पंकज जांगिड़. जोधपुर
शहर के उम्मेद चौक, ब्राह्मणों की गली निवासी जाने माने वयोवृद्ध वरिष्ठ साहित्यकार (मारवाड़ रत्न एवं मीरां शोध संस्थान के संस्थापक व अध्यक्ष) दीपचन्द सुथार की स्मृति में बुधवार रात्रि 9 बजे से मध्यरात्रि तक उनके निवास पर स्वरांजली स्वरूप भक्ति संध्या का आयोजन हुआ। जिसमें भजन गायक पंकज जांगिड़ एंड पार्टी द्वारा भजनों के माध्यम से स्वरांजली दी गई। इस दौरान उपस्थित श्रोता भावविभोर हो गए। इस मौके अनेक साहित्यकार, कविजन, प्रबुद्धजन, समाजबंधु व मातृशक्ति उपस्थित रहे।
कार्यक्रम संयोजक हेमंत बुढल ने बताया कि उनका 18 अगस्त, 2024 को निधन हो गया। उनके निधन के समाचार सुनते ही शहर में शोक की लहर छा गई। उन्होंने वर्ष 1966 में फ़लौदी से स्थानांतरण होकर मेड़ता स्थित राजकीय माध्यमिक विद्यालय नम्बर एक में बतौर शिक्षक के पद पर सर्विस ज्वॉइन किया। यहां पर आने के पश्चात् उन्होंने मेड़ता में हिन्दी साहित्य की जोत जलाई। वर्ष 1988 में उन्होंने डॉ. जतनराज मेहता की अध्यक्षता में कार्यकारिणी का गठन करते हुए मीरां शोध संस्थान की विधिवत् स्थापना की। वर्ष 2006 में धरोहर संरक्षण, प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष माननीय औंकारसिंह लखावत मेड़ता पधारे और विद्यालय को पैनोरमा बनाने हेतु दीपचंद के साथ बैठ कर विचार विमर्श किया और इनके निर्देशन में अथक प्रयास करते हुए मीरांबाई स्मारक पैनोरमा बनाया। 4 अक्टूबर 2007 को विधिवत् शुभारम्भ करते हुए दीपचंद सुथार को प्रभारी नियुक्त किया गया। वर्ष 2014 में मेहरानगढ़ म्यूज़ियम ट्रस्ट, जोधपुर द्वारा इनकी साहित्य सेवाओं को देखते हुए “मारवाड़ रत्न अवॉर्ड” से विभूषित किया गया।
मां सरस्वती की असीम अनुकम्पा से लगभग वर्ष 1960 से अपनी साहित्यिक यात्रा आरम्भ की और भारत की अनेक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्य पत्र पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रकाशित हुई। इन्होने अपने जीवन काल में सैकड़ों छोटी बड़ी साहित्य संगोष्ठियां करते हुए मेड़ता में अनवरत साहित्य जोत जलाई। साहित्य के प्रति एवं मीरां स्मारक में इनकी निरन्तर सेवाओं को देखते हुए वर्ष 2012 में तत्कालीन उपखण्ड अधिकारी सुरेन्द्रकुमार चौधरी द्वारा स्मारक में पीछे की तरफ खाली पड़ी जमीन उपलब्ध करवाई और इन्होने अपने निजी व्यय से उस जगह पर तीन बड़े हॉल व दो कमरे बनवाए। 15 जनवरी 2012 को मीरां शोध संस्थान का विधिवत् शुभारम्भ किया गया। मां मीरां के प्रति अपना पूरा जीवन समर्पित करते हुए वे साहित्य साधना में लीन रहे और लगभग पंद्रह पुस्तकों का प्रकाशन किया। धर्मपत्नी के निधन के बाद इन्होने गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए एक सन्त के रूप में सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत किया और लगभग 87 वर्ष आयु में उन्होंने अन्तिम सांस ली।