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Thursday, September 19, 2024, 6:22 am

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धरती के शास्त्रों में पुरुषार्थ चार कहें हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, लेकिन हमारा दावा है कि पुरुषार्थ केवल दो ही होते हैं- व्यक्त पुरुषार्थ और अव्यक्त पुरुषार्थ, संसार व्यक्त पुरुषार्थ है और श्रीकृष्ण अव्यक्त पुरुषार्थ है : पंकजप्रभु 

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(प्रख्यात जैन संत परमपूज्य पंकजप्रभु महाराज का चातुर्मास 17 जुलाई से एक अज्ञात स्थान पर अपने आश्रम में शुरू हुआ। पंकजप्रभु अपने चातुर्मास के दौरान चार माह तक एक ही स्थान पर विराजमान होकर अपने चैतन्य से अवचेतन को मथने में लगे रहेंगे। वे और संतों की तरह प्रवचन नहीं देते। उन्हें जो भी पात्र व्यक्ति लगता है उसे वे मानसिक तरंगों के जरिए प्रवचन देते हैं। उनके पास ऐसी विशिष्ट सिद्धियां है जिससे वे मानव मात्र के हृदय की बात जान लेते हैं और उनसे संवाद करने लगते हैं। उनका मन से मन का कनेक्शन जुड़ जाता है और वे अपनी बात रखते हैं। वे किसी प्रकार का दिखावा नहीं करते। उनका असली स्वरूप आज तक किसी ने नहीं देखा। उनके शिष्यों ने भी उन्हें आज तक देखा नहीं है। क्योंकि वे अपने सारे शिष्यों को मानसिक संदेश के जरिए ही ज्ञान का झरना नि:सृत करते हैं। उनकी अंतिम बार जो तस्वीर हमें मिली थी उसी का हम बार-बार उपयोग कर रहे हैं क्योंकि स्वामीजी अपना परिचय जगत को फिलहाल देना नहीं चाहते। उनका कहना है कि जब उचित समय आएगा तब वे जगत को अपना स्वरूप दिखाएंगे। वे शिष्यों से घिरे नहीं रहते। वे साधना भी बिलकुल एकांत में करते हैं। वे क्या खाते हैं? क्या पीते हैं? किसी को नहीं पता। उनकी आयु कितनी है? उनका आश्रम कहां है? उनके गुरु कौन है? ऐसे कई सवाल हैं जो अभी तक रहस्य बने हुए हैं। जो तस्वीर हम इस आलेख के साथ प्रकाशित कर रहे हैं और अब तक प्रकाशित करते आए हैं एक विश्वास है कि गुरुदेव का इस रूप में हमने दर्शन किया है। लेकिन हम दावे के साथ नहीं कह सकते हैं कि परम पूज्य पंकजप्रभु का यही स्वरूप हैं। बहरहाल गुरुदेव का हमसे मानसिक रूप से संपर्क जुड़ा है और वे जगत को जो प्रवचन देने जा रहे हैं उससे हूबहू रूबरू करवा रहे हैं। जैसा कि गुरुदेव ने कहा था कि वे चार महीने तक रोज एक शब्द को केंद्रित करते हुए प्रवचन देंगे। आज स्वामीजी ‘पुरुषार्थ’ शब्द पर अपने प्रवचन दे रहे हैं।)

गुरुदेव बोल रहे हैं-

पुरुषार्थ। हे मानव आज तुम्हारे पुरुषार्थ की परीक्षा है। आयुर्वेद में पौरूष यानी वीर्य को पुरुषार्थ कहा गया है। जिसमें पौरूष नहीं यानी वीर्य नहीं तो उसमें पुरुषार्थ कहां से आएगा? वीर्य तत्व ही पुरुषार्थ है। पॉवर ही पुरुषार्थ है। दुनिया में पॉवर ही पुरुषार्थ है। यानी पुरुषार्थ ही सुख है, पुरुषार्थ ही संतान उत्पत्ति करने की क्षमता है, पुरुषार्थ वीर्य तत्व है। पुरुषार्थ शक्ति है। जीवन में शक्ति नहीं, वीर्य नहीं तो पुरुषार्थ नहीं? पुरुषार्थ व्यक्त में भी होता है और अव्यक्त में भी। इसलिए दो ही पुरुषार्थ है व्यक्त और अव्यक्त। चेतना और अवचेतना। हे मानव तुम्हारे शास्त्रों में चार पुरुषार्थ बताए गए हैँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष…जबकि मैंने अपने साधना चक्षुओं से केवल दो पुरुषार्थ की खोज की है। और वह दो पुरुषार्थ है- अव्यक्त पुरुषार्थ और अव्यक्त पुरुषार्थ।

हे मानव पहले इस जगत के शास्त्रों की बातें कर लेते हैं। फिर मैं बताऊंगा कि केवल दो पुरुषार्थ होते हैं- व्यक्त पुरुषार्थ और अव्यक्त पुरुषार्थ। इसे चेतन पुरुषार्थ और अवचेतन पुरुषार्थ भी कहते हैं। पहले हे मानव शास्त्रों की बातें सुनों। पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है (‘पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः’)। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ =पुरुष का तात्पर्य विवेक संपन्न मनुष्य से है अर्थात विवेकशील मनुष्यों के लक्ष्यों की प्राप्ति ही पुरुषार्थ है। प्रायः मनुष्य के लिये वेदों में चार पुरुषार्थों का नाम लिया गया है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसलिए इन्हें ‘पुरुषार्थचतुष्टय’ भी कहते हैं। महर्षि मनु पुरुषार्थ चतुष्टय के प्रतिपादक हैं। चार्वाक दर्शन केवल दो ही पुरुषार्थ को मान्यता देता है- अर्थ और काम। वह धर्म और मोक्ष को नहीं मानता। महर्षि भी मनु के पुरुषार्थ-चतुष्टय के समर्थक हैं किन्तु वे मोक्ष तथा परलोक की अपेक्षा धर्म, अर्थ, काम पर आधारित सांसारिक जीवन को सर्वोपरि मानते हैं। योगवासिष्ठ के अनुसार सद्जनो और शास्त्र के उपदेश अनुसार चित्त का विचरण ही पुरुषार्थ कहलाता है।

भारतीय संस्कृति में इन चारों पुरूषार्थों का विशिष्ट स्थान रहा है। पुरुषार्थ चतुष्टय का सिद्धान्त भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता है। इस सिद्धान्त की संरचना भारत के ऋषियों, मुनियों और विद्वज्जनों ने मानव-जीवन के अध्यात्म को दृष्टि में रखकर की थी। वस्तुतः प्राचीन काल के भारतीय विचारकों ने मनुष्य के जीवन को आध्यात्मिक, भौतिक और नैतिक दृष्टि से उन्नत करने के निमित्त पुरुषार्थ की योजना की थी। जीवन में भौतिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक सुख भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। वस्तुतः भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों जीवन परस्पर सम्बद्ध हैं। धर्म, अर्थ, काम ये तीनों पुरुषार्थ को अच्छी तरह कर लेने से ही मोक्ष की प्राप्ति सहज हो जाती है। प्राचीन काल में ही भारतीय मनीषियों ने धर्म  को वैज्ञानिक ढंग से समझने का प्रयत्न किया था। धर्म का विवेचन करते समय समझाया गया है कि धर्म वह है जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो- यतो अभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः धर्मः। ‘अभ्युदय’ से लौकिक उन्नति का तथा ‘निःश्रेयस’ से पारलौकिक उन्नति एवं कल्याण का बोध होता है। अर्थात जीवन के ऐहिक और पारलौकिक दोनों पक्षों से धर्म को जोड़ा गया था। धर्म की इससे अधिक उदार परिभाषा और क्या हो सकती है? धर्म शब्द का अर्थ अत्यन्त गहन और विशाल है। इसके अन्तर्गत मानव जीवन के उच्चतम विकास के साधनों और नियमों का समावेश होता है। धर्म कोई उपासना पद्धति न होकर एक विराट और विलक्षण जीवन-पद्धति है। यह दिखावा नहीं, दर्शन है। यह प्रदर्शन नहीं, प्रयोग है। यह चिकित्सा है मनुष्य को आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त कर सार्थक जीवन तक पहुंचाने की। यह स्वयं द्वारा स्वयं की खोज है। धर्म, ज्ञान और आचरण की खिड़की खोलता है। धर्म, आदमी को पशुता से मानवता की ओर प्रेरित करता है। अनुशासन के अनुसार चलना धर्म है। हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म का सार जीवन में संयम का होना है। दूसरा पुरुषार्थ अर्थ को कहा गया है। अर्थात जो भी विचार और क्रियाएं भौतिक जीवन से संबंधित है उन्हें ‘अर्थ’ की संज्ञा दी गयी है। धर्म के बाद दूसरा स्थान अर्थ का है। अर्थ के बिना, धन के बिना संसार का कार्य चल ही नहीं सकता। जीवन की प्रगति का आधार ही धन है। उद्योग-धंधे, व्यापार, कृषि आदि सभी कार्यो के निमित्त धन की आवश्यकता होती है। यही नहीं, धार्मिक कार्यों, प्रचार, अनुष्ठान आदि सभी धन के बल पर ही चलते हैं। अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है। इसी से वह प्रकृति की विपुल संपदा का अपने और सारे समाज के लिए प्रयोग भी कर सकता है और उसे संवर्द्धित व संपुष्ट भी। पर इसके लिए धर्माचरण का ठोस आधार आवश्यक है। धर्म से विमुख होकर अर्थोपार्जन में संलग्न मनुष्य एक ओर तो प्राकृतिक सम्पदा का विवेकहीन दोहन करके संसार के पर्यावरण संतुलत को नष्ट करता है और दूसरी ओर अपने क्षणिक लाभ से दिग्भ्रमित होकर अपने व समाज के लिए अनेकानेक रोगों व कष्टों को जन्म देता है। धर्म ने ही हमें यह मार्ग सुझाया है कि प्रकृति से, समाज से हमने जितना लिया है, अर्थोपार्जन करते हुए उससे अधिक वापस करने को सदैव प्रयासरत रहें। शास्त्रों ने अर्थ को मानव की सुख-सुविधाओं का मूल माना है। धर्म का भी मूल, अर्थ है सुख प्राप्त करने के लिए सभी अर्थ की कामना करते हैं। इसलिए आचार्य कौटिल्य ने त्रिवर्ग में अर्थ को प्रधान मानते हुए इसे धर्म और काम का मूल कहा है। भूमि, धन, पशु, मित्र, विद्या, कला व कृषि सभी अर्थ की श्रेणी में आते हैं। इनकी संख्या निश्चित करना सम्भव नहीं है क्योंकि यह मानव जीवन की आवश्यकताओं पर निर्भर करती है। मनुष्य स्वभावतः कामना प्रधान होता है, यह कहना भी गलत नहीं होगा वह कामनामय होता है। इन सभी कामनाओं की पूर्ति का एक मात्र साधन अर्थ है। आचार्य वात्स्यायन ‘अर्थ’ को परिभाषित करते हुए विद्या, सोना, चांदी, धन, धान्य गृहस्थी का सामान, मित्र का अर्जन एवं जो कुछ प्राप्त हुआ है या अर्जित हुआ है उसका वर्धन सब अर्थ है। अब काम पुरुषार्थ की चर्चा करेंगे। काम ज्ञान के माध्यमों का उल्लेख करते हुये कहा गया है कि आत्मा से संयुक्त मन से अधिष्ठित तत्व, चक्षु, जिव्हा, तथा घ्राण तथा इन्द्रियों के साथ अपने अपने विषय – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, तथा गंध में अनुकूल रूप से प्रवृत्ति ‘काम’ है। इसके अलावा स्पर्श से प्राप्त अभिमानिक सुख के साथ अनुबद्ध फलव्रत अर्थ प्रीतति काम कहलाता है। इसके अलावा अर्थ, धर्म तथा काम की तुलनात्मक श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुये कहा गया है कि त्रिवर्ग समुदाय में पर से पूर्व श्रेष्ठ है। काम से श्रेष्ठ अर्थ है तथा अर्थ से श्रेष्ठ धर्म है। परन्तु व्यक्ति व्यक्ति के अनुसार यह अलग-अलग होता है। माध्वाचार्य के अनुसार विषयभेद के अनुसार काम दो प्रकार का होता है। इनमें से प्रथम को सामान्य काम कहते हैं। जब आत्मा की शाब्दिक विषयों के भोगने की इच्छा होती है तो उस समय आत्मा का प्रयत्न गुण उत्पन्न होता है। अर्थात आत्मा सर्वप्रथम मन से संयुक्त होती है तथा मन विषयों से। स्रोत, त्वच, चक्षु, जिव्हा तथा ध्राण इन्द्रिय की क्रमशः स्पर्श, रूप, रस, गन्ध में प्रवृत्त होते हैं। काम की इस प्रकृति में न्याय वैशेषिक मत अधिक झलकता है। इसके अनुसार शब्दादि विषयणी बुद्धि ही विषयों के भोग के स्वभाव वाली बुद्धि ही विषयों के भोग वाली स्वभाव वाली होने के कारण उपचार से कम कही जाती है। अर्थात् आत्मा बुद्धि के द्वारा विषयों को भोगता हुआ सुख को अनुभव करता है। जो सुख है, सामान्य रूप से वही काम है।

अब मोक्ष पुरुषार्थ के बारे में बताएंगे। आत्मा को अमर कहा गया है। यह एक नित्य अनादि तत्व है जो बंधन अथवा मुक्ति (मोक्ष) की अवस्था में रहती है। बद्ध अवस्था में इसे अपने कर्मों के अनुसार इसी जन्म अथवा अगले जन्मों में कर्मफल भोगने पड़ते हैं। मनुष्य के अलावा सभी शरीर मात्र भोग योनि हैं, मानव शरीर कर्म योनि है। योगी सद्गुरु के मार्गनिर्देशन में ’विकर्म’ द्वारा अपने शुभ-अशुभ कर्मों से ऊपर उठ जाता है और शरीर रहते ही परमात्मा की प्राप्ति कर लेता है। इसे ही योग (आत्मा एवं परमात्मा का मिलन) कहा गया है। अब वह अकर्म की स्थिति में है और इस शरीर में प्राप्त प्रारब्ध भोग को समाप्त कर लेने के बाद वह अपने शरीर से विदेहमुक्त हो जाता है। उसे अब नया जन्म नहीं लेना पड़ता, वह बंधन से मुक्त हो जाता है। मोक्ष को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का मुख्य उद्देश्य है जो कि मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

हे मानव अभी तुमने शास्त्रों के अनुसार चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के बारे में जाना। अब सुनो हमारी साधना चक्षुओं से हमने केवल दो पुरुषार्थ का अनुभव किया है। और दो पुरुषार्थ है व्यक्त पुरुषार्थ और अव्यक्त पुरुषार्थ। व्यक्त पुरुषार्थ में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के सभी कार्य समाहित है। जिसे तुम्हारे ऋषियों ने आश्रम कहा है वे सभी हमारी नजर में व्यक्त पुरुषार्थ ही है। दूसरा है अव्यक्त पुरुषार्थ। इस अव्यक्त पुरुषार्थ में ही असली पुरुषार्थ छिपा है। श्रीकृष्ण ही अव्यक्त पुरुषार्थ है। जब अव्यक्त व्यक्त में तब्दिल होता है तो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के लोग इसमें समाहित हो जाते हैं। एक ऋषि ब्रह्मचारी भी हो सकता है और गृहस्थ भी। ब्रह्मचारी ऋषि के लिए काम और अर्थ पुरुषार्थ जरूरी नहीं भी हो सकता है। जहां तक हमारा मानना है संसार के समस्त जीव व्यक्त पुरुषार्थ की श्रेणी में आते हैं। केवल श्रीकृष्ण ही अव्यक्त पुरुषार्थ की श्रेणी में आते हैं। इसे अवचेतन पुरुषार्थ भी कहते हैं। इस अवचेतन पुरुषार्थ में चेतन हमेशा छिपा रहता है। हे मानव इस जगत में केवल दो ही पुरुषार्थ है- व्यक्त पुरुषार्थ और अव्यक्त पुरुषार्थ। शरीर व्यक्त पुरषार्थ है और आत्मा अव्यक्त पुरुषार्थ है। आत्मा और वीर्य में अंतर है। वीर्य केवल व्यक्त पुरुषार्थ का एक पार्ट है और आत्मा अव्यक्त पुरुषार्थ का एक पार्ट है। जो दो तरह के पुरुषार्थ मैंने कहे हैं व्यक्त पुरुषार्थ और अव्यक्त पुरुषार्थ दरअसल श्रीकृष्ण अव्यक्त पुरुषार्थ का पर्याय हैं। जब श्रीकृष्ण अवतरित होते हैं तो वे व्यक्त पुरुषार्थ में कन्वर्ट हो जाते हैं। इसलिए हे मानव दुनिया के सारे धर्मों और अध्यात्म को मैं बता देना चाहता हूं कि केवल दो ही पुरुषार्थ होते हैं- व्यक्त पुरुषार्थ और अव्यक्त पुरुषार्थ। आज से पहले यह बात किसी ऋषि ने नहीं कही होगी। हे मानव तुम्हारे सारे शास्त्रों में चार पुरुषार्थ कहे गए हैं। लेकिन हकीकत में दो ही पुरुषार्थ होते हैं और वे हैं व्यक्त पुरुषार्थ और अव्यक्त पुरुषार्थ। इसे ही मैं चेतन और अवचेतन पुरुषार्थ कहता हूं। इसलिए संसार के प्राणी हमेशा व्यक्त पुरुषार्थ में जीवन भर लगे रहते हैं। मगर श्रीकृष्ण अव्यक्त पुरुषार्थ में रहते हैं। जब-जब श्रीकृष्ण व्यक्त होते हैं तो वे धरती पर व्यक्त पुरुषार्थ की लीला करते हैं। यही पुरुषार्थ का असली अर्थ है। दूसरे शब्दों में कहें तो संसार व्यक्त पुरुषार्थ है और श्रीकृष्ण अव्यक्त पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ के बारे में आज इतना ही।

Rising Bhaskar
Author: Rising Bhaskar


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