डी.के. पुरोहित. जोधपुर
कभी कभी आदमी को जीते जी कुछ नहीं मिलता। उसके मरने का इंतजार कइयों को रहता है। शायद घर वालों को भी। क्योंकि क्रांति का जब बिगुल बजता है तो सबसे ज्यादा नुकसान घरवालों को ही उठाना पड़ता है। ऐसे में कोई परिवार कब तक सब्र कर सकता है। तीस-तीस साल तक कोई परिवार सब्र कर ले तो बहुत वक्त गुजर जाता है। हिन्दुस्तान 200 साल तक गुलाम रहा। उस गुलामी के बाद हमने जो आजादी प्राप्त तो कर ली मगर क्या इसे हम आजादी कहें?
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में पूरे देश की दौलत है। हर तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है। आज अगर कोई संकल्प ले कि वह अपनी लेखनी के बल पर गुजारा कर लेगा तो वह उसकी भूल है क्योंकि पूंजीवादी ताकतें उसको नेस्तनाबूद करने को तत्पर हैं। अगर एक पूंजीवादी घराने की करतूतों से तंग आकर किसी दूसरे पूंजीवादी घराने से मदद का हाथ मांगा जाए तो वह ‘कीमत’ मांगता है। जब ‘कीमत’ देने को हम तत्पर न हो तो वह गुलामी की नौकरी ऑफर कर देता है। जब गुलामी की नौकरी ही करनी होती तो झगड़ा ही किस बात का था। आज हम यह विशेष संपादकीय लिख रहे हैं। यह एक हारे हुए व्यक्ति का संपादकीय नहीं है। बल्कि व्यवस्था के खिलाफ क्रांति का शंखनाद है। अगले 15 दिन हमारे लिए बहुत कीमती है। इन 15 दिन में अगली दिशा तय होनी है।
अब हमें अपनी जान की परवाह नहीं है। लेकिन इतना तय है कि हमें भगवान श्रीकृष्ण का ही सहारा है। व्यवस्था के खिलाफ जब कोई अकेला लड़ने का ऐलान करता है तो उसका और उसके परिवार का आर्थिक, शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया जाता है। हमें शायद इस बात का अहसास है। चोरों के चोर दोस्त ही होते हैं। इस जमाने में जिन स्कूलों, कॉलेजों और विवि ने चोर रास्तों से जमीनें हथियाई है। जिन्होंने काली कमाई की है। जिनके दिलों में चोर बसे हैं वे हमारी मेहनत के भी दाम देने को तत्पर नहीं होंगे। जिन पूंजीवादी ताकतों ने बुरे कार्यों से दौलत के पहाड़ खड़े किए वे हमारे साथ क्यों खड़े होंगे? जिन ताकतों ने तख्तो-ताज और जमीनों को नाजायज तरीकों से हथियाया है वे भला क्यों हमसे जुड़ेंगे और हम उनका साथ लेंगे ही क्यों? राजनीति पूंजीवाद की रखेल हो गई है। कोई भी चेहरा बेदाग नजर नहीं आता। किस पर भरोसा करें और कब तक करें आखिर कोई लक्ष्मण रेखा नजर नहीं आ रही। हर तरफ कलुशिता है। हर चेहरे रंगे हुए हैं। हमें अपनी जिंदगी में इस बात का सुकून है कि हमने ईमानदारी से कार्य किया। हमारे कार्य के बल पर कई आगे बढ़ गए। कइयों ने हमारे कंधे इस्तेमाल किए। हमने सिर्फ दो ही संस्थानों में कार्य किया। हिन्दुस्तान और दैनिक भास्कर। राजस्थान पत्रिका में कुछ दिनों के लिए कार्य किया। मगर यहां हमें संतुष्टी नहीं मिली। इसका कारण खुद हमें नहीं पता।
अब हमने तय किया है कि हम अपनी खुद की कंपनी बनाएंगे। हम अपने तरीके से उसमें लगे हुए हैं। पर हमारी आजादी की कीमत पर कोई समझौता नहीं होगा। हमारी आजादी छिन जाए तो ऐसी कंपनी हमें नहीं बनानी। हमारे पास दो न्यूज पोर्टल है। www.uditbhaskar.com और risingbhaskar.com जिनमें से इन दिनों हम उदित भास्कर काफी दिनों से अपडेट नहीं कर पा रहे हैं। हमने एक टीम भी बनाने की कोशिश की। पर हमें सफलता नहीं मिली। क्योंकि अब पत्रकारिता मिशन नहीं पैसे कमाने का जरिया बन गया है। कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो यह कहे कि हम अपना घर फूंक कर तमाशा दिखाने को तैयार हैं। सबको पत्रकारिता के नाम पर सौहरत, पैसे, रुतबा, गाड़ी, बंगला चाहिए। अगर कल हमारे हाथ में पैसे आ भी गए तो हम एक नए भारत का निर्माण करेंगे। एक ऐसे भारत का निर्माण जिसे वैसा ही बनाएंगे जिसकी कल्पना न महात्मा गांधी ने की थी न सुभाषचंद्र बोस ने। उसकी कल्पना अब हम खुद कर रहे हैं। हमें हिन्दुस्तान को दुनिया की मुक्कमल ताकत बनाना है। जो सपना हमने देखा था उसे पूरा हम अपने भरोसे करेंगे। अब हमारे साथ सिर्फ श्रीकृष्ण हैं। हमें किसी की मदद की जरूरत नहीं हैं। हो सकता है कल हमारी सड़क पर दुर्घटना में हत्या कर दी जाए। हो सकता है हमें गोली मार दी जाए। हो सकता है हमारी कॉर्डियक अरेस्ट से मौत हो जाए। हमारे साथ कुछ भी हो सकता है। हमने सब चिंता छोड़ दी है। हमारी सारी योजनाएं फेल हो रही हैं। मगर अभी भी हम हारे नहीं हैं। हमें उम्मीद है कि कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा। जिन साहित्यकारों से हमने मदद की उम्मीद लगाई थी वे भी अब उम्र के बोझ तले टूट चुके हैं या फिर वे भी क्रांति के पथ पर बढ़ने की ताकत खो चुके हैं। कई तो सफेदपोश बने इस व्यवस्था के गुणगान करने में अपनी शान समझते हैं। हम ऐसी व्यवस्था के हिस्से बने हुए हैं जहां सच्चाई को शायद ही किसी को जरूरत हो। हमारे आदर्श और हमारे साथ सिर्फ श्रीकृष्ण हैं। हमारा श्रीकृष्ण से यही आग्रह है कि हमारा सिर कभी झुकने मत देना। इस जंग को हम श्रीकृष्ण के भरोसे लड़ने का आगाज कर रहे हैं। हमारी जंग कहां तक पहुंचती हैं हम नहीं जानते। मगर वैश्विक ताकतों से पहले हमें अपने देश के भीतर की ताकतों से लड़ना पड़ेगा।
अब वो पूंजीवादी घराने किताबों की बातें रह गए हैं जिन्होंने देशभक्ति का परिचय दिया। चैरिटी में पैसा देना अलग बात होता है और देश में क्रांति का बिगुल बजाना अलग बात होती है। चैरिटी में देकर अपनी जैजैवंती करवाना अब पूंजीवादी घरानों का फैशन हो गया है। आप देश को लूटते रहाे और उन लूटी हुई कमाई से धर्मशालाएं, यूनिवर्सिटी, अस्पताल और संस्थान खोलते रहें तो आदर्श पूंजीवाद की स्थिति नहीं कही जा सकती। मुझे याद आ रही है मेरे गुरु श्री श्यामसुंदर श्रीपत की एक कहानी। कहानी कुछ इस प्रकार है। एक बार ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिया भगवान की तपस्या करते हैं। उनकी तपस्या से भगवान प्रसन्न होकर दर्शन देते हैं। भगवान तीनों को वरदान मांगने को कहते हैं। ब्राह्मण कहता है कि उसे सारा ज्ञान दे दो। क्षत्रिय कहता है कि उसे बलिष्ठ बना दो। जब बनिए की बारी आती है तो वह कहता है कि सारे संसार की दौलत उसे दे दो क्योंकि अगर उसे सारे संसार की दौलत मिल गई तो वो ब्राह्मण और क्षत्रिय को खरीद लेंगे। मेरे गुरुदेव श्यामसुंदर श्रीपत ने इस कहानी को कविता में ढाला था जो मुझे आज भी सार्थक लगती है। यही इस देश में ही नहीं दुनिया में हो रहा है। पूंजीवाद के बल पर ज्ञान और शक्ति को खरीद लिया गया है। मगर क्रांति का बिगुल बजाने वालों को अब पूंजीवादी ताकतों से अकेले ही निपटना होगा। क्योंकि पूंजीवादी ताकतों ने लिखने वालों और सुरक्षा तंत्र को भी खरीद लिया है। मेरे जैसा 52 साल का अधेड़ जो शारीरिक रूप से शक्तिवान नहीं है। मगर हमने सोच लिया है कि हम लड़ेंगे। पुलिस, सेना, अपराधियों, सफदेपोशों, साहित्यकारों के नाम पर बिके हुए लोगों, अध्यात्म के नाम पर अपनी दुकानदारियां चलाने वाले संगठित गिराहों और पूरी व्यवस्था से हम अकेले लड़ेंगे। इसके लिए हमारे पास केवल श्रीकृष्ण का सहारा है। श्रीकृष्ण के पास सारी विद्याएं हैं। वे जानते हैं कि हमारी जंग कैसे लड़नी है। श्रीकृष्ण ही हमारे खिवैया है। हम अपनी जय और पराजय का भाव सब उन पर छोड़ रहे हैं।
आदमी जब तक उम्मीद में जीता है तब तक वह जीता रहता है। मगर जब उसे अहसास हो जाए कि उसे अब तक छला गया है और आगे भी छला ही जाएगा तब वह नींद से जाग जाता है। मेरे साथ भी यही हुआ। जब तक हम सोए हुए थे तो सुरक्षित थे किसी को कोई खतरा नहीं था। अब हम जाग चुके हैं। हमें पता चल गया है कि हमारा कोई नहीं है शिवाय श्रीकृष्ण के, इसलिए हमारे शत्रु भी बढ़ गए हैं। चारों तरफ शकुनी, दुर्योधन और दुस्सासन हैं। हमें किसी से क्या डर जब सांवरिया हमारे संग है। अब तब वही हमें बचाता आया है और आगे भी वही निभाएगा।
आजादी मिली। सपनों को पूरा करने का वक्त आया। मगर सपने किसके पूरे हुए? आज भी हिन्दुस्तान में लोगों को जीने का अधिकार नहीं मिला। अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं मिला। यहां के जजों के मुंह पर ताले लगे हुए हैं। राजनेता धूर्त और मक्कारी का लिबास ओढ़े हुए हैं। पुलिस से बढ़कर कोई गुंडा नहीं हैं। सेना पर भरोसा कितना किया जाए? इस व्यवस्था में कौन हमारे हैं और कौन हमारे खिलाफ हम आज तक नहीं समझ पाए। क्योंकि सबने हमारा इस्तेमाल ही किया। हमने जिस अखबार में काम किया वहां केवल हमारा इस्तेमाल हुआ। लिखने की आजादी हमें वहां कभी नहीं मिली। हमने जो खबरें दी वो कभी छापी नहीं गई और क्यों नहीं छाप रहे इसका कारण भी नहीं बताया गया। वो ही खबरें दूसरी मैग्जीन में छपी मगर अपने ही अखबार में नहीं छापी गई। फिर भी हमने ऐसे अखबार को अपना कीमती वक्त दिया। आज जब हम अपना मूल्यांकन करते हैं तो पाते हैं कि अखबार केवल अपना एजेंडा चलाते हैं। उन्हें हर कंधा इस्तेमाल करना है।
आजादी की लड़ाई अभी बाकी है। हिन्दुस्तान आजाद जरूर हुआ है, मगर असली जंग तो अब शुरू हुई है। सभी पूंजीवादी ताकतों ने एक-दूसरे से हाथ मिला लिया है, क्योंकि उन्हें अपनी जमीन खिसकती नजर आ रही है। राजनीति पूरी तरह बेनकाब हो चुकी है। यहां श्रीकृष्ण को कितने दुर्योधनों से लड़ना है वे ही जानते हैं। श्रीकृष्ण का सुदर्शन कितने शीश काटेगा वे ही जानते हैं। राजनीति में कोई किसी का बेटा नहीं होता और राजनीति में कोई किसी का पिता नहीं होता। क्योंकि राजनीति का सबका पहला सबक भी यही होता है। हमने राइजिंग भास्कर के पहले संपादकीय में साफ लिखा था कि अगर पूंजीवादी घरानों की दौलत गरीबों के काम नहीं आई तो वो दिन दूर नहीं होगा जब सेठों की तिजोरियां लूट ली जाएगी। इन सेठों की तिजोरियाें पर पहला हक आम आदमी का है। उस मेहनतकश का है जिसके दम पर उनकी फैक्ट्रियां चलती है। मगर यूनियनों ने पिछली गली से पूंजीवादी ताकतों से हाथ मिलाकर श्रमिकों को आज तक उनका हक नहीं दिलाया। श्रमिक चाहे तो क्या नहीं कर सकते। ऐसी कोई पूंजीवादी ताकतें नहीं जो श्रमिकों को झुका सकें। मगर श्रमिकों का दुश्मन श्रमिक खुद बना हुआ है। ये यूनियन के झंडे ही श्रमिकों का सिर झुकाए हुए हैं। अब वक्त आ गया है कि मुट्ठी भर लोगों की दौलत को देश के श्रमिकों के खातों में डाली जाए। श्रमिकों को श्रमिक नहीं उनका मालिकाना हक मिले। उन्हें शेयर में हिस्सेदारी दी जाए। श्रमिक ही इस पूंजीवादी ताकतों के असली वारिश है। कोई भी किसी भी कंपनी का चेयरमैन बने या सीईओ बने मगर श्रमिकों को उनका असली हक मिले।
हमारी लड़ाई अब शुरू हो चुकी है। हम इस देश के श्रमिकों से आह्वान करते हैं कि पूंजीवाद के खिलाफ विद्रोह कर दे। क्रांति का आह्वान कर रहे हैं। क्यों चंद पूंजीवादी घरानों के हाथों में पूरे देश की दौलत रहे। आज एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर को 3 से 5 हजार वेतन मिलता है। क्यों? डीईओ और तमाम शिक्षा अधिकारी अंधेरगर्दी मचाए हुए हैं। प्राइवेट स्कूलों के नाम पर गली-मोहल्लों में बाढ़ आई हुई है और पढ़े लिखे लोगों का शोषण हो रहा है। मजदूर जब काम करते मर जाता है तो उसकी मौत इतनी सस्ती हो जाती है कि कोई मुआवजा नहीं मिलता। लोग सरे आम बारिश में गटर में बह जाते हैं और हाईकोर्ट जैसे संस्थान गूंगे-बहरे बने रहते हैं। आज हम बहुत कुछ लिखना चाहते हैं। अब हमारा लिखने का सिलसिला जारी रहेगा। यह तो बस शुरुआत है।…