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Sunday, October 6, 2024, 7:49 pm

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सफेद हाथी बने संभागीय आयुक्त… 10 संभागों में आयुक्तों को हटाकर एक स्टेट कमिश्नर बनाओ, 50 जिलों में कलेक्टर यथावत रखो मिस्टर सीएम

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-सीएम भजनलाल शर्मा बदले की राजनीति कर रहे हैं और ब्यूरोक्रेट के इशारों पर नाच रहे हैं। खुद का विजन काम में नहीं ले रहे। अशोक गहलोत ने 50 जिले बनाकर अच्छा कार्य किया, मगर उन्होंने भी संभाग बढ़ाकर संख्या 10 कर और 10 संभागीय आयुक्तों को रखकर सफेद हाथी पाल लिए और ब्यूरोक्रेट की फौज इकट्‌ठी कर ली, जबकि एक स्टेट कमिश्नर बनाकर भी कार्य किया जा सकता है।

-पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली बनाने का भी प्रदेश को फायदा नहीं मिला। सरकारी खर्च बढ़ा और न अपराध कम हुए और न ही अपराधी पकड़े जा रहे। जनता में आज भी भय है, फिर सरकार ने क्या सोच कर पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली बनाई? अकेले जयपुर में ही बलात्कार के मामलों में किसी भी सरकार के समय में कमी नहीं आई, फिर पुलिस कमिश्नरेट की किस सफलता का जश्न मनाएं? ट्रैफिक व्यवस्था तक कंट्रोल में नहीं हो पाई। यह मुद्दा एक शहर का नहीं पूरे प्रदेश का है ? कानून बनाने वाले ही कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं…।

डी.के. पुरोहित. जोधपुर

राजस्थान में संभागीय आयुक्त सफेद हाथी बन गए हैं। अगर संभागीय आयुक्तों के अब तक के इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह नाम मात्र का पद रह गया है। अब जोधपुर के संभागीय आयुक्त बीएल मेहरा का ही उदाहरण लें तो उन्होंने जोधपुर में मानसून की पहली बारिश में जब युवक बह गया था और पिछले दिनों लगातार बारिश से विभिन्न इलाकों में जलभराव की स्थिति हो गई है और लोग त्राहि माम त्राहि माम कर रहे हैं, लेकिन इन क्षेत्रों का उन्होंने अभी तक निरीक्षण तक नहीं किया, फिर कैसा समन्वय और कैसा समस्याओं का निस्तारण ? कलेक्टर को ही सब करना है तो संभागीय आयुक्त को क्या मक्खियां मारने के लिए सरकार ने रखा है? संभागीय आयुक्त सफेद हाथी इसलिए है क्योंकि सारा काम कलेक्टर करता है, प्रशासनिक शक्तियां कलेक्टर के हाथ में होती है, वही जिले का एक तरह से मालिक होता है, जबकि संभागीय आयुक्त सरकार और जनता के विभिन्न संगठनों के बीच उचित और प्रभावी समन्वय सुनिश्चित करता है। संभाग में विभिन्न कार्यालयों का पर्यवेक्षण, मार्गदर्शन और नियंत्रण करना होता है, संभाग के सभी विभागों का समन्वय एवं पर्यवेक्षण और जनता की शिकायतों को सुनना और उसका निवारण करना होता है। मगर ऐसा हो नहीं रहा। जब भीषण गर्मी से राज्य में मौतें हो रही थीं तब सारे संभागीय आयुक्त एसी रूम में बैठे मजे कर रहे थे, किसी ने अस्पतालों में जाकर हालात का जायजा नहीं लिया, सारी योजनाओं और समस्याओं का ठेका जब कलेक्टर को ही लेना है तो संभागीय आयुक्त फिर क्या सरकारी वेतन उठाने के लिए ही नियुक्त किए जाते हैं? स्थिति यह है कि प्रदेश में दस संभाग है और दस संभागीय आयुक्तों चाहे किसी के पास अतिरिक्त चार्ज हो, कोई इस पद को सीरियस ले ही नहीं रहा है। कलेक्टर ही जिलों को हांक रहे हैं। जबकि संभागीय आयुक्त के पास कोई काम रह ही नहीं गया है। ऐसे में स्टेट कमिश्नर बनाकर भी काम चलाया जा सकता है। संभाग पूरे का कहने को संभागीय आयुक्त मालिक होता है, मगर संभाग की फाइलें तो सचिवालय स्तर पर निस्तारित होती है। सारे डिसिजन कलेक्टर लेते हैं और नीतियां और निर्णय सचिवालय स्तर पर होते हैं फिर संभागीय आयुक्त नियुक्त करने का मतलब ही क्या है? यह एक तरह से सरकारी वेतन का दुरुपयोग है। अगर सरकार के पास आईएएस अफसरों की फौज अधिक है तो कई और विभाग सृजित कर उनका डायरेक्टर बनाया जा सकता है। इससे उनकी योग्यता का फायदा मिल सकेगा। कम से कम संभागीय आयुक्त के नाम पर निकम्मे अफसरों से तो छुटकारा मिलेगा।

राजनीति में हमेशा बदले की भावना नहीं होनी चाहिए। एक अच्छा पॉलिटिशन वहीं होता है जो किसी के हाथ की कठपुतली ना बनकर अपने दिल और दिमाग से काम करे। मगर यहां उलटा हो रहा है। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ब्यूरोक्रेसी के हाथ की कठपुतली बन गए हैं और उनके निर्णयों में इसकी झलक भी मिल रही है। कुछ दिन पहले ही उन्होंने राजस्थान में पिछली गहलोत सरकार के कार्यकाल में बनाए गए नए 17 जिलों को खत्म करने को लेकर एक आदेश से संकेत दिए जिसने प्रदेश की सियासत में खलबली पैदा कर दी है। यह आदेश नए जिलों के लिए टेंशन पैदा करने वाले हैं। इन आदेशों के बाद नए जिलों को लेकर सरकार की मंशा लगभग साफ होने लगी है। हालांकि पहले से ही नए जिलों के लिए संकट माना जा रहा था, लेकिन अब सरकार के इस नए आदेश से इस बात की पुष्टि होने के संकेत प्रतीत हो रहे हैं। बता दें कि भजनलाल सरकार ने नए 17 जिलों के सभी राजस्व संबंधी कामकाज को लेकर पुराने कलेक्टर्स के पॉवर्स को अगले साल तक बढ़ा दिया है। भजनलाल सरकार ने बीते दिनों नए जिलों के लेकर रिव्यू कमेटी का गठन किया। इसके बाद से लगातार यह मुद्दा गरम है। माना जा रहा है कि इस कमेटी की रिपोर्ट के बाद कुछ नए जिलों को खत्म किया जा सकता है। इधर, हाल ही में भजनलाल सरकार के आदेश ने फिर से सियासत का पारा चढ़ा दिया है। इसके तहत नए जिलों में विभागीय सोसाइटियों से संबंधित रिवेन्यू कलेक्शन, वर्क सेक्शन और काम के बदले भुगतान के अधिकार फिलहाल पुराने कलेक्टर्स को ही दिए गए हैं। पिछली सरकार ने यह अधिकार 31 मार्च 2024 तक पुराने कलेक्टर्स को दिए थे, जिन्हें अब भजनलाल सरकार ने बढ़ाकर वर्तमान वित्तीय वर्ष के अंत 31 मार्च 2025 तक कर दिया है।

राजस्थान राज्य में इस समय जिलों की संख्या 50 होने के साथ ही जयपुर, जोधपुर, भरतपुर, अजमेर, कोटा बीकानेर एवं उदयपुर संभाग में बढ़ोतरी कर सीकर, बांसवाड़ा व पाली को भी जोड़ा गया है, जिसके तहत अब राज्य में कुल 10 संभाग हो गए हैं। अब बताया जा रहा है कि भजनलाल सरकार अशोक गहलोत सरकार द्वारा बढ़ाए गए 17 जिलों को खत्म कर सकती है। संभागों के बारे में क्या होगा अभी तय नहीं है। अब सरकारों का काम विरोध की भावना से कार्य करना ही रह गया है। भजनलाल शर्मा सरकार भी कुछ ऐसा ही कर रही है। अशोक गहलोत ने 17 जिले बढ़ाकर अच्छा कार्य किया था, क्योंकि कई क्षेत्रों का विकास करने के लिए जिला बनाकर अच्छा कदम उठाया गया था। यह अलग बात है कि इसका उन्हें राजनीतिक लाभ नहीं मिल पाया। इधर अब भजनलाल सरकार के राजनीतिक सलाहकार के रूप में कार्यरत आईएएस अफसर उन्हें पता नहीं कैसी सलाह दे रहे हैं जो राज्य का भट‌्ठा बैठाने वाला है। राज्य में सभी क्षेत्रों का व्यवस्थित विकास के लिए जिले बढ़ाना अच्छा कदम था।

पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली भी खत्म करे सरकार, यह पैसों की बर्बादी  

पुलिस कमिश्नरेट सिस्टम को फिर से खत्म कर दिया जाए क्योंकि पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली बनाने के बाद भी ना तो अपराध पर नियंत्रण लग पाया है और न ही अपराध कम हो पाए हैं। यह केवल सरकारी पैसों की बर्बादी है। कानून की स्थिति प्रदेश में आज भी बदलहाल है। एक ट्रैफिक व्यवस्था तक कंट्रोल में नहीं हो पाई है। प्रदेश में कमिश्नरेट सिस्टम लागू होने के बाद भी कांग्रेस और भाजपा सरकार में अपराधों की संख्या में कमी नहीं आई है। बलात्कार की घटनाओं पर ही नजर डालें तो दोनों ही सरकारों के कार्यकाल में बराबर अनुपात है। अकेले जयपुर को ही लें तो जयपुर में कांग्रेस राज में भी बलात्कार पर बलात्कार होते रहे और भाजपा राज में भी बलात्कारों का सिलसिला नहीं रुका। फिर भला प्रदेश में पुलिस कमिश्नरेट सिस्टम की जरूरत ही क्या है? ज्यादा से ज्यादा बड़े जिलों में दो एसपी कर दो। एसपी शहरी और एसपी रूरल। अब आईजी भी नियुक्त कर दिया और कमिश्नरेट प्रणाली भी लागू कर दी। यह सरकारी पैसों की बर्बादी है। क्योंकि अब तक के इतिहास पर और आंकड़ों पर ही नजर डालें तो अपराधों में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है बल्कि अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। अब जोधपुर को ही लें। यहां कमिश्नरेट प्रणाली है और पुलिस कमिश्नर के अंडर में ही आईपीएस अफसरों की फौज है। प्रदेश में कहीं भी पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली की जरूरत नहीं है। जो काम एसपी कर सकता था और पूरी ताकत के साथ करता था वही काम पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली होने के बाद लालफीताशाही में बदल गई है। पुलिस कमिश्नर अपने रूम से ही बाहर नहीं आते हैं। इस रिपोर्टर ने आज से कुछ साल पहले जोधपुर के पूर्व पुलिस कमिश्नर नवज्योति गोगोई को वाट्सएप मैसेज कर कहा था कि वे सिविल वर्दी में उनकी बताई जगह पर आएं और उनके साथ शहर भ्रमण पर चलें…वह कुछ दिखाना चाहता है, मगर उन्होंने गौर नहीं किया। आज जितने भी पुलिस कमिश्नर हैं वे आराम पसंद की नौकरी करने वाले हो गए हैं। एसपी के मन में कुछ करने का मादा होता है। उसमें कानून की रक्षा के लिए मर मिटने की भावना होती है, जबकि पुलिस कमिश्नर प्रशासनिक पद हो गया है। उनके अंडर में भी आईपीएस अफसरों की फौज है जो भी आराम तलब हो गए हैं और अपने-अपने इलाकों तक सीमित हो गए हैं। जबकि एसपी पूरे जिले का मालिक होता था। एक अच्छा एसपी सारे आईपीएस अफसरों की फौज से बेहतर होता है। केवल जोधपुर का ही उदाहरण लें तो शहर में जगह-जगह अवैध गैस रिफिलिंग आज भी हो रही है, मगर पुलिस नाकारा ही साबित हुई है। पुलिस कमिश्नरेट के नाकारा अफसर कुछ नहीं कर पा रहे हैं।

संभागीय आयुक्त के बारे में वो सब जानकारी जो आपको जानना जरूरी है

संभागीय आयुक्त जिसे संभाग के आयुक्त के रूप में भी जाना जाता है, एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी है जो भारत में एक राज्य के एक डिवीजन के प्रमुख प्रशासक के रूप में कार्य करता है। पद को कर्नाटक में क्षेत्रीय आयुक्त और ओडिशा में राजस्व मंडल आयुक्त के रूप में संदर्भित किया जाता है। पदाधिकारी आमतौर पर या तो राज्य सरकार के सचिव के रैंक के होते हैं या राज्य सरकार के प्रमुख सचिव रैंक के होते हैं।

संभागीय आयुक्त कार्यालय की भूमिका संभाग में स्थित सभी राज्य सरकार के कार्यालयों के पर्यवेक्षी प्रमुख के रूप में कार्य करना है। एक संभागीय आयुक्त को एक संभाग के राजस्व और विकास प्रशासन के पर्यवेक्षण की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी दी जाती है। संभागीय आयुक्त संभाग में स्थानीय सरकारी संस्थानों की अध्यक्षता भी करते हैं। यहां उल्लेखनीय है कि जोधपुर में जेडीए में अध्यक्ष भी संभागीय आयुक्त ही है जो नाकारा साबित हुए हैं। संभागीय आयुक्त ही कई जगह साहित्यिक अकादमियों का अध्यक्ष बने बैठे हैं और अकादमियों का भट्‌ठा बैठा दिया है। राज्य सरकार द्वारा अधिकारियों को पद से और उनके पद से स्थानांतरित किया जाता है। यह पद भारत के कई राज्यों में मौजूद है। संभागीय आयुक्त अपने नियंत्रण में आने वाले जिलों के सामान्य प्रशासन और योजनाबद्ध विकास के लिए जिम्मेदार हैं और राजस्व मामलों के लिए अपील अदालत के रूप में भी कार्य करते हैं। राजस्थान में इस व्यवस्था का विकास 1949 मे 5 जिलों में हुआ उनमे जयपुर, कोटा, जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर शामिल है। 1987 में अजमेर को राजस्थान का 6 वा संभागीय मुख्यालय बनाया गया। 2005 को भरतपुर को राजस्थान का सातवा संभागीय मुख्यालय बनाया गया। अशोक गहलोत सरकार ने बाद में संभाग की संख्या बढ़ाकर दस कर दी थी।

संभागीय आयुक्त का इतिहास

एक प्रशासनिक स्तर के रूप में विभाजन 1829 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा ब्रिटिश क्षेत्रों के विस्तार के अनुरूप संचालन के दायरे में वृद्धि के परिणामस्वरूप दूर-दराज के जिलों के प्रशासन की सुविधा के लिए अस्तित्व में आया। प्रत्येक डिवीजन को एक डिवीजनल कमिश्नर के प्रभार में रखा गया था। यह पद तत्कालीन बंगाल सरकार द्वारा बनाया गया था। संभागीय आयुक्त की संस्था लॉर्ड विलियम बेंटिक द्वारा बनाई गई थी। बाद में पंजाब, बर्मा, अवध और मध्य प्रांतों के अधिग्रहीत प्रांतों में आयुक्तों की नियुक्ति नियत समय में हुई। विकेंद्रीकरण के लिए रॉयल कमीशन 1907 ने इसे बनाए रखने की सिफारिश की। हालांकि यह मुद्दा बार-बार उठता रहा, विशेष रूप से 1919, 1935 और 1947 के संवैधानिक सुधारों के समय। स्वतंत्रता के बाद राज्य सरकारों ने केवल पारंपरिक राजस्व व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ की और महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात ने संभागीय आयुक्तों के पदों को समाप्त कर दिया लेकिन बाद में गुजरात को छोड़कर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया।

संभागीय आयुक्त की शक्तियां

एक संभागीय आयुक्त की शक्तियां और भूमिकाएं अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होती हैं, जिसमें वे आम तौर पर ये शामिल होते हैं-

  • प्रभाग के विभिन्न विभागों के निर्णयों पर अपीलीय प्राधिकारी के रूप में कार्य करें।
  • राज्य सरकार के लिए जिला और संभाग में तैनात सभी राज्य सरकार के कर्मचारियों के खिलाफ जांच रिपोर्ट आयोजित करता है।
  • संभाग में राजस्व प्रशासन पर नियंत्रण और राजस्व न्यायालयों का संचालन।
  • सरकार और जनता के विभिन्न संगठनों के बीच उचित और प्रभावी समन्वय सुनिश्चित करें।
  • संभाग में विभिन्न कार्यालयों का पर्यवेक्षण, मार्गदर्शन और नियंत्रण।
  • संभाग के सभी विभागों का समन्वय एवं पर्यवेक्षण।
  • जनता की शिकायतों को सुनना और उसका निवारण करना।
  • स्थानीय सरकार पर नियंत्रण और कई राज्यों में निर्वाचित पदाधिकारियों जैसे मेयर, जिला पंचायत अध्यक्ष आदि की शपथ दिलाती है।
  • कई राज्यों में विकास प्राधिकरणों, शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकायों और अन्य विभागों पर बजट तैयार करने पर वित्तीय नियंत्रण।
  • संभागीय या जिला स्तर पर किसी विभाग के प्रमुख अधिकांश अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट लिखना।
  • आग्नेयास्त्रों के लिए कुछ प्रकार के लाइसेंस देने और विभिन्न दोषियों के लिए पैरोल बढ़ाने और देने के लिए संभागीय आयुक्त का अनुमोदन आवश्यक है।
  • संसदीय और राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान मतदाता सूची पर्यवेक्षक और अभिगम्यता पर्यवेक्षक के रूप में कार्य करता है।
  • राज्य विधान परिषद के स्नातकों, शिक्षकों और स्थानीय अधिकारियों के निर्वाचन क्षेत्रों के लिए निर्वाचक पंजीकरण अधिकारी के रूप में कार्य करता है।
  • नायब तहसीलदारों के लिए नियुक्ति प्राधिकारी के रूप में कार्य करता है।
  • तहसीलदारों एवं संभाग के निचले स्तर के राजस्व अधिकारियों का तबादला।

निष्कर्ष : कलेक्टर-एसपी जिलों की जरूरत, संभागीय आयुक्त और पुलिस कमिश्नर अपनी उपयोगिता साबित नहीं कर पाए

अब अगर निष्कर्ष तौर पर कहें तो अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही संभागीय आयुक्त प्रणाली आज महत्व खो चुकी है। कलेक्टर ही अपने आप में पर्याप्त है और उसकी मदद करने के लिए भी अफसरों की फौज कम नहीं हैं। यही हाल पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली का है। बड़े जिलों में पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली लागू तो कर दी मगर वहां अगर अब तक के आंकड़ों पर नजर डाली जाए और उसका सिलसिलेवार विश्लेषण किया जाए तो पता चलेगा कि पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली का कोई फायदा नहीं मिला। जिन बड़े उद्देश्यों को लेकर यह प्रणाली लागू की गई वो उद्देश्य प्राप्त हुए ही नहीं। अकेले जयपुर को ही लें तो अशोक गहलोत सरकार कार्यकाल में जो बलात्कार हुए और भजनलाल शर्मा सरकार के अब तक के कार्यकाल में जो बलात्कार हुए उसका अनुपात बराबर है। जयपुर में पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली है, फिर क्या सरकार ने तीर मार लिया? आम जनता के काम आज भी नहीं होते। अपराधियों में आज भी भय नहीं है। खुद मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा विभिन्न संभागों के लिए अपनी राय रख चुके हैं। जोधपुर पुलिस कमिश्नरेट के बारे में भी वे कह चुके हैं कि अपराधियों में भय नहीं है। फिर भला पुलिस कमिश्नरेट सिस्टम लागू कर सरकार ने कौनसी उपलब्धियां हासिल कर ली? जबकि जोधपुर की ही बात करें तो सामान्य ट्रैफिक व्यवस्था तक कंट्रोल में नहीं हो पाई। इस तरह जोधपुर में आईजी रेंज भी बैठता है। रूरल एसपी भी बैठता है। पुलिस कमिश्नरेट के अंडर में आईपीएस और आरपीएस अफसरों की फौज है। फिर भला इसका परिणाम क्या मिला जनता को? जब पहले भी काम चल रहा था और अब भी वैसा ही चल रहा है तो सरकारी खर्च बढ़ाने का क्या फायदा? हाल ही में एक अखबार में एफएसएल विभाग पर छपी रिपोर्ट चौंकाने वाली थी। सरकार को जहां नियुक्ति करनी होती है वहां करती नहीं है, वरन अनावश्यक निर्णय लेकर अपनी एनर्जी बर्बाद करती है। अब सरकार को चाहिए कि कई मुद्दों पर जनता से राय ले। जनता की राय के बाद ही नीतियां निर्धारित की जाए तो बेहतर होगा। क्योंकि आईएएस अफसरों की नीतियों पर चलेंगे तो देश और प्रदेश बर्बादी की ओर अग्रसर होगा। क्योंकि ये पोस्टें अंग्रेजों के जमाने की है और हमें नए भारत का निर्माण करना है तो प्राचीन वैदिक और राम राज्य की संस्कृति को अपनाना होगा। तभी देश और प्रदेश की सही मायने में प्रगति हो सकेगी।

 

 

 

 

 

Rising Bhaskar
Author: Rising Bhaskar


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