(डीके पुरोहित, वाशिंगटन)
(दिलीप कुमार पुरोहित, जोधपुर)
“कोविड वैक्सीन पर उठते सवाल: सुरक्षित या संभावित खतरा?” 18-45 साल के उम्र के लोगों की हार्ट अटैक से मौतों का मामला अनियमित दिनचर्या और गलत खान-पान की वजह मात्र नहीं हो सकता? 12-13 साल के बच्चों की भी हार्ट अटैक से मौतें हुई हैं…कार्डियक अरैस्ट के बारे में तो पहले सुना तक नहीं जाता था…और अब हालत यह हो गई है कि सेमिनार में बोलते-बोलते साइलेंट अटैक आ जाते हैं, हार्ट अटैक के बारे में भी अप्रत्याशित घटनाएं सामने आ रही हैं, सवाल बहुत है, बहस नहीं हो रही, हड़बड़ी में टीके पर पर्दा डालने का परिणाम घातक हो सकता है…
वाशिंगटन से डीके पुरोहित और जोधपुर से दिलीप कुमार पुरोहित की विशेष रिपोर्ट
कोविड-19 महामारी ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। हजारों जानें गईं, जीवन की रफ्तार थम गई और स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त हो गईं। ऐसे हालात में जब वैक्सीन आई तो इसे ‘रामबाण’ माना गया। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) और दिल्ली एम्स की रिपोर्टों में भी वैक्सीन को पूरी तरह सुरक्षित बताया गया। लेकिन अब जब महामारी के तीन-चार साल से अधिक समय हो चुका है, कुछ ऐसे तथ्य और घटनाएं सामने आई हैं जो इन दावों पर सवाल खड़े कर रही हैं।
इस खोजी रिपोर्ट में हम वैक्सीन से जुड़े सभी पहलुओं की पड़ताल करेंगे—ट्रायल, मंजूरी, साइड इफेक्ट्स, मौतों का आंकड़ा, और वैक्सीन के बाद बदली स्वास्थ्य स्थिति—ताकि आमजन को एक निष्पक्ष दृष्टिकोण मिल सकें।
1. जब भय बन गया ताकत
जब कोविड अपने चरम पर था, अस्पतालों में ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मचा था, श्मशान घाटों पर जगह नहीं थी। लोग भयभीत थे और इसी भय ने उन्हें बिना सोचे-समझे वैक्सीन लगवाने के लिए प्रेरित किया। कोई यह नहीं जानता था कि कौन-सी वैक्सीन, किसे लगनी चाहिए, किन्हें नहीं।
न तो केंद्र सरकार और न ही राज्यों की ओर से कोई स्पष्ट गाइडलाइन जारी की गई कि—
- किन्हें वैक्सीन लगाना सुरक्षित नहीं है?
- क्या एलर्जी, कोमॉर्बिडिटी या हार्ट प्रॉब्लम वालों को सतर्कता बरतनी चाहिए?
- बच्चों पर वैक्सीन का क्या असर हो सकता है?
इस डर की लहर में ‘कोविशील्ड’ और ‘कोवैक्सीन’ धड़ल्ले से लगाई गईं। न तो उनका दीर्घकालिक प्रभाव जांचा गया, न ही संभावित जोखिमों की सार्वजनिक जानकारी दी गई।
2. वैक्सीन की मंजूरी और जल्दबाजी पर सवाल
भारत में कोविशील्ड और कोवैक्सीन को आपातकालीन मंजूरी दी गई थी। परंतु विशेषज्ञों का एक वर्ग कहता है कि यह मंजूरी जल्दबाजी में दी गई, क्योंकि उस समय बड़े पैमाने पर ट्रायल डेटा भी उपलब्ध नहीं था।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने हासन जिले में हुई कुछ युवाओं की हार्ट अटैक से मौतों को वैक्सीन से जोड़ते हुए बड़ा बयान दिया। उन्होंने कहा:
“यह संभव है कि टीकों को हड़बड़ी में लगवाना मौत का कारण बना हो। इसकी वैज्ञानिक पड़ताल की जानी चाहिए।”
उनके इस बयान ने सियासी और वैज्ञानिक हलकों में खलबली मचा दी थी।
3. अमेरिकी डॉक्टर्स की टीम की रिपोर्ट
भारत में कोरोना के बाद टीके का व्यापक अध्ययन करने आए अमेरिका के डॉक्टर्स के एक समूह ने भारत में इस्तेमाल हुई वैक्सीन्स की समीक्षा की थी। एक डॉक्टर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि-
- “यह टीके प्रभावी तो हैं, लेकिन इनमें नकारात्मक प्रभाव भी देखे गए हैं।”
- उन्होंने बताया कि हर 1 लाख लोगों में 10 को गंभीर साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं:
- हार्ट अटैक
- शरीर में तेज़ दर्द
- ब्लड क्लॉटिंग (खून गाढ़ा होना)
- लंबे समय तक बनी रहने वाली सांस की समस्या
- डायबिटीज़ जैसी बीमारियों की शुरुआत
- जुकाम जैसी लक्षणों का लगातार बना रहना
इन प्रभावों को ‘Post Vaccine Syndrome’ कहा गया।
4. भारत में रिपोर्टिंग का अभाव
भारत में वैक्सीन के बाद हुए दुष्परिणामों की कोई विस्तृत और पारदर्शी रिपोर्टिंग नहीं की गई। ज़्यादातर लोग शरीर में दर्द, बुखार या थकावट को सामान्य मानकर चुप रहे। बहुत कम केस ही VAERS (Vaccine Adverse Event Reporting System) जैसे प्लेटफॉर्म पर पहुंचे।
सवाल ये भी है—
- क्या सरकार ने जानबूझकर साइड इफेक्ट्स को छुपाया?
- क्या मीडिया ने इस विषय को गंभीरता से नहीं लिया?
- क्या टीका कंपनियों पर कोई जवाबदेही तय की गई?
5. तीसरे डोज का गिरता ग्राफ: भरोसे में दरार
जब बूस्टर डोज की बारी आई तो एक बड़ा वर्ग पीछे हट गया। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक़—
- कोविशील्ड की पहली डोज़ लगभग 90 करोड़ लोगों ने ली।
- दूसरी डोज़ लेने वालों की संख्या 75 करोड़ के करीब रही।
- मगर बूस्टर डोज (तीसरी डोज) लेने वालों की संख्या 18 करोड़ से भी कम रही।
यह आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि वैक्सीन पर आमजन का भरोसा डगमगाया। इसका कारण टीके के बाद बदली स्वास्थ्य स्थिति हो सकती है।
6. ICMR और AIIMS की रिपोर्ट: अंतिम सत्य नहीं?
ICMR और AIIMS ने बार-बार वैक्सीन को सुरक्षित बताया है। लेकिन क्या सरकारी एजेंसियों की रिपोर्ट को अंतिम सत्य माना जा सकता है?
- इन रिपोर्ट्स में कितनी पारदर्शिता है?
- क्या सभी डेटा सार्वजनिक किए गए?
- क्या इन एजेंसियों पर सरकारी दबाव नहीं रहा होगा?
इन सवालों के उत्तर तलाशना आवश्यक है, क्योंकि जब जनता के स्वास्थ्य की बात हो, तो अंधविश्वास या सिर्फ ‘सरकारी मुहर’ से काम नहीं चलेगा।
7. बच्चों पर टीका: गलतियों की पुनरावृत्ति?
बच्चों को लेकर जागरूकता और वैज्ञानिक शोध की सबसे अधिक आवश्यकता थी। परंतु इस वर्ग पर भी वैक्सीन का ट्रायल सीमित समय में किया गया और उसे भी आपातकालीन आधार पर मंजूरी दी गई। गौरतलब है कि कोविड टीके के बाद 12-13 साल के बच्चों की हार्ट अटैक से मौत के वीडियो सामने आ चुके है। अस्पताल की गैलेरी में खड़े-खड़े बच्चों की मौत हो गई। ऐसे वीडियो कई बार सामने आ चुके हैं। बच्चों के मामले काफी संवेदनशील है। इस पहलू पर तो डॉक्टर अभी तक खामोश ही रहे हैं। थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि गलत दिनचर्या और खान-पान की वजह से 18-45 वर्ष के लोगों की हार्ट अटैक से मौत हुई, मगर 12-13 साल के बच्चों की भी तो हार्ट अटैक से अचानक मौतों के मामले सामने आए हैं। इस पर डॉक्टर चुप क्यों हैं?
कई अभिभावकों ने अपने बच्चों को टीका नहीं दिलवाया, क्योंकि—
- वैक्सीन के लॉन्ग टर्म इफेक्ट्स अज्ञात थे
- बच्चों की इम्यूनिटी पहले से मजबूत होती है
- कम उम्र में वैक्सीन का रिस्क ज्यादा हो सकता है
8. WHO और अंतर्राष्ट्रीय समीक्षाएं
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भी कोविशील्ड को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अप्रूव किया, लेकिन यह भी बताया कि कुछ मामलों में ब्लड क्लॉटिंग और हार्ट इश्यू जैसे साइड इफेक्ट्स सामने आए हैं।
9. मौतें और वैक्सीन का रिश्ता: अनसुलझी गुत्थी
हासन, बरेली, पुणे और चेन्नई जैसे कई शहरों में युवाओं की अचानक हार्ट अटैक से हुई मौतों की खबरें आईं। मीडिया में ये खबरें आईं लेकिन इनका सीधा संबंध वैक्सीन से साबित नहीं किया गया।
हालांकि, डॉक्टरों का एक वर्ग कहता है—
“हार्ट अटैक, स्ट्रोक, ब्रेन हैमरेज की घटनाएं बढ़ी हैं। इनका संबंध वैक्सीन से नकारा नहीं जा सकता, पर यह शोध का विषय है।” गौरतलब है कि जिन लोगों ने दोनों और तीनों टीके लगा लिए उसके बाद भी कई लोगों को फिर से कोरोना हो गया है। यही नहीं टीका लगाने के बाद भी कोरोना से मौतें हो रही हैं। जबकि डॉक्टर ये कहकर पल्ला झाड़ रहे हैं कि उन्हें पहले से ही कई बीमारियां थीं। मगर इस बात से इनकार कर रहे हैं कि कोरोना इफैक्ट से उन्हें समय से पहले चोट पहुंचाई। उस समय हालात देश में ही नहीं पूरी दुनिया में भयावह थे और लोग जान बचाने के लिए अस्पतालों, स्कूलों, एनजीओ और जहां कैंप लगे वहां टीका लगाने पहुंचे। सबको जान प्यारी थी। वो तात्कालिक आवश्यकता थी। मगर अब डॉक्टरों और वैज्ञानिकों के पास पर्याप्त समय है। देश में फिर से कोरोना से मौतें हो रही है। अभी भी समय है टीके की खामियों को सुधार लिया जाए। क्योंकि कोरोना का वायरस कभी खत्म नहीं होने वाला और कभी भी किसी भी रूप में फिर से हमला कर सकता है।
10. बहस जरूरी है, घबराहट नहीं
कोविड वैक्सीन से लाखों जानें बचीं। यह एक वैज्ञानिक उपलब्धि भी है। मगर इसका मतलब यह नहीं कि इसके हर पहलू पर आंख मूंदकर भरोसा कर लिया जाए। अभी भी देश और दुनिया में कोरोना के टीके के दुष्प्रभावाओं पर व्यापक बहस की जरूरत है।
जरूरी बिंदु:
- टीका लगाना मजबूरी थी, पर उसका वैज्ञानिक मूल्यांकन अब भी होना चाहिए
- सरकार को साइड इफेक्ट्स की पूरी रिपोर्टिंग सार्वजनिक करनी चाहिए। मरीजों की केस हिस्ट्री, किस उम्र के किन-किन मरीजों पर शोध किया, किस स्तर पर किया गया, किन-किन डॉक्टरों ने किया, किस लैब में जांच की गई, वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों का कोई दबाव तो नहीं था, सरकार का कोई प्रेशर तो नहीं था, ऐसे कई सवाल है जो रिपोर्ट को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए आंख मूंदकर रिपोर्ट को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता।
- वैक्सीन कंपनियों को जवाबदेह बनाना चाहिए
- भविष्य में वैक्सीनेशन को लेकर ट्रांसपेरेंसी, साक्ष्य आधारित गाइडलाइन, और लॉन्ग टर्म ट्रायल्स ज़रूरी हैं
देश में खुली बहस की जरूरत, देश के चोटी के निजी अस्पतालों और विशेषज्ञों की स्टडी भी हो
देश में इस मुद्दे पर खुली बहस जरूरी है। ICMR और AIIMS की रिपोर्टें अंतिम सत्य नहीं हो सकतीं। भारत को एक स्वतंत्र और पारदर्शी वैज्ञानिक व्यवस्था बनानी होगी, जहां स्वास्थ्य नीति केवल सत्ता या कंपनियों के हित में नहीं बल्कि आमजन की भलाई के लिए बने। देश के चोटी के निजी अस्पतालों और वैज्ञानिकों की टीम से शोध करवाना चाहिए। एम्स और आईसीएमआर के भरोसे किसी रिपोर्ट को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता।
क्योंकि एक टीका ज़िंदगी भी दे सकता है, और गलत नीति मौत भी।





