मरी हुई आवाज !
पहाड़ों के पार से आई हुई
या किसी मन से निकली हुई आवाज
अब कहीं नहीं पहुंचती ।
किसी व्यस्त चौराहे पर भीख मांगते
बूढ़े भिखारी की करुण कातर दृष्टि
या कार के शीशे साफ करते
उस मासूम किशोर की ईमानदाराना मेहनत
अब कोई नहीं देखता ।
किसे फुर्सत है अब भरी गर्मी में रिक्शा खींचते नौजवान की पिंडलियों पर उभरी मांसपेशियों को देखने की ।
कौन सुनना चाहता है उस गोद में बच्चा लिए
ठेकेदार से अपनी दिहाड़ी के लिए
गिड़गिड़ाती नवयौवना मजदूरन की आवाज
क्यों कि आवाजें तो अब कहीं नहीं पहुंचतीं ।
घंटे घड़ियालों की आवाजें या प्रार्थनाएं अब
मंदिरों की दीवारों से टकरा कर अपना दम तोड़ देती हैं ।
धरनों और प्रदर्शनों की आवाजें अपनी बात कहने से पहले मर जाती हैं
और नेताओं की आवाजें संसद में शोर बन कर बिखर जाती हैं ।
अब आवाजों में दम भी कहां रहा है !
घिसे टूटे और मरे हुए अर्थहीन शब्दों वाली आवाजें
बस हवा में सरसराती हैं
और आग बनने से पहले ही बुझ जाती हैं !
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इंतजार !
निकल गया ! वह समय निकल गया
जब क्रांति होनी थी ।
अब बस उस समय की धूल शेष है ।
वह समय था क्रांति का तब उस समय में
हम व्यस्त थे अपनी तलवारों की धार तेज करने में !
मशालें जलाने में
या मोर्चे बांधने में !
वह जो समय था युद्ध का,
उस समय विशेष में हम लगे हुए थे
हुजूम इकठ्ठा करने में !
योजनाएं बनाने में और किले की दीवार बनाने में !
गुज़र गया वह युद्ध का समय ।
अब हम खड़े हैं रास्ते और रास्ते पर उड़ती हुई धूल में लथपथ –
जो छोड़ गया है समय ।
हाथ मलते हम कर रहे हैं
अगले समय का इंतजार ।
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मैं नहीं !
तुम्हारे घर में सामान था
तुम थे और अहंकार था
मैं कहीं नहीं था !
आज खाली मकान है
टूटा अहंकार है
और अकेले तुम हो
अब मैं नहीं हूं !
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कस्तूरी
हे कस्तूरी !
तुझे पाने की चाह में
भटका हूं राम सा !
खोया है अपना प्यार !
तुझसे मिलने की चाह में
लांघे हैं नदी नाले पहाड़ !
हे चन्दन !
तेरी शीतलता और
तेरी गंध पाने की ललक
करती है मुझे बेचैन !
तुझसे लिपटने की चाह में
घायल है मेरी सर्पिल देह !
हे केसर !
तेरा मोह मुझे
खींचता है तेरी ओर !
तुझमें डूबने की चाह में
पुलकित है मेरा रोम रोम !
तेरे मोह में मदमत मैं
झूमता सा फिरता हूं
यहां वहां !
हे अनन्त !
तेरा ओज और विशालता
मुझे अहसास कराती है-
मेरी तुच्छता का !
हे अपार ! हे असार !
मुझे समेट ले अपने भीतर कहीं !
कर दे मुझे भी –
अपार ! असार ! अनन्त !
– सूरज शर्मा ‘मकरध्वज’