(हेमंत व्यास को इस बार धुलंडी पर बादशाह बनाया गया।)
अपनी मृत्यु से कुछ महीने पहले नंदकिशोर शर्मा पुष्करणा व्यास परिवार में सैकड़ों सालों से चली आ रही बादशाह और शहजादे की परंपरा पर शोध कर रहे थे
मृत्यु से कुछ महीने पहले शर्मा ने इस शोध के बारे में इस रिपोर्टर को बताई थी कुछ गोपनीय बातें- बलूचिस्तान में पुष्करणा व्यास परिवार के वैद्य ने वहां के बादशाह की बेटी को ठीक कर दिया था, उसी से जुड़ी है परंपरा-जानिए पूरी रिपोर्ट
डीके पुरोहित. कैलाश बिस्सा. जैसलमेर
होली, जिसे हम धुलंडी के नाम से भी जानते हैं, भारतीय संस्कृति का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और रंगीन त्योहार हैं। यह न केवल उल्लास और खुशी का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक संबंधों को मजबूत करने और आत्मीयता बढ़ाने का अवसर भी प्रदान करता है। विशेष रूप से पश्चिमी राजस्थान में धुलंडी के रंग अलग ही देखने को मिलते हैं। धुलंडी के दिन लोगों के रंगों से भरे हुए चेहरे, गालों पर गुलाल की छटा और होली के गीतों का माहौल संपूर्ण वातावरण को उल्लासित कर देता है। इसके साथ ही, एक और दिलचस्प परंपरा की शुरुआत होती है— “एक दिन का बादशाह और शहजादा”।
यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है और यह एक मजेदार, उत्सवपूर्ण और सामूहिक प्रतीक के रूप में मनाई जाती है। इस परंपरा के तहत होली के दूसरे दिन एक व्यक्ति को “बादशाह” और एक को “शहजादा” घोषित किया जाता है। यह परंपरा जैसलमेर में पुष्करणा व्यास परिवारों में मनाई जाती है। खासकर सोनार किले में धुलंडी से एक दिन पूर्व तय किया जाता है कि किसको बादशाह बनाना है और किसको शहजादा बनाना है। यह परंपरा कैसे शुरू हुई? इस बारे में जैसलमेर के वयोवृद्ध इतिहासकार नंदकिशोर शर्मा जिनकी हाल ही में कुछ दिनों पहले मृत्यु हो चुकी है, उन्होंने गहन शोध किया था। अपनी मृत्यु से कुछ महीनों पहले वे जैसलमेर के पुष्करणा व्यास परिवार की बादशाह और शहजादा परंपरा पर शोध किताब लिखने जा रहे थे। इसकी पांडुलिपि के बारे में उन्होंने इस रिपोर्टर से विशेष चर्चा की थी। स्व. शर्मा ने बताया था कि जैसलमेर के व्यास परिवारों में चली आ रही बादशाह और शहजादे की परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है। यह परंपरा आजादी से पहले की है। तब बलूचिस्तान में एक बादशाह की बेटी को वहां रहने वाले पुष्करणा व्यास परिवार के एक वैद्य ने अपनी औषधि से ठीक कर दिया था। खुश होकर बादशाह ने तय किया कि उस वैद्य की शादी बादशाह की बेटी से की जाए। पर वैद्य शादीशुदा था और वह भाग कर जैसलमेर आ गया। तब बादशाह ने अपने सैनिक जैसलमेर भेजे। इधर जैसलमेर में वैद्य ने अपने रिश्तेदारों बादशाह के प्रस्ताव के बारे में चर्चा की। तब रिश्तेदारों ने सैनिकों के हाथ बादशाह को संदेशा भेजा कि वैद्य को सोनार किले के सिंहासन पर बिठाकर प्रतीकात्मक बादशाह बना दिया है और उनके दो पुत्रों को बलूचिस्तान के बादशाह की बेटी के पुत्रों के रूप में शहजादे की पदवी दे दी गई है। यह संदेश बलूचिस्तान के बादशाह को उनके सैनिकों ने दिया तो बादशाह संतुष्ट हो गया और वैद्य व्यास परिवार को खूब सा धन दिया। यही नहीं जिस दिन वैद्य व्यास को सिंहासन पर बिठाया गया वो धुलंडी का दिन था तब से जैसलमेर में व्यास पुष्करणा परिवार में धुलंडी पर एक दिन का बादशाह और शहजादा की परंपरा शुरू हुई।
प्रसिद्ध इतिहासकार स्व. नंदकिशोर शर्मा के शोध के बाद यह स्पष्ट हुआ कि यह परंपरा कितनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस आलेख में हम नंदकिशोर शर्मा के शोध पर आधारित इस परंपरा की शुरुआत और इसके इतिहास पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
1. धुलंडी की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता
होली का पर्व केवल एक रंगीन और हर्षोल्लास से भरा दिन नहीं है, बल्कि यह हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारों में से एक है। विशेष रूप से पश्चिमी राजस्थान में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। यह त्योहार प्रेम, भाईचारे, और सामाजिक सामंजस्य का प्रतीक है। होली के दौरान, लोग एक-दूसरे के साथ रंग खेलते हैं, मिठाईयाँ बाँटते हैं और पुरानी नाराजगी को समाप्त करके रिश्तों को सुधारते हैं।होली के दिन का धार्मिक महत्व भी बहुत गहरा है। इसे राक्षस हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका की पराजय से जोड़ा जाता है। इसी दिन भगवान विष्णु ने प्रह्लाद की भक्ति की रक्षा करने के लिए होलिका को भस्म कर दिया था। साथ ही, यह दिन राधा और कृष्ण के प्रेम का प्रतीक भी है, जिसमें कृष्ण ने राधा के साथ रंग खेलकर प्रेम का आदान-प्रदान किया था।
2. “एक दिन का बादशाह और शहजादा” की परंपरा
धुलंडी के दिन एक मजेदार परंपरा है, जो अब एक सांस्कृतिक घटना बन चुकी है— “एक दिन का बादशाह और शहजादा”। इस परंपरा के तहत, होली के दिन एक व्यक्ति को बादशाह और दूसरे व्यक्ति को शहजादा घोषित किया जाता है। यह परंपरा विशेष रूप से जैसलमेर के पुष्करणा व्यास परिवारों में प्रचलित है और यह दर्शाता है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति का आदर और सम्मान किया जाता है।
3. पारंपरिक परिधि और उत्सव
होली के दिन जब धुलंडी खेली जाती है, तब जैसलमेर में यह परंपरा शुरू होती है। एक व्यक्ति को ढेर सारे रंगों के साथ “बादशाह” के रूप में सम्मानित किया जाता है। बादशाह का काम होता है कि वह अपने शहजादे के साथ पूरे इलाके में घूमे और वहां के लोगों से रंग खेले। इसके बाद शहजादा बादशाह को रंग लगा कर उसकी पूजा करता है और सामूहिक रूप से लोग इस खेल का हिस्सा बनते हैं। यह परंपरा पूरी तरह से मस्ती, उल्लास, और समाजिक सौहार्द को बढ़ावा देने वाली है। सोनार किले के सिंहासन पर बादशाह बने व्यक्ति को बिठाया जाता है और उसका तिलक किया जाता है।
4. स्व. नंदकिशोर शर्मा का शोध और परंपरा की उत्पत्ति
स्व. नंदकिशोर शर्मा, जिनका भारतीय इतिहास और संस्कृति पर गहरा शोध था, ने इस परंपरा की उत्पत्ति को लेकर एक विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने अपने शोध में इस परंपरा के ऐतिहासिक संदर्भों का पता लगाया और यह जानने की कोशिश की कि इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई। उनका यह शोध भारत के इतिहास और सांस्कृतिक परंपराओं की गहरी समझ प्रदान करता है।
5. शाही दरबार और होली की परंपरा
स्व. नंदकिशोर शर्मा के अनुसार, “एक दिन का बादशाह और शहजादा” की परंपरा का संबंध पहले के शाही दरबारों से था। बलूचिस्तान के “बादशाह” ने वैद्य को बादशाह के रूप में स्वीकार किया था। तब से हर साल होली पर बादशाह और शहजादा बनाने का प्रचलन शुरू हुआ। तब एक दिन के लिए बादशाह बने व्यक्ति को राजकीय सत्ता का पूरा अधिकार सौंपा जाता था।
6. राजकीय सत्ता का प्रतीक
स्व. नंदकिशोर शर्मा ने अपने शोध में बताया कि यह परंपरा लोकतंत्र और राजतंत्र के बीच के एक खास रिश्ते को दर्शाती थी। जब शाही परिवार एक दिन के लिए किसी को बादशाह बना देता था, तो यह उस समय के राजनीतिक वातावरण का प्रतीक था, जिसमें शाही शासन और जनता के बीच सामूहिकता और परस्पर संबंधों का आदान-प्रदान होता था। एक दिन का बादशाह बनने के बाद, वह व्यक्ति न केवल राजा के रूप में मान्यता प्राप्त करता था, बल्कि उसे सभी तरह की शाही गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार भी मिलता था।
7. सामाजिक सौहार्द और उत्सव का अंग
शर्मा के शोध के अनुसार, यह परंपरा न केवल शाही सत्ता को प्रदर्शित करती थी, बल्कि यह सामाजिक सौहार्द और सामूहिकता का प्रतीक भी बन गई थी। राजा और प्रजा का यह उत्सवपूर्ण मेलजोल दर्शाता था कि होली केवल एक निजी या शाही पर्व नहीं था, बल्कि यह एक सामूहिक उल्लास और आनंद का समय था।
8. परंपरा का वर्तमान स्वरूप
समय के साथ, यह परंपरा छोटे स्तर पर बदल गई, लेकिन इसकी मूल भावना अब भी जीवित है। आजकल, एक दिन के बादशाह और शहजादा की परंपरा पुष्करणा व्यास परिवार के किसी खास व्यक्ति को एक दिन के लिए सम्मानित करने की दिशा में विकसित हो गई है। यह परंपरा अब भी जैसलमेर में मनाई जाती है। होली के दूसरे दिन यानी धुलंडी पर पुष्करणा व्यास परिवार के सदस्य को बादशाह और शहजादा की भूमिका दी जाती है। वे पूरे इलाके में घूमते हैं, रंग खेलते हैं, और लोगों के साथ मिलकर इस खुशी के अवसर को मनाते हैं। स्व. नंदकिशोर शर्मा के शोध के आधार पर यह साफ है कि धुलंडी पर एक दिन का बादशाह और शहजादा बनने की परंपरा शाही दरबारों से उत्पन्न हुई थी और इसके माध्यम से समाज में सामूहिकता, भाईचारे और सौहार्द का संदेश दिया जाता था। यह परंपरा आज भी भारत के कई हिस्सों में जीवित है और इसका स्वरूप अलग-अलग है। कई हिस्सो में इसकी कहानियां अलग-अलग रूप में प्रचलित है। इस परंपरा से यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय संस्कृति में उल्लास और आनंद के साथ-साथ सामाजिक एकता का भी गहरा महत्व है।
हेमंत व्यास बादशाह, मनोज व्यास और नैतिक व्यास बने शहजादे
इस बार धुलंडी पर हेमंत व्यास को बादशाह बनाया गया है। साथ ही रावलजी व्यास के पुत्र मनोज व्यास और नैतिक व्यास को शहजादा बनाया गया है।
