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Wednesday, October 30, 2024, 6:59 am

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आलेख :  कर्म और भाग्य

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…हमारे कर्म बीजरूप में जीवन भूमि में पड़े रहते हैं और जब उपयुक्त वातावरण मिलता है तो प्रस्फुटित हो जाते हैं और इस तरह से जीवन अपना कर्म फल भोगता है, जिसे भाग्य कहते हैं। तो भाग्य व्यक्ति के खुद के कर्मों से ही बनता है, किस्मत स्वयं के अच्छे व बुरे कर्मों का ही प्रतिफल है।…

केबी व्यास. दुबई

विचार, वाणी और कृत्य, इन तीन धरातलों पर कर्म किया जाता है। विचारों को प्रभावित करने के लिए पांचों इंद्रियों द्वारा संस्कार निर्मित होते हैं। कुछ देखने से एक संस्कार निर्मित होता है, कुछ छूने से एक संस्कार निर्मित होता है, कुछ सुनने से एक संस्कार निर्मित होता है, कुछ सूंघने से एक संस्कार निर्मित होता है और कुछ स्वाद चखने से भी एक संस्कार निर्मित होता है। यानी ये सभी हमारे विचारों को प्रभावित करते हैं और विचारों की गुणवत्ता का निर्माण करते हैं। विचार एक दिन हमारे बोल बनते हैं और यही एक दिन हमारे कृत्य भी बन जाते हैं । इस तरह से कर्मों का जन्म होता है और कर्मों की पुनरावृति हमारा कर्म स्वभाव बनाती है। यह कर्म स्वभाव पुनः हमारे विचारों, वाणी और कृत्य को और गहरा प्रभावित करते हैं और कर्म गहरी जड़ पकड़ते हैं। इन्हें कर्म चक्र कहते हैं।

हमारे कर्म बीजरूप में जीवन भूमि में पड़े रहते हैं और जब उपयुक्त वातावरण मिलता है तो प्रस्फुटित हो जाते हैं और इस तरह से जीवन अपना कर्म फल भोगता है, जिसे भाग्य कहते हैं। तो भाग्य व्यक्ति के खुद के कर्मों से ही बनता है, किस्मत स्वयं के अच्छे व बुरे कर्मों का ही प्रतिफल है। जो कुछ भी घटित होता है जन्म से लेकर मृत्यु तक, वो कर्म के कारण होता है। लिंग निर्धारण से लेकर आप किस देश में जन्म लेंगे? कौनसा वंश.कुटुम्ब होगा? कौन माँ बनेगी? कौन पिता बनेंगे? कौन कौन भाई व बहन बनेंगे? पति.पत्नी कौन होंगे? परम मित्र सखा कौन होंगे? वे सभी आपस में कैसा व्यवहार करेंगे? कब आपका शरीर छूटेगा? ये सभी आपके अपने कर्मों और इन सभी लोगों के व्यक्तिगत कर्मों के सटीक सामंजस्य के फलस्वरूप होता है। यही वजह है कि आपने एक विशेष माता पिता के घर जन्म लिया है अपने पड़ौसी के घर में जन्म नहीं लिया । इसे आपसी कर्म बंधन कहते हैं। अपने परिवेश, अपनी किस्मत के लिए व्यक्ति के स्वयं के कर्म जिम्मेवार है, भाग्य जिम्मेवार नहीं है। जिस दिन से यह बात हलक से नीचे उतर जाती है तो इस उद्धोष का मूल अर्थ यह हो जाता है कि कमान व्यक्ति के स्वयं के हाथों में है। यदि व्यक्ति खुद ठान ले, स्वयं संकल्प ले ले, तो वो अपनी किस्मत को बदल सकता है। अगर व्यक्ति ठान ले और उसके अनुसार कर्म करे तो फिर माता पिता, भाई बहन, पति पत्नी कम से कम आपके साथ तो दूसरे तरीके से ही पेश आना शुरू हो जाएंगे। उनका अपना व्यवहार भले ही बदले बदले ना बदले, लेकिन वे आपके साथ अवश्य बदल जाएंगे। ये अर्थ होता है जब हम ये कहते हैं कि  कमान हमारी अपने हाथों में है। हमारे हाथों में कर्म की कमान होती है जो मूल है। हालाँकि इस ओर चलने हेतु कोई आपकी आरंभिक सहायता कर सकता है, मगर बात स्वयं उसी के ही हाथ में है। अपने सुख और दुख का बीज कारण वो व्यक्ति स्वयं है।  चूंकि मानव अपने वास्तविक स्वरूप के प्रति अनजान रहता है, इसीलिए उसे बहुत सारे प्रश्न परेशान करते हैं और विशेष रूप से दुख की घड़ी में जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है? और मेरे साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है? ये सभी प्रश्न तब तक ही हैं जब तक हम स्वयं अपने बारे में ना जान लें, निज के बारे में ना जान लें। कोई भी प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहता जब ये ज्ञात हो जाता है कि मैं कौन हूँ? इस मैं की खोज में गुरु एक अहम किरदार अदा करते हैं। सच्चे गुरु शिष्य को स्वयं पर आश्रित नहीं करते, उसे आत्मज्ञान के पथ पर, अपने बल बूते पर खड़ा होने और आगे बढ़ने की प्रेरणा देने का कार्य करते हैं।

पहले तो जीव अनजाने में ही, अज्ञानता में ही अच्छे बुरे कर्म करता है और अपना अच्छा बुरा भाग्य लिखता है। यह सुप्त अवस्था है, बेहोशी की अवस्था है। फिर एक स्थिति आती है कि पूरे होशो हवास में वो अपने जीवन के कर्म करता है और अपना भाग्य लिखता है। यह वो क्षण होता है जब वो वाकई पूर्ण रुपेण जान लेता है कि वो तो हमेशा से ही अपना भाग्य लिखता आ रहा है । उसे उत्तर मिल जाता है कि मैं कौन हूँ ? कर्म चक्र कैसे चलता है ? कर्म बीज कैसे बनते हैं ? कर्म फल कैसे बनता है ? कर्मों की गति कैसी होती है? कार्मिक स्वभाव कैसे निर्मित होते हैं? कर्म कैसे बदले जा सकते हैं? बीज रूप मे कर्म कैसे जीवन भूमि मे पड़े रहते हैं और कैसे कर्म बन्धन काटे जाते हैं ?

अनंत शक्ति और ऊर्जा स्त्रोत हमारे भीतर ही निहित है। गुरु हमें केवल जगाते हैं और यही जागृति अनंत शक्ति और ऊर्जा के रूप में, आंतरिक जगत में प्रचंड रूप से विस्फोटित हो कर सभी कुछ स्पष्ट कर देती है। प्रश्न है यात्रा के आरंभ करने का, खोज करने का। यह पूरी यात्रा जीव के स्वयं के कर्मों की गति के आधार पर संचालित होती है। भौतिक यात्रा में पाँच इंद्रियों के द्वारा निर्मित संस्कार, विचारों को प्रभावित करने वाले अलग अलग आयाम हैं। जैसे कि विचार अपना प्रभाव वाणी पर डालते हैं और विचार व वाणी अंत में हमारे कृत्यों को प्रभावित करते हैं और ये तीनों कर्म कहलाते हैं। भाग्य मात्र स्वयं के किए गए कर्मों का कर्म  फल है।

Rising Bhaskar
Author: Rising Bhaskar


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