्यक्तिगत रूप से नहीं किया। यही उसकी समझदारी भी है और ताकत भी। रविंद्र समन्वयकारी नेता है। धीरे-धीरे उनमें गंभीरता आ जाएगी और उनका भविष्य उज्ज्वल है।
कांग्रेस संक्रमण काल से गुजर रही, अभी भी नहीं संभले तो फिर कभी मौका नहीं मिलेगा
इस समय कांग्रेस का संक्रमण काल चल रहा है। अब कब जाकर कोई क्रांतिकारी नेता आए और कांग्रेस में प्राण फूंके तब तब भाजपा कांग्रेस का पूरी तरह से सफाया ही कर देगी। इसलिए जो बचे हुए हैं उन्हें तो संभाल रखिए। अशोक गहलोत के अनुभव का लाभ उठाकर कांग्रेस देश में जादुई परिवर्तन ला सकती है। अब राहुल, सोनिया, प्रियंका और मल्लिकार्जुन काे कोने में बैठकर तमाशा देखना चाहिए। पूरी बागडोर अशोक गहलोत को सौंप देनी चाहिए। उन्हें खुलकर खेलने देना चाहिए। जादूगर अभी खत्म नहीं हुआ है। वो फिर से खड़ा हाेगा। ब्यूरोक्रेट आज भी अशोक गहलोत को पसंद करते हैं और उनके साथ काम करने को लालायिक रहते हैं। गहलोत धैर्यवान और बुद्धिमान नेता है। उनमें नेतृत्व के सारे गुण है। देश में उनकी छवि भी अच्छी है। इसलिए कांग्रेस का भला इसी में है कि गहलोत को आगे करें। बाकी सब पीछे हट जाएं और उनका साथ दें।