-अशोक गहलोत हिंदू लहर के कारण नहीं हारे, उनके मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ जबरदस्त नाराजगी थी। गहलोत के ओएसडी लोकेश शर्मा का कहना सही है कि गहलोत ने परिस्थितियों को नजर अंदाज किया। टिकटों का गलत वितरण किया। उनकी योजनाएं शानदार थी। काम भी अच्छे किए। मगर यह गहलोत ने व्यक्तिगत रूप से किए, गहलोत के खिलाफ लोगों में गुस्सा नहीं था, उनके भ्रष्ट विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ गुस्सा था, गहलोत ने अपने वफादार मंत्रियों और विधायकों के टिकट काटने का साहस नहीं जुटाया और नतीजा सामने है। गहलोत सोचते रहे कि वे अपनी योजनाओं और घोषणा पत्र के आधार पर जीत जाएंगे। जबकि इस चुनाव में उन्होंने जीत की रणनीति बनाई ही नहीं। इनोवेशन किया ही नहीं। जोड़-तोड़, जादूगरी दिखाई नहीं। जीतने का जज्बा दिखाया ही नहीं। वे आत्ममुग्ध रहे। खुद उनके गढ़ में गलत टिकटें दी। पोकरण में सालेह मोहम्मद को टिकट देना गलत निर्णय था। सालेह मोहम्मद ने रूपाराम को और रूपाराम ने सालेह मोहम्मद को हराया। कुल मिलाकर यह चुनाव गहलोत के नेतृत्व में लड़ा गया और उनकी मूर्खताएं उन्हें ले डूबी। उनकी जादूगरी की हवा निकल गई। सारे समीकरण धरे रहे। इतनी करारी शिकस्त के वे खुद जिम्मेदार हैं। सचिन पायलट तो कहीं पिक्चर में ही नहीं है। यह गहलोत की व्यक्तिगत हार है और उनका राजनीतिक कॅरियर अब अस्त हो चुका है। लगभग अस्त। वे अगर सही टिकटों का वितरण करते तो कांग्रेस को 150 से अधिक सीटें मिलती, मगर उन्होंने 25 मंत्रियों को टिकट दिए जिनमें से 17 हार गए और 98 विधायकों को टिकट दिए जिनमें से 63 हार गए। सबके खिलाफ जनता में गुस्सा था। यह गुस्सा सुनामी में बदला और गहलोत युग अब लगभग खत्म हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भविष्वाणी सच होती दिखाई दे रही है कि इस चुनाव में गहलोत सरकार नहीं बनेगी और फिर कभी नहीं बनेगी।
डीके पुरोहित. जोधपुर
हर गलती कीमत मांगती है…यह अशोक गहलोत ने कहा था। गहलोत के मुंह से यह बात अकस्मात निकल गई थी। आज यही बात खुद उन पर लागू होती है। खुद उनकी गलतियां उन्हें ले डूबी। ऐसा नहीं कि उन्होंने काम अच्छे नहीं किए। उनके पास विजन है। उनके पास वो सबकुछ है जो उन्हें बेहतर मुख्यमंत्री साबित करते हैं। उनकी योजनाओं की पूरे देश में मिसाल नहीं है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वे कल्याणकारी योजनाओं के मामले में चार कदम आगे हैं। सब कुछ जमीन तैयार थी। हल जोतना बाकी था। मगर गलती यहीं से शुरू हुई। उन्होंने 25 मंत्रियों को टिकट दिए। इनमें से 17 हार गए। 98 विधायकों को टिकट दिए। इनमें से 63 हार गए। इतिहास में इतना कायर राजनीतिज्ञ नहीं हुआ जो अपने मंत्रियों और विधायकों के टिकट काटने का साहस नहीं जुटा पाया। टिकट काटता भी किस मुंह से। इन्हीं में से अधिकतर चेहरे वे थे जिन्होंने 25 सितंबर के कांड में गहलोत के समर्थन में नाटकीय ढंग से इस्तीफे दिए थे। गहलोत ने अपने इन वफादार मंत्रियों और वफादार विधायकों के समर्थन में वफादारी दिखाई मगर जमीनी हकीकत जानते हुए भी अहंकार में रहे। उन्होंने अपनी योजनाओं पर भरोसा किया। जनता की नाराजगी नहीं देखी और गलतियों पर गलतियां करते रहे।
सूरसागर से मुस्लिम प्रत्याशी का जीतना असंभव था फिर भी टिकट दी। बीडी कल्ला का जीतना मुश्किल था फिर भी टिकट दी। अमीन खां का जीतना संभव ही नहीं था फिर भी टिकट दी। मनीषा पंवार की भी हार तय थी फिर भी टिकट दी। महेंद्र विश्नोई की हार तय थी फिर भी टिकट दी। सालेह मोहम्मद की हार तय थी फिर भी टिकट दिया। ऐसे कई चेहरे हैं जिनका जीतना इस रण में असंभव था फिर भी टिकट दिए गए। वो भी बंपर भाव में। अरे बाप रे 25 मंत्रियों और 98 विधायकों को टिकट दे दिए। ऐसा मूर्ख राजनीतिज्ञ हमने आज तक नहीं देखा। लोग कहते होंगे उन्हें जादूगर मगर यहां उनकी जादूगरी पिटारे में बंद हो गई। वे अपनी जादूगरी भूल गए। भूले नहीं वे मजबूर थे। उनके पास इन मंत्रियों और विधायकों के टिकट रिपीट करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। आज अगर टिकट वितरण सही हुए होते तो उन्हें 150 से अधिक सीटें मिलती और उनकी भविष्यवाणी एक दम सही होती। मगर जिन लंगड़े घोड़ों पर उन्होंने दांव लगाया वे ही उनकी लुटिया डुबो बैठे। कहते हैं राजनीति बच्चों का खेल नहीं होती। राजनीति में गहलोत बच्चा ही साबित हुए। उन्होंने पायलट कांड में भलेही अपनी सरकार बचा ली। 25 सितंबर को विधायकों से इस्तीफे दिलाकर मुख्यमंत्री का ताज भी बचा लिया। अगर वे उस दिन कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाते और राजस्थान की कमान पायलट को सौंप देते तो उनके लिए राजनीति के सभी द्वार खुले रहते। विनाशकाले विपरीत बुद्धि। राजनीति में तात्कालिक लाभ नहीं देखे जाते। कई बार अपमान के घूंट पीने पड़ते हैं। बड़े लाभ के लिए छोटे लाभ छोड़ने पड़ते हैं। राजनीतिज्ञों को वसुंधरा राजे से सीख लेनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री की जोड़ी ने वसुंधरा राजे की राह पर लाख कांटे बिछाए। उनकी कई जगह अनदेखी हुई। बात-बात पर अपमान किया गया। वसुंधरा ने खून का घूंट पिया। गजेंद्रसिंह शेखावत, सतीश पूनिया, राजेंद्र राठौड़, सीपी जोशी जैसे दिग्गजों की खींचतान भी सहन की। वे लौह महिला हारी नहीं। उन्होंने मौन विरोध जारी रखा और अंतिम समय में मोदी और शाह को धरातल दिखा दिया। बिना वसुंधरा के राजस्थान की जंग में कमल खिलाना मोदी-शाह के भरोसे असंभव था। गजेंद्रसिंह शेखावत तो चुनाव लड़ने का साहस तक नहीं दिखा पाए। राजेंद्र राठौड़ जो मुख्यमंत्री का मुंह धो बैठे थे हार गए। सतीश पूनिया जिनकी सिंहासन पर नजर थी पछाड़े गए। गजेंद्रसिंह शेखावत तो इस रण में पहले से ही पीठ दिखा गए। यह अलग बात है कि मोदी उनको मुख्यमंत्री बनाते हैं तो वसुंधरा के साथ घोर अन्याय होगा। मगर वह ऐसी महिला है जो चतुर खिलाड़ी है। वह वक्त आने पर इसका हिसाब चुकता करेगी। अभी बात केवल अशोक गहलोत की करेंगे। राजस्थान की इस जंग में गहलोत के पास शानदार मौका था। उन्होंने अपने सारे दांव सही खेल दिए थे। मगर अंत भला तो सब भला। यहीं वे मात खा गए। अंतिम समय पर टिकटों का गलत वितरण उनकी मूर्खता साबित कर गई। उनका राजनीतिक अनुभव कहां गया? उनकी जादूगरी कहां गई? उनकी दूरदर्शिता कहां गई? उनका कुशल राजनीतिज्ञ होना कहां गया? कमांडर ही हार का जिम्मेदार होता है। उनके राज में पेपर लीक कांड हुए। नोटों की गडि्डयां निकलीं। लाल डायरी कांड हुआ। महिलाओं और बालिकाओं के साथ रेप हुए। जनता सबकुछ भूल जाती है। भूल भी जाती। यदि टिकटों का सही वितरण हुआ होता। वही घिसे पिटे चेहरे। वे ही बूढ़े नेता। खुद गहलोत की अक्ल सठिया गई थी। राहुल गांधी तो मूर्ख है ही इस बार अशोक गहलोत महामूर्ख साबित हुए। राहुल गांधी ने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की लुटिया डुबो दी तो राजस्थान में अशोक गहलोत ने। इतिहास में अशोक गहलोत की भूल को कभी माफ नहीं किया जाएगा। जीत के लिए एक जुनून चाहिए। जीत के लिए कुशल रणनीति चाहिए। आपके पास हजार तोप गोले और बारूद हो मगर जीत का जज्बा ही ना हो तो सब बेकार। आपने कितने ही अच्छे कार्य किए हो। उसको भुना भी लो लेकिन जनता को संतुष्ट नहीं कर सको तो लोकतंत्र में ऐसा राजनीतिज्ञ विफल ही माना जाएगा। गहलोत के लिए राजनीति के द्वार लगभग बंद हो चुके हैं। वे 70 के पार हो चुके हैं। उनकी उम्र का अहसास होने लगा है। अगर इस बार थोड़ा संयम दिखाया होता। थोड़ी धरातल की गंध पहचानी होती। थोड़ा इनोवेशन किया होता। जनता की नब्ज पहचानी होती। कुछ कमाल दिखाया होता तो कमल नहीं हाथ लहराता। विजय पताका कांग्रेस की फहराती। राजस्थान में 150 से अधिक सीटें कांग्रेस को मिलती। क्योंकि गहलोत के काम में कोई कमी नहीं थी। उन्होंने सबको संतुष्ट किया। जिसने जो मांगा वो दिया। मगर उनकी कई भूले भी रहीं। वे जोधपुर में जेडीए का चेयरमैन तक नहीं बना पाए। जैसलमेर में यूआईटी का चेयरमैन तक नहीं बना पाए। ऐसे कई राजनीति के पद थे जिन्हें वे पांच साल में नहीं भर पाए। उनके पास शानदार मौका था। वे लोगों को खुश कर सकते थे। मगर उनकी गलतियां रहीं। जोधपुर में वरिष्ठ कांग्रेसी पवन मेहता ने करीब तीन साल पहले अशोक गहलोत को गोपनीय पत्र लिखा था। इस पत्र की एडिटिंग इस रिपोर्टर ने ही की थी। मेहता ने लिखा कि वे कांग्रेस के समर्पित सिपाही रहे। उन्होंने शहर विधानसभा क्षेत्र से टिकट मांगा मगर मनीषा पंवार को दिया गया। मनीषा को जिताने में उन्होंने पूरा साथ दिया मगर उन्होंने 40-50 साल की कांग्रेस की सेवा का भी उन्हें कोई फल नहीं दिया। पवन मेहता भयंकर गहलोत से नाराज थे। इस बार अगर पवन मेहता को ही टिकट दिया गया होता तो भी शहर विधानसभा क्षेत्र का नक्शा कुछ और होता। मगर गहलोत ने अपने ही आदमियों को नाराज किया। मनीषा की हार निश्चित थी। कांग्रेस के वोट तो कांग्रेस को मिलते ही ओसवालों के वोट भी मिलते। मगर पवन मेहता की अनदेखी की गई। खैर पवन मेहता अकेले नहीं है। कई पवन मेहता है। गहलोत के सामने इस बार प्रो. महेदंस्रिंह राठौड़ थे। उन्हें 70 हजार से अधिक वोट मिले। राठौड़ के पास प्रचार का समय भी कम था। उन्होंने बेमन से चुनाव लड़ा। अगर जीत के लिए लड़ते। थोड़ा पैसा खर्च करते। पूरी प्लानिंग करते और कड़ी रणनीति बनाते तो इस बार गहलोत को खुद जीतने में छींके आती। चूंकि वे तीन बार सीएम रह चुके हैं और इस बार भी सीएम का चेहरा थे। दूसरा उनके विधानसभा क्षेत्र में माली, मुसलमान और कांग्रेस के अपने परपंरागत वोटर्स अधिक है इसलिए गहलोत के लिए यह सुरक्षित सीट है। गहलोत हर बार इस सीट से ही लड़ते हैं। गहलोत की अग्नि परीक्षा तो तब होती जब वे किसी और सीट से चुनाव लड़ते। तब जीतते तो उनकी व्यक्तिगत जीत होती। खैर यह अलग मुद्दा है। बात उनकी गलतियों की हो रही है तो इस चुनाव में उन्होंने गलतियों पर गलतियां की और परिणाम सबके सामने है।
इस चुनाव में कई बड़बोले नेताओं को जनता ने धूल चटा दी। आरएलपी सुप्रीमो और नकचढ़े नेता हनुमान बेनीवाल मामूली अंतर से जीत भले ही गए हो मगर उनका पार्टी समीकरण ही बिगाड़ पाई। बाकी अब यह समझ लेना चाहिए कि राजनीति में अकड़ और बदजुबानी का कोई स्थान नहीं। आपके पास जातिगत समीकरण हो, ताकत हो, सबकुछ हो यदि वाणी पर संयम नहीं है। अहंकार से भरे हो तो जनता धूल चटाने में एक मिनट नहीं लगाती। बेनीवाल तो हारे हुए ही थे, किस्मत से जीत गए। यह जीत भी उनकी जीत नहीं है। दिव्या का हस्र भी सामने है। महेंद्र विश्नोई की अकड़ मिट्टी में मिल गई। बद्रीराम जाखड़ की छींटाकशी उन्हें ले डूबी। कई दिग्गजों का बुरा हाल हुआ। गहलोत की बात को ही आगे बढ़ाएं तो यह चुनाव उनके लिए खासा महत्वपूर्ण था। इस चुनाव ने उनकी राजनीतिक दिशा तय कर दी है। केंद्रीय राजनीति में उन्हें ठुकराया जा चुका है। अब जाते भी हैं तो वह सम्मान नहीं मिलेगा। एक हारा हुआ राजा आगे किसको मुंह दिखाएगा। अब गहलोत को ही नहीं पूरी कांग्रेस पार्टी को आत्ममंथन करना होगा। कांग्रेस खत्म हो गई है। मोदी युग का उदय हो चुका है। मोदी का क्रेज अभी खत्म नहीं हुआ है। यह चुनाव मोदी और गहलोत के बीच लड़ा गया और मोदी ताकत बनकर उभरे। गहलोत के पास सबकुछ होते भी हार गए क्योंकि उन्होंने मोदी की तरह अपनी राजनीतिज्ञ कुशलता नहीं दिखाई। राजस्थान में हारता देख मोदी ने वसुंधरा को मनाया। मगर गहलोत तो अपनी आत्ममुग्धता में मारे गए। राष्ट्रीय कांग्रेस में कोई नेता ऐसा नहीं है जो मोदी को टक्कर दे सके। इस समय कांग्रेस ही नहीं किसी भी पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो मोदी को मात दे सके। यह मोदी की ताकत है। यह मोदी का क्रेज है। यह मोदी का आत्मविश्वास है। कांग्रेस के पास राहुल गांधी जैसे मूर्ख लीडर है जो बोलते हैं तो जेबकतरे, लुटेरे, चौकीदार चोर, पनौती और पता नहीं क्या क्या कह देते हैं जो खुद उनके लिए घातक हो जाता है और पार्टी को नुकसान उठाना पड़ता है। इस समय कांग्रेस का बुरा हाल है। कांग्रेस को संभलने में काफी वक्त लगेगा। कितना यह तो खुद कांग्रेस को भी नहीं पता। अब राहुल जैसे और मल्लिकार्जुन खरगे जैसे नेताओं के भरोसे कांग्रेस का भला नहीं होने वाला। अशोक गहलोत तो हारे हुए कमांडर है। उनकी जादूगरी पंक्चर हो चुकी है। इस समय कांग्रेस बुरे दौर से गुजर रही है। खुद गहलोत के लिए मुश्किल भरा दौर है। इस दौर से संभलना उनके लिए मुश्किल है। हम उनके लिए शुभकामना देना चाहते हैं मगर कैसे दें, जब खुद ही अपनी लुटिया डुबो दी है। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। ना राष्ट्रीय राजनीति में स्थान बना पाए ना ही राजस्थान की राजनीति में जीत पाए। अब आने वाला समय उनके लिए कैसा होगा इसका फिलहाल आकलन करना मुश्किल है। मगर अब रास्ते कठिनाई भरे हैं। उनका धैर्य, उनका संयम अब परखा जाएगा। वे आगे की दिशा कैसे तय करते हैं। अब सबकुछ सवाल अनुउत्तरीत है या कहें भविष्य के गर्भ में हैं।