Explore

Search

Friday, May 16, 2025, 10:49 am

Friday, May 16, 2025, 10:49 am

LATEST NEWS
Lifestyle

राइजिंग भास्कर स्थापना दिवस स्टोरी-6…पानी बचाओ-पीढियां बचाओ…कल पछताना ना पड़े इसलिए आज संभलो…मारवाड़ ने सदा समझा है पानी का मोल, क्यों आप सहमत हैं ना?…

Share This Post

लेखक : डीके पुरोहित

रेगिस्तानी धोरों की धरती जैसलमेर। जी, हां मैं उस क्षेत्र से आता हूं जहां मेरी मां तालाब से घड़ा भर कर पानी लाती थी। तालाब भी घर से चार किलोमीटर दूर था। तीन चार चक्कर काट कर तीन-चार घड़े पानी घर में आते। उसी से खाना बनता। उसी पानी को पीते और उसी से नहाते। पूरा परिवार। आज जैसलमेर बदल चुका है। नहर आ चुकी है और पानी अथाह है। मगर पिछले करीब करीब एक महीने से चल रहे क्लोजर में बता दिया है कि पानी के लिए परेशानी कभी भी किसी समय आ सकती है। क्लोजर ने फिर बूंद-बूंद पानी का मोल बता दिया है। अब मैं जैसलमेर में नहीं रहता। पिछले करीब करीब 22 साल से मैंने जोधपुर का कर्मभूमि बना लिया है। जोधपुर में भी नहरी पानी घर-घर में सप्लाई होता है। यहां भी क्लोजर चल रहा है। पिछले दिनों एक घटनाक्रम में लाखों लीटर पानी बर्बाद हो गया। और कुछ दिनों के लिए ठप हो गई शहर में जल सप्लाई। जी, हां- पानी का मोल अभी भी ना हम समझ रहे हैं और ना ही हमारे जिम्मेदार। पानी जिसके लिए सदियों से हमारे बुजुर्ग तपस्या करते रहे। जिन्होंने अकाल के बुरे दौर देखे। जिन्होंने अपनी जीवटता से रेगिस्तान में अपने को तपाया। पानी रेगिस्तान में हमेशा आंदोलन का हिस्सा रहा। यहां आंदोलन रोज हमारे जीवन में हमारे बुजुर्गों ने युद्ध की तरह जिया। हमने हमारे बुजुर्गों की तपस्या का मोल हलके में लिया। हम भूल गए कि पानी कभी हमारे लिए कहानियों का हिस्सा रहा। पानी पर हम इतना कुछ लिख सकते हैं कि बादल बरसकर भी इस कहानी को पूरा नहीं कर सकते। 

तो आज की हमारी स्टोरी का मुद्दा मारवाड़ में पानी ही है। पिछले दिनों सरकार ने पानी की बर्बादी रोकने के लिए कुछ नियम बनाए। मगर फिर भी पानी की बर्बादी रुक नहीं रही। आज भी हमारे बच्चे-युवा कारों को पाइप लगाकर पानी से धोते हैं। मोटर चलाते हैं तो टंकी ओवर हो जाती है पानी सड़कों पर बहता रहता है। हम फव्वारों के नीचे बैठकर घंटों नहाते रहते हैं। एक समय था जब हमारे बुजुर्ग एक लोटा भर पानी से हाथ-मुंह धोकर गुजारा करते थे। जैसलमेर में जैन धर्म के लोगों ने पानी का हमेशा सदुपयोग किया। वे पानी का कम से कम उपयोग कर एक मिसाल पेश करते रहे। लेकिन आज हमारी नई पीढ़ी पानी का मोल भूल गई है। अगर आज भी हम नहीं संभले तो कल किसने देखा है। कल क्या होने वाला है कोई नहीं जानता? इसलिए कल की चिंता हमें आज ही कर लेनी चाहिए और पानी को बचाना सीखना चाहिए। पानी को सहेज कर ही हम पानी की समस्या से बच सकते हैं। आइए मंथन करते हैं पानी के मोल पर। 

मारवाड़ में परंपरागत जलस्त्रोतों का संरक्षण: एक आवश्यक पहल

मारवाड़ अपनी सांस्कृतिक धरोहर, ऐतिहासिक स्थलों और समृद्ध परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन इसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता है इसके परंपरागत जलस्त्रोत, जो न केवल पानी की आपूर्ति का स्रोत रहे हैं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा भी रहे हैं। हालांकि, आधुनिकता और बढ़ती जनसंख्या के कारण इन जलस्त्रोतों की स्थिति गंभीर हो गई है, जिससे जल संकट की समस्या और भी विकट हो गई है।

परंपरागत जलस्त्रोतों का महत्व

मारवाड़ में जल की कमी को देखते हुए, प्राचीन काल से ही जल संचयन की विभिन्न विधियाँ विकसित की गई थीं। आज हमने परंपरागत जलस्रोतों को भुला दिया है। मारवाड़ में राजा-महाराजाओं ने जनता की सुविधा के लिए तालाब, कुएं, नहर, बावड़ी, झालरे और टांके खुदवाए। मगर समय की धूल चढ़ने से वे दब गए और पानी हमसे दूर होता गया। हमने नहरी पानी आने के बाद उन परंपरागत जलस्रोतों की अनदेखी कर दी। आज भी हम अपने परंपरागत जलस्रोतों को भुला बैठे हैं। बात अकेले जोधपुर की ही करें तो कितने लोगों को पता है कि हमारे शहर में परंपरागत जलस्रोत कौन-कौन से हैं। जब भी पानी की बात आती है बच्चे कायलाना से आगे कुछ सोच ही नहीं पाते। जबकि कितने ही झालरे, कितने ही बावड़ियां और कितने ही तालाब हमारे आस-पास हमारे सौंदर्य और हमारी समृद्ध कहानियां अपने आप में समेटे हुए हैं। हमने हमारे बच्चों को हमारे परंपरागत जलस्रोतों को जानने के संस्कार ही नहीं दिए। आज का बच्चा फव्वारे के नीचे बैठकर घंटों नहा लेगा लेकिन हम भी अपने बच्चों को नहीं बताते कि पानी कितना कीमती है। यही वजह है कि पानी के प्रति हमारी उदासीनता बढ़ती जा रही है। आइए जानते हैं हमारे मारवाड़ में परंपरागत रूप से कौनसे साधन रहे हैं जिनसे हमारे बुजुर्ग जलप्रबंध करते थे। 

तालाब : मारवाड़ में तालाब हमारी पेयजल और घरेलू जल की आवश्यकता की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी रहे हैं। कई तालाब तो राजा-महाराजाओं ने बनवाए तो कई तालाब नगर सेठ और भामाशाहों ने बनवाए। इन तालाबों की अपनी कहानियां हैं। ये तालाब उन राजाओं और उन भामाशाहों के नाम से जाने जाते हैं। यही नहीं कई तालाब उन क्षेत्र के नाम पर भी जाने जाते हैं। तालाब हमारी जल आवश्यकता की महत्वपूर्ण कड़ी रहे हैं। मारवाड़ में आलीशान हवेलियां, किले और महल बने हुए हैं। जोधपुर की ही बात करें तो यहां शिल्प-स्थापत्य और सौंदर्य की विरासत हमारे बीच है। इन सबमें जो पानी उपयोग में आया वो पानी हमारे तालाब से ही उपयोग में लिया जाता था। तालाबों का पानी ही मकान बनाने से लेकर घरेलू आवश्यकताओं में काम में आता था।

झील : जोधपुर की बात करें तो कायलाना झील को कौन नहीं जानता? देश-विदेश के सैलानियों के बीच यह झील आकर्षण का केंद्र रही है। यह झील हमारे जल की आवश्यकता का महत्वपूर्ण केंद्र रही है। कायलाना आज भी जोधपुर की आत्मा है। इस आत्मा को निकाल दिया जाए तो जोधपुर कुछ भी नहीं। इसलिए हर क्षेत्र में झीलों का अपना महत्व रहा है। जैसलमेर में गड़सीसर झील का महत्व रहा है। कमोबेश यही स्थिति उदयपुर, जयपुर और विभिन्न स्थानों पर भी रही है। पर हम बात मारवाड़ की ही कर रहे हैं। मारवाड़ में भी झील कई स्थानों पर हमारे आवश्यकता की पूर्ति करती रही है। 

बावड़ियां : मारवाड़ में बावड़ियों का मीठा पानी कौन भूल सकता है? बावड़ी का पानी हमेशा से मीठा रहा है। इन बावड़ियों में हमारे पूर्वज नहाते भी थे और पिकनिक भी मनाते थे। जब भी बारिश के मौसम में ये बावड़ियां भर जाती थी तो मरुस्थल में मंगल गीत गाए जाते थे। पानी की पूजा की जाती थी। आज बेशक हम पानी की अनदेखी कर रहे हैं, मगर एक समय था जब पानी पर गीत लिखे जाते थे और महिलाएं पनिहारी गाती थी। हमने हमारी महान परंपराओं को बिसरा दिया है। बावड़ियों का जोधपुर में भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। गली-गली और मोहल्लों में बावड़ियों का जोधपुर में जाल बिछा हुआ है। यही नहीं वैज्ञानिक महत्व की ये बावड़ियां प्राचीन जल मैनेजमेंट का महत्वपूर्ण कड़ी रहा है। बावड़ियों की अनदेखी करने के कारण ही हम यदा-कदा जल संकट से जूझ रहे होते हैं। हमारी नई पीढ़ी ने बावड़ियों को पूरी तरह भुला दिया है। 

झालरे : झालरे अपनी अद्भुत बनावट के कारण विशिष्ट पहचान रखते हैं। जल तकनीक का इससे बेहतर उदाहरण शायद ही मिले। जोधपुर में झालरों की अपनी कहानियां हैं। ये झालरे हमारी वैभवशाली कहानियां समेटे हुए हैं। इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी और जल संचयन प्रणाली का शोध का विषय है ये झालरे। इन झालरों का सौंदर्य भी अद्भुत है। पानी का अकूट खजाना झालरों का दौर कभी खत्म नहीं हो सकता। इन झालरों को देख देख कर हम बड़े हुए हैं, फिर भी हमारे बच्चे इन्हें अनदेखा कर रहे हैं।

कुएं : मारवाड़ में जल का महत्वपूर्ण स्रोत कुएं भी हैं। कुओं की कहानियां भी कम रोचक नहीं है। पहले के जमाने में हर जाति-समुदाय के लिए अलग से कुएं बने होते थे। कई गांव मारवाड़ में ऐसे भी होते थे जहां कुओं पर ताला लगाकर रखते थे। मीठे पानी के कुओं पर ताला लगाकर रखा जाता था। कुओं से जल की व्यवस्था मारवाड़ में प्राचीन काल से करते आ रहे हैं। कुओं की संख्या बहुत होती थी। गांव-गांव में कुएं मिल जाते थे। राजा-महाराजाओं के अलावा कई नगर सेठ और भामाशाह भी कुएं खुदवाते थे। यही नहीं गांव का मौजिज और पावरफुल व्यक्ति भी कुएं खुदवाते थे।

नाडी : नाडी भी छोटा सा तालाब का ही रूप होता है। यहां कई क्षेत्रों में छोटी-छोटी नाडिया खुदवाई जाती थी। ये नाडिया लोगों की आवश्यकता की जलपूर्ति करते थे। नाडियों का स्वरूप आज भी देखा जा सकता है। 

खड़ीन : खड़ीन एक प्रकार का गड़्ढा खोदकर बनाया जाता था। इसमें बरसात के पानी को संचय कर फसल ली जाती थी। इस पानी का बहुउपयोग किया जाता था। खड़ीन प्रणाली को जैसलमेर के रेतीले धोरों में पालीवाल जाती के ब्राह्मणों ने समृद्ध किया। पालीवाल जाती के ब्राह्मणों ने रेगिस्तान में फसल उगाने की टैक्नीक विकसित की जिसे खड़ीन प्रणाली कहते हैं। जैसलमेर में प्राचीन पालीवालों के गांवों में आज भी समृद्ध खड़ीन देखे जा सकते हैं। जब बरसात होती थी तो इन खड़ीनों में पानी एकत्रित कर दो तीन फसल ली जाती थी।   

टांका और टोबा: छोटे जलाशय, जो वर्षा के पानी को संग्रहित करने के लिए बनाए जाते थे। इसका स्वरूप आज भी देखा जा सकता है। ये जलस्त्रोत न केवल पानी की आपूर्ति का स्रोत थे, बल्कि सामूहिकता, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी थे।

परंपरागत जलस्त्रोतों का पुनरुद्धार

जल संकट से निपटने के लिए परंपरागत जलस्त्रोतों का पुनरुद्धार आवश्यक है। इसके लिए कई उपाय किए जा सकते हैं। खासकर साफ-सफाई और मरम्मत की जाती सकती है। पुराने जलस्त्रोतों की सफाई और मरम्मत करके उन्हें पुनः उपयोग में लाया जा सकता है। वर्षा जल संचयन भी किया जा सकता है। छतों पर वर्षा जल संचयन की व्यवस्था करके भूजल स्तर को बढ़ाया जा सकता है। सामाजिक जागरूकता से भी स्थानीय समुदायों को जल संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूक करके उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। प्रौद्योगिकी का उपयोग कर ड्रिप सिंचाई और मल्चिंग जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग करके जल की बचत की जा सकती है। इन प्रयासों से न केवल जल संकट से निपटा जा सकता है, बल्कि सांस्कृतिक धरोहरों का भी संरक्षण किया जा सकता है। कहने का मतलब है कि परंपरागत जलस्त्रोतों का संरक्षण न केवल जल संकट से निपटने के लिए आवश्यक है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर और सामाजिक एकता का प्रतीक भी है। हमें अपने पूर्वजों की जल संचयन की विधियों को समझकर उन्हें पुनः लागू करने की आवश्यकता है। यह हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम जल के महत्व को समझें और इसके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाएं।

Rising Bhaskar
Author: Rising Bhaskar


Share This Post

Leave a Comment