दो गजलें : डॉ. साजिद निसार ‘साजिद’
एक
कई अक़ीदों का गुलशन है ये वतन अपना
लहू है एक बहाने से कुछ नहीं होगा
जहां बहे हैं दरिया सदा मौहब्बत के
सुकूं वहां का मिटाने से कुछ नहीं होगा
कुछ ऐसी बात करो सुन के जिसे मसर्रत हो
ज़हर के तीर चलाने से कुछ नहीं होगा
जला सको तो जला दो दिलों की नफ़रत को
शहर के शहर जलाने से कुछ नहीं होगा
जो दिल से चाहो तो माहौल बदल ये सकते हो
इधर उधर के बहाने से कुछ नहीं होगा
ग़लत जो लोग हैं उनको ग़लत भी कह डालो
सरों पे उनको बैठाने से कुछ नहीं होगा
करो कुछ ऐसा “साजिद”कि तुम दिलों में रहो
यूं अपनी हस्ती मिटाने से कुछ नहीं होगा
दो
वो मंज़र वो ज़माना क्यूँ मुझे अब याद आता है
हया से सर झुका कर मुस्कुराना याद आता है
किसी भटके हुए राही को तन्हा देख कर मुझको
न जाने क्यूँ मुझे अपना फ़साना याद आता है
मैं जब भी देखता हूं आईने में कभी सूरत
कोई क़िस्सा अचानक क्यूँ पुराना याद आता है
तबाही अब कहीं जाकर मेरी ये रंग लाई है
किसी को अब मेरा हंसना हंसाना याद आता है
सुना है उनकी आंखों से बहे हैं अश्क के दरया
वो पलकों पे छुपा तेरा ख़ज़ाना याद आता है
ख़ुदा जाने कहाँ ले जाएगी ये दीवानगी मुझको
वो सड़कों पे भटकता इक दीवाना याद आता है
नहीं करता है कोई क़द्र इन बातों की अब “साजिद”
तू कहना छोड़ दे गुज़रा ज़माना याद आता है
