लेखिका : नीलम व्यास ‘स्वयंसिद्धा’
आज मीत अपने को बहुत ही असहाय महसूस कर रहा था। हृदय में हूक सी उठ रही थी, मन को मां की यादें कचोट रही थी। पर अन्तर्मन के किसी कोने में गहन संतोष भी था।
एक साल पहले की घटना मीत के मस्तिष्क में कौंध उठी। मां की मृत्यु का दुखद समाचार सुनकर उसे अमेरिका की अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर आना पड़ा था। मन में नौकरी छोड़ने का आक्रोश भी था। फोन पर डॉक्टर चाचा ने यही कहा था कि मां की अंतिम इच्छा यही है कि वह स्थायी रूप से भारत बस जाए।
मां के अंतिम संस्कार के बाद गमगीन सा घर पर बैठा था कि डॉक्टर चाचा मिलने आ गए। उसे दुखी देख दिलासा दी और आगे के भविष्य के बारे में पूछने लगे, मीत बुझे मन से बोला कि यहां मेरा क्या भविष्य बनेगा। मां ने तो जाते जाते मुझे बंधन में ही मानो बांध लिया हैं।
डॉक्टर चाचा ने उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरकर कहा कि बेटा, एक अंतिम इच्छा और पूरी करनी है, कर पाओगे, तुम। क्या,,?मीत को उन्होंने बताया कि मां ने अपनी किडनी बेच कर उसकी डॉक्टरी का खर्चा उठाया था। एक बड़े सेठ को किडनी दान की और मरते समय तक उन बुजुर्ग की जीजान से सेवा भी की। सेठजी ने अंतिम समय में उन्हें अपनी बेटी मान लिया था। मरते समय उन निः सन्तान सेठजी ने सब जायदाद मां के नाम कर दी थी, मगर अपनी इच्छा भी जाहिर की कि उस सब का उपयोग अस्पताल बनाने और गरीबों की सेवा करने में ही किया जा सकेगा।
मीत की मां ने उस धन को मीत के नाम से जमा कर दिया और खुद सादगी से ही रहने लगी। कठोर सेवा कार्य से मां की सेहत बिगड़ने लगी। किडनी देने के बाद भी मां ने खुद की दवाई व खान पान पर ज्यादा खर्च नहीं किया। मीत को उन्होंने फोन करके अमेरिका से वापस आने का बहुत बार कहा पर मीत ने एक न सुनी। ये सब सुनते सुनते मीत की आंखों से अश्रुओं की धारा बहती रही। उफ़्फ़,, ये उससे कैसी गलती हो गयी? काश,,वह समय पर आ पाता तो मां को अंतिम समय में इतना तड़पना ही नहीं पड़ता।
ग्लानि और दुःख से डॉक्टर मीत की गर्दन ही ऊपर नहीं उठ रही थी। तब डॉक्टर चाचा ने समझाया कि अगर तुम उस जमा पूंजी से मां के गांव जाकर गरीबों का निःशुल्क इलाज कर पाओ तो मां की आत्मा को शांति अवश्य मिलेगी,,,और वह भी ग्लानि बोध से मुक्त हो पायेगा।
ऐसा ही हुआ,,छ महीने में ही मां की कर्म स्थली पर छोटा सा नर्सिंग होम खुल चुका था, किडनी रोग के विशेषज्ञ वहां सेवा देते थे। माँ की मूर्ति की स्थापना की गई थी,,प्रांगण में और रोजाना डॉक्टर मीत मां के दर्शन करके ही अस्पताल में प्रवेश करता था। अस्पताल का नाम रखा गया था,,मातृछाया।
आज भी डॉक्टर मीत को यह बात रुलाती है कि मां ने किडनी बेच कर उसे डॉक्टर बनाया था,,,क्या कभी वह मां के इस बलिदान को चुका पायेगा। धन्य,,मां की ममता,,धन्य,,मां का त्याग। तभी आकाश से पानी की बून्द उसके भाल पर टपक गयी। मीत के ऊपर छाया बादल का टुकड़ा मानो उसे माँ का संदेश दे रहा था कि उसे जीवन में सतत कर्मशील रह गरीबों की सेवा करनी है, तब कही जाकर वह मां को सच्ची श्रद्धांजलि दी पायेगा। आंसू भरी आंखों से उस बादल को देख मीत बुदबुदा उठे,,,मां मैं जरूर आपकी अंतिम इच्छा का सम्मान करूंगा। दूर कही व्योम में जब इंद्र धनुष छा गया तो मीत को लगा कि मां उसके वादे से खुश होकर मुस्करा रही हैं। यह देख अपूर्व शांति और अदम्य इच्छा शक्ति से भर डॉक्टर मीत चल पड़ा,,मां के सपने को साकार करने अस्पताल की ओर,,आखिर मां के बलिदान को अक्षुण जो रखना हैं।