(डॉ. अनिता कपूर का जन्म जन्म भारत (रिवाड़ी) में हुआ। शिक्षा एम .ए.,(हिंदी एवं अंग्रेजी ), पीएचडी (अंग्रेजी ), सितार एवं
पत्रकारिता में डिप्लोमा। कवयित्री / लेखिका/ पत्रकार, संपादक (यादें समाचार-पत्र) अमेरिका के हिन्दी समाचारपत्रों के संपादकीय विभाग में सेवायें) हिन्दी के प्रचार-प्रसार और समाज सेवा में कार्यरत। व्यवसाय: “बे-एरिया इमिग्रेशन एवं लीगल सर्विसेस“, अमेरिका, के लिए अनुवादिका का कार्य करना और साथ ही अमेरिका में वैदिक ज्योतिष /हस्तरेखा/टैरो/वास्तु ज्योतिष विद्या में कार्यरत। प्रकाशन: बिखरे मोती ,कादम्बरी, अछूते स्वर, ओस में भीगते सपने, सांसों के हस्ताक्षर, चेतना की चिंगरियां, शब्दों के बीज (काव्य-संग्रह), दर्पण के सवाल, आधी आबादी का आकाश, बोंजाई, सैलानी चांद (हाइकु संग्रह), हाइकु आकाश के छोटे-छोटे चाँद, हाइकु का मराठी अनुवाद, धूप की मछलियां (लघुकथा-संग्रह), साक्षात्कार के आईने में प्रवासी साहित्यकार डॉ अनिता
कपूर। अनेकों भारतीय एवं अमरीका की पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, कॉलम, साक्षात्कार एवं लेख प्रकाशित। प्रवासी भारतीयों के दुःख-दर्द और अहसासों पर तथा ज्योतिष पर पुस्तकें प्रकाशन में। अनेकों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मान और अवार्ड्स से सम्मानित। अध्यक्ष और संस्थापक: “ग्लोबल हिन्दी ज्योति” (कैलिफोर्निया अमेरिका)। जोधपुर की महारानी, हेमलता राजे द्वारा ज्योतिष के लिए सम्मान। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, नई दिल्ली (ICCR), केंद्रीय हिंदी संस्थान और भारतीय भाषा परिवार के संयुक्त तत्वाधान में अमेरिका में भाषा प्रचार-प्रसार में योगदान के लिए “अंतर्राष्ट्रीय भारतीय भाषा सम्मान। इंटरनेशनल अस्ट्रालजी फेडरेशन द्वारा, मुंबई में ज्योतिष चक्रवर्ती सम्मान इंडिया नेटबुक्स एवं बीपीए फ़ाउंडेशन की ओर से राजीव अवस्थी प्रवासी साहित्य भूषण सम्मान। किरोड़ीमल शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय,रायगढ़, छत्तीसगढ़ द्वारा “प्रवासी साहित्यकार सम्मान” से विभूषित। इसके अलावा भी देश-विदेश में अनेक सम्मान। मो: 1-510-894-9570 (अमेरिका)
मो: 91-7303694727 (भारत) ईमेल:anitakapoor.us@gmail.com)
तुम
मैं शब्द बुनती रही
तुम अर्थ उघेड़ते रहे
पूरा न हो पाया रिश्तों का स्वेटर
तुम ऐसे क्यों हो?
मैं रेत पर घर बनाती रही
तुम लहरें बुलाते रहे
बन न पाया प्यार का घर
तुम ऐसे क्यों हो?
मैं सूरज की गर्मी से
मन के गीलेपन को सुखाती रही
तुम बादलों को बुलाते रहे
तुम ऐसे क्यों हो?
मैं ज़िंदगी को पीती रही
तुम अँधेरों से डराते रहे
पार न हो पायी मन की सुरंग
तुम ऐसे क्यों हो?
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अध्यात्म की अनुभूति
आत्मा और परमात्मा से
संबंधित शाश्वत ज्ञान
ईश्वरीय आनंद की अनुभूति
स्वयं के अस्तित्व के साथ जोड़ना
मार्ग है अध्यात्म का
और अनुगमन है अध्यात्म विद्या
भौतिकता से परे जीवन का अनुभव
सूक्ष्म विवेचन है अध्यातम
अपने आनंद का स्रोत होना है अध्यातम
अपने आत्म तत्व को पहचानना
खुद को जानना
प्रेम करना
और प्रेम स्वंय को पह्चानने
जानने की पहली सीढी
और जब स्वंय का अध्ययन
करने की ओर कदम बढते हैं
तब प्रेम और अध्यात्म मिलकर
जीवन दर्शन कराते हैं
आत्म बोध कराते हैं
अध्यात्म
विश्व बंधुत्व का मार्ग भी है
ईर्ष्या, द्वेष, घृणा
आपसी भेदभाव से परे
दिव्य-तत्व की अनुभूति
अध्यात्म
अपने भीतर जाने का मार्ग
हम जब परम आनंद की
प्राप्ति की और जाते है
तब प्रेम, जीवन और अध्यात्म
एक दूसरे में लीन हो जाता है।
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धूप की मछलियां
बनारस के घाटों पर
नयी करवटें बदलती ज़िंदगी
अंतिम यात्रा
एक बुलबुला फटता है
जिसमे जीवन कैद था।
बस यह तो बाहरी छिलका था जो गिर गया
बाहरी सतह टूट गयी
अंदर की तो फिर नयी यात्रा, नया चक्र और योनि
मिलन और विलय शुरू होता है
यही सृष्टि का सत्य है
जैसे जल किसी को रुका हुआ सा लगता है
दूसरा कहता है नहीं चल रहा है
तीसरा कोई बोल पड़ता है कि
देखो इस पानी में तो धूप की मछलियाँ तैर रही हैं
फिर कोई बोल उठता है
तैरती हुई तो एक ऊर्जा है
कर्मों के हिसाब से रूप बदलना ही उसका काम है
छलावा है या सत्य
ब्रह्मांड पर छोड़ दो….
शिव से पूछो कि सत्य क्या है?
उसके पहले अपने अन्तर्मन में एक अपना
शिवलिंग बनाना होगा।
जर्जर मन के लिए पुरातत्वेता बनना होगा
कर्मों के रसायन में घाट की मिट्टी मिला कर
शिव पर छोड़ना होगा
फिर जब तुम अपनी अंतिम यात्रा के लिए
बनारस का द्वारा लांघोगे
तभी मोक्ष को पाओगे
धूप की मछलियाँ भी साफ-साफ देख पाओगे।
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युद्ध
जब वो कहते हैं
जब तुम भी कहते हो
कि मैं गलत हूँ
तो मैं मान भी लेती हूँ
कि मैं गलत हूँ
लेकिन उनके कहने में
और तुम्हारे कहने में
जो अंतर है
उस अन्तर के अन्तर को
मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ
हो सकता है
यह भी मेरी ही गलती हो
अन्तर का अन्तर ही
इसका कारण हो
लेकिन अन्तर का यह अन्तर
क्यों है
कैसे है
यह राज़
जब जब
जानने की कोशिश में
अपने अन्तर के ताल में उतरती हूँ
अन्तर का यह अन्तर
बढ़ता ही जाता है
अन्तर के अन्तर को
पाटने की
सारी कोशिश
जब नाकाम हो जाती है
उस शाम मुझे लगता है
कि युद्ध ख़तरनाक होने के बावजूद
अब टाला नहीं जा सकता
टालना भी नहीं चाहिए
क्योंकि यही अन्तर का अन्तर है
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माँ नहीं रही
माँ तो गई
अब मकान भी पिता को
अचरज से देखता है
मानो संग्रहालय होने से डरता है
उसने खंडहरों में तब्दील होते
मुहल्ले के कई मकानों को देखा है
माँ तो चली गयी
अब मकान खुद ही
ढहने लगा है
उसे मंज़ूर है खुद का बिलखना
पर वो पिता को ढहते नहीं देख पाएगा
भाई अब तो पिता को ले जाएगा
माँ नहीं रही
कौन उठाये खिलाये
रातों को चाँद दिखा
बीती पूर्णमासियों को जिलाये
अब तो बस हर रात अमावस्या हुई
माँ इस घर से गई
घर खड़ा है
रहने वाले बिखर गए
बेटियाँ वापस ससुराल गयीं
भाई ने कहा
बेचो इसे
पिता हठ में
यादों की ईंटें
मेहनत कमाई से
मैंने बनाया
यहीं है रहना अंत तक
असमंजस में हम सब
माँ तो चली गई
बच्चे इस मज़बूत दुकान को
मॉल की छोटी-छोटी दुकानों में
बंटना नहीं देखना चाहते
इसलिए मज़बूत दुकान को
भाई ले गया
और माँ की तुलसी
माँ के कमरे की दीवार की ख़ुरचन
मैं विदेश ले आयी हूँ
आज माँ मेरे साथ है
तसल्ली है दुकान आज भी है।
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नहीं भूली हूँ
नहीं भूली हूँ मैं आज तक
अपने बचपन का वो पहला मकान
पिताजी का बनाया वो छोटा मकान
कुछ ऋण ऑफिस से
बाकी गहने माँ के काम आए
मेरे लिए वो ताजमहल था
सफेद न सही लाल ही सही
छत पर सोने का मज़ा तो वैसे भी
ताजमहल में कहाँ आ सकता था
नहीं भूली हूँ आज तक वो मिट्टी की सोंधी महक
जब हम शाम को छत पर पानी उड़ेलते
तपिश कम हो तो रात को छत पर सोएँगे
छत की सफाई ने हमें जैसे टाइम-मैनिज्मन्ट सिखा दिया था
स्कूल जाना, फिर होमवर्क करना, खेलना, खाना
और फिर रात को ऊपर सोने के लिए
छत पर छिड़काव, वो माटी की भीनी-भीनी खुशबू
बिछौना व छत वाले पेड़ के नीचे मस्ती
आसमाँ में चमकीले तारे
चाँद को देखना, और फिर सोना
नहीं भूली हूँ आज तक, वो मेरे शहर की सुबह
चिड़ियों का चहचहाना
मुर्गे की बांग, माँ का नीचे से आवाज़ें लगाना
मेरा उस सोंधी खुशबू में लिपटे-लिपटे बड़े हो जाना
खुशबू में तैर कर सात समुंदर पार आना
यहाँ खुशबू के तो पंख निकल आए थे
मैं जब चाहे उड़ कर उस पुराने मकान
को छू आती थी
वो छुअन वाले मोह के धागे ही तो थे
जिन्होंने मुझे मेरे मकान से बांधे रखा
इसीलिए नहीं भूली हूँ मैं आज तक
अपने बचपन का वो पहला मकान
जिसकी यादें दिल में सीमेंट बन गई है
और दिल वही मकान बन गया है।
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अकेली
तुम खुद ही
अपनी दुनिया से
मेरी दुनिया में आए थे
मैंने तुम्हें स्वीकारा था
अन्तरमन से चाहा था
तुम्हारे दिखाये सपनों के
इन्द्रधनुषी झूले से झूली थी
तुमने दिखाई थी बहारें
लिपट गयी थी गुलाबों से मैं
तुम्हारी उंगली पकड़
नन्ही बच्ची-सी चलने लगी थी
अपने मन के अंदर
तुम्हारी ही बनाई सड़क पर
चलने लगी थी मैं
तुम बन गए थे
मेरी पूरी दुनिया
आसमान के चाँद ने भी
ले ली थी शक्ल तुम्हारी
पर
तुम अपने छोर
अपनी दुनिया के खूँटों पर
अटका कर आए थे
उस दुनिया के लोग
एक-एक करके खींचने लगे थे
तुम्हारे छोर
तुम्हारी कमजोरी
मेरा प्यार टकराने लगे
आज मैं फिर
से हो गयी हूँ अकेली
पहले से भी अधिक
अकेली
पर तुम्हरा जाना मेरे लिए
एक रास्ता छोड़ गया
जिसके कांटे मैंने बिन कर
रोंपे हैं गुलाब
मैं रोई बिल्कुल नहीं
बल्कि मैंने मन की दराज़ से
चिपके हुए लम्हों को खुरच दिया था
जो तुम्हारे साथ बीते थे पर अब बदबूदार से हो चले थे
आज मैं अबला नहीं रही
अपनी समस्त शक्तियों के साथ
सबल हो गई हूँ
और एक पूर्ण नारी हो गई हूँ
जिसे नहीं है दरकार किसी बैसाखी की।
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चाहत
क्या हुआ जो तुम मुझे नहीं चाहते
मेरा प्यार
हो या
समुद्र की अथाह गहराई
न तुम उसे भाँप सके
न इसे नाप सके
फिर भी तुम आया करो
क्योंकि
तुम्हारा आना जैसे
पतझड़ के मौसम में
बहार का एक झौंका
जानती हूँ
तुम मुझे प्यार नहीं करते
फिर भी तुम आया करो
तुम्हारा आना और
आ कर वापस चले जाना
उन्हीं कुछ क्षण की यादों को समेटे
उन्हीं के साये में
मैं जिंदगी गुज़ार लूंगी
मैं जानती हूँ
तुम मुझे नहीं चाहते
फिर भी तुम आया करो
अभिलाषा है
तेरे खुश्क होते शब्दों पे
बादल रख दूँ
तुम थोड़ा भीग जाओ
तुम्हारी वो मेज़
जिस पे मेरे नाम की मीनाकारी थी
डायरी जिसमें में न जाने कितनी बार
मैं डूबी उतरी थी
वो लम्हे फ़र्श पे बिखरा दूँ
तो शायद
ख़ामोशियाँ जो आहटों को
आगोश में भरे तेरे अंदर है
लफ़्ज़ बन के बह जाएँ
तुम अपने हिस्से में नहा लो
मैं अपने में डूब जाऊँ।
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ख़्वाब
कितनी ही चीज़ों को
तुमने जोड़ दिया है
मेरे दायरे में-फ़िलहाल
सोच के ढेरों ख़्वाब
हथेलियों में छपाक-छपाक
फिसलती जा रही है देह
नस-नस में
दरिया की तरह बदलती
जा रही है तुम्हारी मौजूदगी
बहुत सारे मायनें बदल गए हैं
अपने और अजनबी में
इंतज़ार की तराई में
आलता रंगें पाँव
बजा रहें हैं पाज़ेब की झनक पर
नदी का समुद्र-गीत
बोलती आँखों में
दहकते कुकुरमुत्तों के फूल
दिल रुबा से थिरकते
पहाड़, आकाश और झरने
भूगोल को महसूसने तक
ले आयें हैं
नथुनों में अनुभवी आदिम गंध
इरादों की चट्टान पर
सहलाती हूँ उसी दूब को
जहाँ तुम्हारे साथ
छिपा दिये थे सुनहरी शामों के रंगीन ख़्वाब
तुम से जुड़ कर –
फिलहाल।
0000
मेरी आँखों में
आज सुबह को देखना तुम
मेरी आँखों में
उस सपने की तरह
जो लाती है सूरज को रोज़ किसी
सच की तरह
देखना वो हो जाएगा बर्फ
तुम्हारे प्यार की आग के सामने .
तब तुम खेलना उस से
किसी मनचाहे खिलौने की तरह
मुझे यकीन है तब
वो बन जाएगा तुम्हारी ज़मीन
तुम चलोगी उस पर उन तारों की तरह
जो कभी उगते होंगे तुम्हारी
सपनो की ज़मीन में
करना तुम अपनी मुठी को बंद
ले जाना धीरे से अपनी आँखों तक
फिर खोलना संभलकर उन्हें
देखो कहीं मैं गिर न पड़ूँ
छूना उसे पलकों से
गिनूंगी मैं उन्हें एक-एक कर
हर पलक के बीच होंगे वही सपने
जिन्हें छोड़ गए हो तुम पीछे
थोडा सा झुको
छुओ मुझे, मैं वही एक सपना हूँ।
0000
उफ़
क्या नाम दूँ तुझे ए ज़िंदगी
किस रूप में पहचानूँ तुझको
मेरे देश के गाँव के आँगन में
आँख-मिचौली खेलते हुए
हम दोनों हुए थे जवान
तेरे हर रूप रँगीले दिखते थे
इंद्र्धानुषी यौवन को तूने ही
लोरी गाकर सुलाया
रेशम सा सहलाया
पर मैंने तुझसे धोखा खाया
मेरे पारदर्शी स्वप्न
तेरे हाथ में थीं गरम सलाखें
फिर नहीं खनखनाई मेरी चूड़ियाँ
उदासी का घना जंगल
उग आया था मेरे दुल्हन वाले लिबास पर
पर तूने मेरे मन को नागफनी का काँटा चुभा ही दिया था
बंजारन सी मेरी ज़िंदगानी
कोयले से दहकता यायावर मन
सोचा समुन्द्र पार चलूँ
तो शायद ठंडक मिले
सन्नाटे बोलने लगे
कुछ सुकून है अब
तू तो अब भी साथ है
समुंदरी बयार तुझे भी अच्छी लगी है
फिर भी मैं पहचानने में असमर्थ हूँ
तू क्या है, ए जिंदगी
अब मैं तुझ सी हो चली हूँ।
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शब्द और स्वर की बातचीत
शब्द ने स्वर से
अवतरित होने का रहस्य पूछा
तो स्वर ने कहा
सृष्टि
शब्दों की गुफाएँ
मैं तपस्वी
मैं बारिश की बूंद से आया
शब्दों से लिपट
बादलों से टपका
बिजली में कड़का
हृदय में दहका
चाँदनी की तार में लिपट
तबले की थाप में थिरका
मैं उपवन के उन्माद में हूँ
सुख-दुःख की नाव में हूँ
पर मैं सदैव मग्न हूँ
मैं किसी की यादों में
कैनवास के रंगों में भी
तुम्हारे,
शब्दों के अवसाद में लिपट
शीतल वाणी का छँद
मैं हर शब्द का वो संदेश हूँ
जो तुम्हें ओढ़
दीवाना सा
खिलखिलाता हूँ
इंद्रधनुष
हो जाता हूँ
हँसते हुए
शब्दों ने कहा
चाहे हमें कितना तोड़ लो
मरोड़ लो
द्विअर्थी जामा भी पहना दो
पर
गोली तो तभी चलेगी न
जब दुनाली सही और
बिना ज़ंग लगी होगी।
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