राइजिंग भास्कर कॉलम : दिलीप कुमार पुरोहित
-मीडिया राजनीति और क्राइम के इतर कुछ सोचता नहीं…साइंस, रहस्य-रोमांच, धार्मिक, टेक्नोलॉजी, विकासोन्मुखी और समाजोन्मुखी के साथ साहित्यिक पत्रकारिता आज की जरूरत…प्रायोजित फिल्मी पत्रकारिता से बचने की जरूरत…
-बड़े मीडिया घरानों से उपेक्षित और बाहर हुए पत्रकारों की पीड़ा को समझने की जरूरत, पॉडकास्ट, डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया प्लेटफार्म को सरकार मान्यता दे और शर्तों का सरलीकरण हो…पत्रकारों की सुरक्षा का कानून हर राज्य में पास हो…
-पत्रकारों का राजनीतिक, पुलिस और प्रशासनिक उत्पीड़न रोकने की दिशा में सभी पत्रकार संगठनों को एक मंच पर आने की जरूरत…मानवाधिकार संगठनों के साथ पत्रकार संगठन टाइअप कर पत्रकारों के साथ होने वाले अन्याय पर आवाज बुलंद करें…इन मुद्दों को आईएफडब्ल्यूजे के 131 वें अधिवेशन में शामिल करें...
आज से जोधपुर के माहेश्वरी भवन में इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स का 131वां अधिवेशन शुरू हुआ। उद्घाटन सत्र में जोधपुर के पूर्व नरेश गजसिंह और वरिष्ठ पत्रकार आयशा खानम को सुनना महत्वपूर्ण था। गजसिंह पूरी दुनिया में अपने विकासोन्मुखी और आधुनिक विचारों के लिए एनसाइक्लोपीडिया के रूप मेें जाने जाते हैं। वहीं वरिष्ठ पत्रकार आयशा खानम पत्रकारिता जगत को एक नई दिशा देने और क्रांतिकारी रिपोर्ट के बाद इन दिनों पत्रकार संगठन को बतौर प्रशासनिक अधिकारी के रूप में देख रही हैं और कुछ योजनाओं पर मंथन कर रही हैं। चूंकि यह अधिवेशन आने वाले कल की एक महत्वपूर्ण दिशा तय करने वाला है तो एक चिंतक और पत्रकार के रूप में मैं अपनी बात रखना सामयिक समझता हूं। मुझसे हो सकता है कई लोग परिचित ना हो तो मैं चलते-चलते बता दूं कि मैंने कवि के रूप में कलम पकड़ी थी जब मैं आठवीं में पढ़ता था। नौंवी क्लास में आया तो फ्रीलांस पत्रकारिता करने लगा। लोकल अखबारों में भ्रष्टाचार पर कई खबरें छद्म नाम से छपती रहती थी। 90 के दशक में हिन्दुस्तान का रिपोर्टर बन गया और 22 साल दैनिक भास्कर में सेवाएं दी और राइजिंग भास्कर मेरे सपनों का संसार है। कुछ साथी मुझसे जुड़े हैं जो मुझे सहयोग देते हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी हमारा लिखना समय-समय पर जारी रहा है। आज सुबह से मैं आईएफडब्ल्यूजे के अधिवेशन में बतौर श्रोता मौजूद था। अधिवेशन में चकाचौंध तो बहुत थी और उम्मीद की जानी चाहिए कल चकाचौंध पर विचारों की मृगतृष्णा हावी ना हो जाए। विचार भी मृगतृष्णा हो सकते हैं…हां…मरुस्थल में सम्मेलन हो रहा है…मरुस्थल में अक्सर पानी के भ्रम में हिरन छला जाता है और उसकी मौत हो जाती है…। तो यह सम्मेलन भी मृगतृष्णा का शिकार ना हो जाए इसलिए कल कई मुद्दों पर मंथन होना जरूरी है। हम यह कुछ मुद्दे बता रहे हैं जिन पर अगर सम्मेलन में मंथन होता है तो सम्मेलन की सार्थकता होगी अन्यथा पत्रकार अतिथियों के साथ फोटो खिंचवा कर और जोधपुर के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण कर और मिर्चीबड़ा और कचौरियां खाकर चले जाएंगे और यह सम्मेलन अपने उद्देश्यों पर खरा नहीं उतरेगा। इसलिए मैं चाहता हूं कि कल पत्रकारिता जगत की नई दिशा तय हो…।
1-डिजिटल और सोशल मीडिया को मान्यता मिले, शर्तों का सरलीकरण हो :
अभी सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया को दोयम दर्जे का समझा जाता है। जबकि प्रिंट मीडिया चाहे पाक्षिक हो या मासिक पेपर हो, भले ही दस कॉपी निकलती हो और बाकी पीडीएफ फार्मेट में अखबार ग्रुपों में आ जाता हो, हावी हो चुका है। लोग प्रिंट मीडिया के पीडीएफ वर्जन को डिजिटल मीडिया की मेहनत के बावजूद हेय दृष्टि से देखते हैं। सरकार भी इस दिशा में मौन है। संचार विभागों की अनदेखी लगातार बढ़ रही है। अभी तक डिजिटल मीडिया की मान्यता के मुद्दे की लगातार अनदेखी हो रही है। 90 प्रतिशत डिजिटल प्रकाशन बिना मान्यता के ही चल रहे हैं। जो मान्यता प्राप्त डिजिटल मीडिया आगे बढ़ रही है उनके प्रिंट अखबार भी निकलते हैं, जिनके नाम पर डिजिटल वर्जन चल रहे हैं। कई डिजिटल प्लेटफॉर्म ऐसे है जिनके प्रिंट पेपर नहीं निकलते। ऐसे पत्रकारों की लगातार अनदेखी हो रही है। सरकार की ओर से डिजिटल और सोशल मीडिया को लेकर स्पष्ट नीति नहीं है। मान्यता को लेकर क्या नियम है? क्या शर्तें हैं? किसी को नहीं पता। बस जैसे-तैसे काम चल रहा है। जरूरत इस बात की है कि डिजिटल और सोशल मीडिया को सरकार मान्यता दे और शर्तें भी सरल हो ताकि विचार क्रांति आगे बढ़ सकें।
2-टीआरपी और सर्कुलेशन की चमक से फेक न्यूज को ना तोलें, नियम सबके लिए बराबर हो :
अक्सर सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया पर फेक न्यूज का आरोप लगता है। जबकि टीआरपी और सर्कुलेशन की चमक वाले मीडिया घराने भी फेक न्यूज से परहेज नहीं करते। कई बार खंडन इस बात को पुख्ता करते हैं। लेकिन ऐसे मीडिया घरानों का कुछ नहीं होता। क्यों नहीं फेक न्यूज पर बड़े मीडिया घरानों की मान्यता खत्म की जाए। लेकिन ऐसा नहीं होता। फेक न्यूज का हम समर्थन नहीं कर रहे, लेकिन हम नहीं चाहते कि फेक न्यूज टीआरपी और सर्कुलेशन की चमक से तोली जाए। नियम सबके लिए बराबर होने चाहिए। देश में एक राष्ट्रीय कमेटी होनी चाहिए जो ऐसी न्यूज पर नकेल कसे। कड़े नियम होने चाहिए। नियम कड़े है भी, मगर उसका पालन सख्ती से नहीं होता। नियम सबके लिए बराबर हो। भारत-पाक युद्ध के दौरान एआई जनित पत्रकारिता हुई। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर भी मीडिया घराने कई कदम आगे निकल गए। मगर बड़े मीडिया घरानों को कौन पूछे? ये पूंजीवादी ताकतों का जमाना है? बड़े मीडिया घरानों पर पूंजीवादी ताकतों का पहरा है। ऐसे में देश-देशांतर की दिशा पूंजीवादी ताकतें तय कर रही हैं। सरकारों का बनना बिगड़ना और देश के माहौल को बिगाड़ने में पूंजीवादी मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। है किसी के पास कोई जवाब?
3-पत्रकारिता की दिशा तय करने की जरूरत :
इन दिनों मीडिया को एक दिशा तय करने की जरूरत है। मीडिया राजनीति और क्राइम की खबरों और कंटेंट पर ही जोर दे रहा है। इसके इतर मीडिया सोचता ही नहीं। जबकि मीडिया को साइंस, रहस्य रोमांच, धार्मिक, टेक्नोलॉजी, विकासोन्मुखी और समाजोन्मुखी के साथ साहित्यिक पत्रकारिता पर भी जोर देना चाहिए। राजनीति और क्राइम पर जोर कम देंगे तो राजनीतिक भ्रष्टाचार और क्राइम का चेहरा बदलेगा। लेकिन जितना अधिक इस पर कवरेज होगा, दोनों का ही विकृत चेहरा सामने आएगा। इसके अलावा फिल्मी पत्रकारिता प्रायोजित होती जा रही है। फिल्मों काे फ्लॉप करना और फिल्मों को हिट करने में मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इसके लिए दंगे-फसाद तक प्रायोजित हो रहे हैं और मीडिया आग में घी का काम कर रहा है। ऐसी पत्रकारिता के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन ऐसे मुद्दों पर कोई नहीं बोलता। कोई पत्रकार संगठन भी नहीं बोलता।
4-कोई इनका भी दर्द समझे, पत्रकारों की सुरक्षा अहम मुद्दा :
बड़े मीडिया घरानों से उपेक्षित पत्रकार स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं। राज्य सरकारों से उनके एक्रिडिएशन की व्यवस्था सरकार करे। एक्रिडिएशन के लिए कड़े कानून और शर्तें खत्म हो। मिल-बैठकर नियम बनाने चाहिए। बल्कि पत्रकारों के एक्रिडिएशन का मामला पत्रकार संगठनों के हाथ में हो। लेकिन पत्रकार संगठन आपस में लड़ते रहते हैं और नेतृत्व की लड़ाई में पत्रकारिता पिसती जा रही है। साथ ही पत्रकार सुरक्षा कानून हर राज्य में लागू होना चाहिए। पत्रकारों के साथ राजनीतिक और पुलिस प्रताड़ना होती रहती है। ऐसे में कुछ पत्रकार आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। जरूरत है पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर कड़े कानून की। केंद्र सरकार को बिल लाकर यह कानून हर राज्य के लिए पास करना चाहिए। पत्रकार लोकतंत्र की धुरी है। यह चौथा स्तंभ है। मगर पत्रकार जब घर से निकलता है तो रात को घर में घुसता है परिवार वालों की सांस फूल जाती है कि उनका चिराग चाहे बेटा हो या बेटी सलामत घर आएगा या नहीं। आए दिन पत्रकारों पर हमले होते हैं। जरूरी है पत्रकार संगठन मानवाधिकार आयोगों के साथ टाइअप कर पत्रकार के मुद्दे राष्ट्रीय मंचों पर उठाए। पत्रकार की बीमारी हारी के लिए कोई बड़ी रियायत नहीं है। बड़े मीडिया घराने पत्रकारों का शोषण करते हैं। अभी भी पत्रकारों को एक दिहाड़ी मजदूर से कम वेतन मिलता है। हालात यह है कि तीन दशक से मीडिया हाउस में काम करने वाले पत्रकारों का वेतन 30 हजार तक नहीं हुआ। यह विडंबना है। मगर इन विडंबनाओं पर बोलने वाला कोई नहीं है। अगर आईएफडब्ल्यूजे वाकई पत्रकारों के मुद्दों पर गंभीर है तो देश भर में आवाज उठानी चाहिए और बड़े-बड़े मीडिया घरानों को झुकाना होगा और यह एकता बताकर दिखाना होगा कि अगर मीडिया हाउस पत्रकारों के कल्याण की नहीं सोचेगा तो हम मीडिया हाउस को उनकी औकात दिखाएंगे। लेकिन यह सम्मेलन कहीं जोधपुर के मिर्चीबड़ों के स्वाद में खो न जाए और मिर्ची खाने की बजाय बाहर निकाल कर फेंक ना दी जाए। क्योंकि मिर्ची बहुत तीखी होती है। हमारी बात भी बड़ी तीखी है। ऐसे तीखे मुद्दे अगर अधिवेशन में छाएंगे तभी अधिवेशन की सार्थकता होगी।
