-जिन सैकड़ों लोगों के करोड़ों रुपए संजीवनी और आदर्श सोसायटियां खा गई, उनके मालिकों और जिम्मेदारों के खिलाफ मोर्चा खोलने के बजाय लोकसभा चुनाव में नेताओं को जिताने और उन्हें जयमाला पहनाने में लोग जुटे हैं, कभी कभी तो लगता है कि हम अपने अधिकारों के लिए भी सिस्टम से नहीं लड़ते तो फिर इस शहर को मरे हुए लोगों का शहर न कहें तो क्या कहें?
डी.के. पुरोहित. जोधपुर
मरे हुए लोगों का शहर जोधपुर…यह हैडिंग मुझे अच्छा लग नहीं रहा है। मैंने इस शहर को करीब-करीब 21 साल दिए हैं। मैं भी इसी शहर का हो गया हूं और अपने शहर जैसलमेर को भूल चुका हूं। जब मैं जैसलमेर में हिन्दुस्तान का रिपोर्टर हुआ करता था तब मैंने एक स्टोरी हिन्दुस्तान में की थी- उसका शीर्षक था ऊंघता हुआ शहर जैसलमेर…मैं उस शहर में दस साल पत्रकारिता करता रहा जहां राजनीतिक शून्यता ग्रस्त थी, जहां के लोग सोए हुए थे। आज से ठीक 21 साल पहले 5 फरवरी 2003 को मैंने दैनिक भास्कर जोधपुर में बतौर उप संपादक जॉइन किया। लेकिन आज चाहे पत्रकारिता के लिहाज से चाहे जोधपुर के लोगों की ताकत को तौलता हूं तो एक ही शब्द हृदय से निकलता है और वह है- मरे हुए लोगों का शहर जोधपुर।
जिस शहर के लोगों के करोड़ों रुपए संजीवनी और आदर्श सोसायटी के कपटी मालिक डकार गए। जिन लोगों की जिंदगी भर की मेहनत और खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को गुंडे इस तरह हड़प गए जैसे वह हराम की कमाई हो। मजे की बात यह है कि जिस गजेंद्रसिंह शेखावत को लोग सिर आंखों पर बिठा रहे हैं उस व्यक्ति पर अशोक गहलोत आरोप लगाते रहे हैं कि गजेंद्रसिंह शेखावत का भी इसमें हाथ है। कोर्ट से अब कोई उम्मीद नहीं कर सकते। कोर्ट अगर अपना धर्म निभाता तो आज सैकड़ों लोगों की खून पसीने की कमाई उन्हें वापस मिल जाती। मगर मुझे आश्चर्य होता है उस मुर्दा शहर पर। उन मुर्दा लोगों पर जो आज भी न केवल चुप है, वरन मोदी सरकार के नाम पर अपनी नाकामियों को छुपाने वाले गजेंद्रसिंह शेखावत के गले में जयमाला डालने को बेताब है। दूसरी तरफ बिल्डर करणसिंह उचियारड़ा है जो सीमेंट में राख और धूल मिलाकर बिल्डिंगें बनाता रहा और न जाने किन बेइमानियों से पैसे कमाता रहा और आज राजनीति का सिरमौर बनने को बेताब है। जिस अशोक गहलोत को लोग फकीर समझते हैं और जो अशोक गहलोत खुद को फकीर कहता है उसके रिश्तेदारों के नाम जमीन के नाम अनियमितताओं की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही है। आश्चर्य तो तब होता है जब कोई अखबार जोधपुर की आबोहवा को प्रदूषित बताता है और एम्स रोड का फोटो छापता है जहां पर हवा में धूल के कण फिजां में शामिल है। जबकि जोधपुर की हवा में प्रदूषण उतना नहीं घुला है जितना यहीं की फैक्ट्रियों ने प्रदूषण घोला है। कांग्रेस के लीडर सुनील परिहार की फैक्ट्री वर्षों से हवा में जहर घोल रही है। एम्स जैसा मेडिकल संस्थान जहां पर स्थित है और मरीजों की सेहत के साथ खिलवाड़ हो रहा है। पूरा जोधपुर जानता है कि सुनील परिहार की फैक्ट्री प्रदूषण फैला रही है। मगर न जोधपुर के लोगों में इतना साहस की सच को सच और झूठ को झूठ कह सके और न ही किसी अखबार में यह ताकत की दूध का दूध और पानी का पानी कह सके। शब्द अब अब मरे हुए लोगों पर आंसू तक नहीं बहाते। कोर्ट खुद कब्रिस्तान की भाषा बोल रहे हैं। जिस जोधपुर की अपणायत के किस्से लोग विदेशों में पहुंचा चुके हैं, उस शहर में लूट, हत्या, बलात्कार और फ्रॉड नियती बन चुका है। दरअसल हम जिस समाज में रह रहे हैं, वहां कोई आवाज उठाने की पहल नहीं करता। सच लिखने के लिए कुर्बानी देनी पड़ती है। सुविधाओं का त्याग करना पड़ता है। सच की भाषा बड़ी कड़वी होती है। सत्यम शिवम सुंदरम कभी नहीं होता। सत्य सुंदर हो यह जरूरी नहीं। सच कभी सुंदर हो भी नहीं सकता। मैंने सोचा था अब समय के साथ चलूंगा। वक्त की जैसी हवा चल रही है, उसके साथ चलूंगा। मगर अफसोस मैं चुप नहीं बैठ पाता। इसलिए मुझे फिर लिखना पड़ रहा है। मैं जानता हूं जिस शहर के लिए मै लिख रहा हूं खुद उसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। यहां पूरे सिस्टम में भांग मिली हुई है। पुलिस बिक चुकी है। न्याय पालिका मरी हुई है। राजनीति कपट का लिबास ओढ़े हैं। शिक्षाविद और साहित्यकारों की कलम और वाणी पीवणे सांप की तरह हो गई है। हम जिस व्यवस्था में लिखने बोलने का साहस करते हैं तो अपने खुद के आत्मबल पर। किसी से मदद की उम्मीद नहीं है। कुछ समय पहले एक पुलिस अफसर के मासूम बेटे हृदयांश को करीब 18-20 करोड़ रुपए के इंजेक्शन के लिए मदद की जरूरत थी। पुलिस महकमा जुट गया पैसे एकत्रित करने में। पता नहीं रुपए एकत्रित हुए या नहीं। मैंने एशिया के सबसे बड़े पूंजीपति मुकेश अंबानी और गौतम अडाणी से उम्मीद लगाई कि वे हृदयांश की मदद करेंगे। मगर यहां जिसके पास जितनी दौलत होती है वह उतना ही धूर्त और मक्कार होता है। बिना धूर्त और मक्कार हुए पैसे कमाना आसान नहीं है। राजनीति में हम जिस झंडे के नीचे खड़े होकर नारे लगाते हैं बहुत बाद मे पता चलता है कि वह झंडा भी प्रदूषित था। उस झंडे में भी कपट का कपड़ा लगा था। अब सब कुछ साफ-साफ लिखने का वक्त आ गया है। राजनीति में कल किस की सरकार बनती है। मैं नहीं जानता मोदी आएगा या कोई और। मगर मैंने यह तय कर लिया है कि शब्दों के साथ समझौता नहीं करूंगा। मैंने अपने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मानस पुत्र जरूर कहा है। मगर जब तक मेरे मुताबिक देश और दुनिया में बदलाव नहीं आएगा तब तक मैं लिखता रहूंगा। मेरी कलम कभी समझौते की भाषा नहीं लिखेगी। चाहे मोदी के खिलाफ लिखना पड़े चाहे देश के धनकुबेरों के खिलाफ मोर्चा खोलना पड़े। मैं जिंदगी भर अभावों में जी लूंगा लेकिन दुनिया की पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ शब्दों को हथियार बनाकर नहीं लिखा तो मैं अपनी आत्मा को कभी सही जवाब नहीं दे पाऊंगा। मुझे किसी भी भगवान का डर नहीं है। मुझे मौका मिला तो मैं दुनिया के हर भगवान, अल्लाह और गौड़ के आडंबर को उखाड़ फेंकने और उसका सही इतिहास दुनिया के सामने लाने में संकोच नहीं करूंगा। मेरे साथ एक अज्ञात शक्ति है जो हमेशा मुझे संचालित करती रहती है। वही मुझे लिखाती रहती है। आज भी रात के 3:46 बजे मुझसे लिखा रही है।
तो मैं जोधपुर के बारे में लिख रहा था। यह मेरे हुए लोगों का शहर है। जो चारों तरफ से लूटा जा रहा है फिर भी कोई आवाज नहीं उठाता। यहां गजेंद्रसिंह शेखावत शरीखे लोग सफेदपोश बने घूम रहे हैं। अशोक गहलोत जैसे नेता अपने बेटे की राजनीति चमकाने में लगे हैं, जिसे बोलने के लक्षण नहीं है। जिसके पास अपना कोई विजन नहीं है। अशोक गहलोत में जरा भी शर्म होती तो कोई योग्य आदमी को जालौर से टिकट देते। यहां सभी कुओं में भांग मिल चुकी है। इस समय देश में भाजपा चुनाव नहीं लड़ रही। कोई उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ रहे। बस एक ही शख्स चुनाव लड़ रहा है और वह है नरेंद्र मोदी। गजेंद्रसिंह शेखावत अगर चुनाव जीत जाते हैं तो वे शेखावत की जीत न होकर मोदी की जीत होगी। मगर अफसोस इस बात का है कि जिस पैसों के लुटने के बाद भी जोधपुर के मोदी भक्त जय शेखावत कर रहे हैं, उनका परमात्मा भी कुछ नहीं कर सकता। यहां अपने हक के लिए भी लोग नहीं लड़ते। कभी कभी लगता है कि जिन लोगों के पैसे संजीवनी और आदर्श सोसायटियां खा गई है, वे मेहनत के थे ही नहीं। अगर मेहनत के थे तो उन पैसों को वापस पाने के लिए अब तक आंदोलन क्यों नहीं हुए। प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री और पुलिस और कोर्ट के रहनुमाओं तक आंदोलन की आंच क्यों नहीं पहुंची। इस मुद्दे पर ऐसा आंदोलन खड़ा हो जाना चाहिए था जो न्याय पालिका को मजबूर कर देता कि वे खून पसीने के पैसे वापस दिलाए। मगर यहां तो मरे हुए लोगों के शहर में लिखना भी कोई असर नहीं डाल पाएगा। जोधपुर के लोगों ने समझौते के साथ जीना सीख लिया है। सच के लिए आवाज उठाने वाले अब कहीं नजर नहीं आ रहे। ऐसे में लिखने का खतरा उठाना आसान नहीं है। चुनाव का समय है। अच्छा और उचित मौका तो यही है कि पीड़ित जो सैकड़ों की संख्या में है। सभी गैर राजनीतिक संगठन के बैनर तले आंदोलन खड़ा करे और अपने पैसों को वापस पाने के लिए ईंट से ईंट बजा दे पूरे सिस्टम की। अभी चुनाव की आबोहवा में उनकी आवाज खासा महत्व रखेगी। चुनाव के बाद कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। मगर मैं भी किससे कह रहा हूं, यह तो शहर ही मेरे हुए लोगों का है। अपने हक के लिए भी जो न जागे तो फिर काहे का पढ़े लिखे लोगों का शहर।
