29 अगस्त विहिप के स्थापना दिवस पर विशेष रिपोर्ट
अरुण माथुर. जोधपुर
विश्व हिंदू परिषद (VHP) की स्थापना 29 अगस्त 1964 को श्री कृष्ण जन्माष्टमी के शुभ पर्व पर भारत की संत शक्ति के आशीर्वाद के साथ हुई थी। विहिप का उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित करना, हिंदू धर्म की रक्षा करना, और समाज की सेवा करना है। भारत के लाखों गांवों और कस्बों में विहिप को एक मजबूत, प्रभावी, स्थायी, और लगातार बढ़ते हुवे संगठन के रूप में देखा जा रहा है। दुनिया भर में हिंदू गतिविधियों में वृद्धि के साथ, एक मजबूत और आत्मविश्वासी हिंदू संगठन धीरे-धीरे आकार ले रहा है।स्स्वास्थ्य-शिक्षा,आत्म-सशक्तिकरण, आदि के क्षेत्रो में 4277 से अधिक सेवा परियोजनाओं के माध्यम से विहिप हिंदू समाज की जड़ों को मजबूत कर रहा है।
विश्व हिन्दू परिषद् के बढते चरण विहिप हिंदू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन के निरंतर प्रयासों के माध्यम से, समाज को विमुक्त, और अंतर्निहित हिंदू एकता को पुनर्जाग्रत करने के लिए समाज का कायाकल्प कर रही है. विहिप अपने मूल मूल्यों, विश्वासों और पवित्र परंपराओं की रक्षा के लिए श्री रामजन्मभूमि, श्री अमरनाथ यात्रा, श्री रामसेतु, श्री गंगा रक्षा, गौ रक्षा, हिंदू मठ-मंदिर मुद्दा, ईसाई चर्च द्वारा हिंदुओं का धर्मांतरण, इस्लामी आतंकवाद, बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठ ,जैसे मुद्दों को उठाकर हिंदू समाज की अदम्य शक्ति के रूप में स्वयं को स्थापित कर रही है. विश्व हिन्दू परिषद एक हिन्दुत्व विचारधारा से प्रेरित संगठन है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का एक अनुषांगिक संगठन है।[4] विश्व हिन्दू परिषद को वीएचपी और विहिप के नाम से भी जाना जाता है।
विहिप का चिन्ह बरगद का पेड़ है यानी वट वृक्ष है और इसका ध्येय वाक्य, “धर्मो रक्षति रक्षित:” यानी जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।[5][6] यहाँ धर्म का मूल अर्थ किसी व्यक्ति कि आत्मा के मूल कर्तव्य से है ना कि किसी धर्म विशेष से है l विश्व हिन्दू परिषद भारत तथा विदेश में रह रहे हिंदुओं की एक सामाजिक, सांस्कृतिक संस्था है, सेवा इसका प्रधान गुण है। इसकी स्थापना हिन्दुओं के धर्माचार्यों और संतों के आशीर्वाद तथा विश्व विख्यात दार्शनिकों और विचारकों के परामर्श से हुई है। एक हजार वर्ष के निरन्तर संघर्ष से प्राप्त स्वातंत्र के पश्चात् यह इच्छा स्वाभाविक थी कि भारत अपनी वैश्विक भूमिका निर्धारित करे। हिन्दू धर्माचार्य यह अनुभव कर रहे थे कि हिन्दू राष्ट्र के रूप में भारत विश्व के समस्त हिन्दुओं के आस्था केन्द्र के रूप में स्थापित हो और विश्व कल्याण के अपने प्रकृति प्रदत्त दायित्व का निर्वाह करे। इस उदात्त लक्ष्य की पूर्ति के लिए पूज्य स्वामी चिन्मयानंद जी (चिन्मय मिशन के संस्थापक) की अध्यक्षता में उन्हीं के मुम्बई स्थित आश्रम ‘‘सांदीपनी साधनालय’’ में आयोजित बैठक में मास्टर तारा सिंह, ज्ञानी भूपेन्द्र सिंह (अध्यक्ष-शिरोमणि अकाली दल), डॉ0 के. एम. मुंशी, श्रीगुरु जी (तत्कालीन सरसंघचालक-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), स्वामी शंकरानंद सरस्वती, राष्ट्र सन्त तुकड़ो जी महाराज, वी. जी. देशपांडे (तत्कालीन महामंत्री-हिन्दू महासभा) बैरिस्टर एच.जी. आडवाणी, पद्मश्री के. का. शास्त्री, श्रीपाद् शास्त्री किंजवड़ेकर, डाॅ0 वी. ए. वणीकर, प्रिंसीपल महाजन, के. जे. सोमय्या, राजपाल पुरी, श्री सूद एवं श्री पोद्दार (नैरोबी), श्रीराम कृपलानी (त्रिनिदाद), धर्मश्री मूलराज खटाऊ, डॉ0 नरसिंहाचारी आदि 40 से भी अधिक सन्तों एवं विचारकों ने चिन्तन किया। इस अवसर पर मास्टर तारा सिंह ने स्पष्ट कहा कि हिन्दू और सिख दो अलग जातियां नहीं हैं। सिखों का उत्थान तभी संभव है, जब तक हिन्दू धर्म जीवित है।
संस्था के नाम ‘‘विश्व हिन्दू परिषद’’ की घोषणा भी इन्हीं श्रेष्ठजनों ने विक्रमी संवत 2021, 29 अगस्त, 1964 ई0 श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन) को की। स्थापना की पृष्ठभूमि हिन्दू समाज हजार वर्ष के परतंत्रता काल में अपना स्वत्व, स्वाभिमान, गौरव और महत्व भूल गया। उसने उन सब महान विशेषताओं को अन्धकार में विलीन कर दिया, जिनके बल पर वह विश्वगुरु था।
इसी बीच ईसाई पादरियों द्वारा विदेशी डाॅलर के बल पर म0प्र0 में अशिक्षित, निर्धन और सामाजिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के धर्मान्तरण के समाचार मिल रहे थे। इस समस्या की वास्तविकता जानने के लिए नियुक्त नियोगी कमीशन की रिपोर्ट 1957 में प्रकाशित होते ही देश में हडकंप मच गया। विदेशों में बसे हिन्दुओं की संस्कृति और संस्कारों के संरक्षण की चिंता भी अनेक श्रेष्ठजनों को सता रही थी। त्रिनिदाद से भारत आये एक सांसद डा0 कपिलदेव ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गोलवलकर (श्रीगुरु जी) से भेंट करके उन्हें कैराबियाई द्वीप समूह में रह रहे हिन्दुओं पर मंडराते खतरे की बात कही और विदेशस्थ हिन्दुओं से संपर्क स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया। इन्हीं परिस्थितियों में यह अनुभव किया जाने लगा था कि हिंदू समाज के बीच काम करने वाला एक संगठन खड़ा किया जाए। स्वामी चिन्मयानंद जी के मन में भी हिंदुओं के एक विश्वव्यापी संगठन बनाने की इच्छा पनप रही थी। इसी मंथन का परिणाम है विश्व हिन्दू परिषद।
