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दुनिया के महान जैन धर्म से जुड़े चातुर्मास के स्वर-व्यंजन

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(फाइल फोटो)

जैन समाज के चातुर्मास की तैयारियां चल रही हैं। जैन समाज में चातुर्मास का बड़ा महत्व है। चार महीने तक संत-साध्वियां एक जगह बैठकर शहरवासियाें को अपनी ज्ञान की गंगा से पवित्र करते हैं। जीवन का सार क्या हे? हम दुनिया में क्यों आए हैं? परिवार में किस तरह रहें कि शांति का वास बना रहे। हमारा नैतिक और सार्वजनिक चरित्र कैसा होना चाहिए? …ऐसे कई सवाल हैं जो हमारी दैनिक जिंदगी से जुड़े हुए हैं। आगामी दिनाें में जैन संतों और साध्वियों के चातुर्मास स्थल तय होने जा रहे हं। प्रतिदिन ज्ञान की गंगा बहेगी। ऐसे में आइए हम भी कुछ बिंदुओं पर विचार करते हैं जो हमारे जीवन की दिशा बदल सकते हैं। ये वे बिंदु हैं जिन्हें जैन समाज के चातुर्मास के स्वर एवं व्यंजन का नाम दिया जा सकता है।

डी.के. पुरोहित. जोधपुर

1-अ : अहिंसा

जैन धर्म में अहिंसा एक मूलभूत सिद्धांत है जो अपनी नैतिकता और सिद्धांत की आधारशिला का गठन करता हैं। शब्द अहिंसा का अर्थ है हिंसा का अभाव, या अन्य जीवों को नुकसान पहुंचाने की इच्छा का अभाव। शाकाहार और जैनों की अन्य अहिंसक प्रथाएं और अनुष्ठान अहिंसा के सिद्धांत से प्रवाहित होते हैं।

2-आ : आत्मवाद

-अपनी आत्मा में ही सांसारिक दृश्यों (संसार का दर्शन) को देखना या फिर अपनी अंतरात्मा को ही संपूर्ण संसार के रूप में देखना ‘आत्मवाद’ है। यहां पर व्यक्ति बाहरी संसार से ज्यादा अपनी आत्मा (स्वयं की दृष्टि या विचार) को महत्व देता है। उसके लिए खुद की अनुभूति ही सर्वप्रमुख है।

3-इ : इक्षु रस

आदि मुनिराज को देखकर उन्होंने आहार दान की प्रक्रिया शुरू कर दी और सबसे पहले मुनिराज को इक्षुरस यानी कि गन्ने के रस से आहार कराया और इसी तरह राजा श्रेयांस और राजा सोम के घर सबसे पहले तीर्थंकर मुनिराज के आहार हुए। जैन धर्म में अक्षय तृतीया के दिन लोग आहार दान, ज्ञान दान, औषधि दान या फिर मंदिरों में बहुत दान करते हैं।

4-ई : ईर्या समिति

ईर्या समिति निरीक्षण के साथ गमन अर्थात्‌ देख देखकर चलना। जैनमतानुसार सूर्योदय के पश्चात्‌ लोगों के आवागमन से मार्ग मर्दित होने पर जैन मुनियों के लिए साढ़े तीन हाथ आगे देखकर चलने का नियम है। 

5-उ : उपवास

-जैन उपवास विभिन्न जैन व्रतों में एक है। मोटे तौर पर यह भी अन्य धर्मों की तरह भोजन के त्याग पर आधारित है, परंतु इसमें किसी भी तरह का फरियाली, फल या फलारस भी निषेध होता है। विशेष परिस्थतियों में या भिन्न-भिन्न मान्यताओं में सिर्फ उबाल कर थारा हुआ या धोवन पानी सूर्योदय के बाद से सूर्यास्त पूर्व तक लिया जा सकता है।

6-ऊ : ऊर्ध्व गति

-ऊर्ध्वगमन स्वभाव का उदाहरण-जैसे वायु के न होने पर दीपक की लौ ऊपर को ही जाती है, वैसे ही मुक्त जीव भी अनेक गतियों में ले जाने वाले कर्मों के अभाव में ऊपर को ही जाता है, क्योंकि जैसे अग्नि का स्वभाव ऊपर-ऊपर को जाने का है, वैसे ही जीव का स्वभाव भी ऊर्ध्वगमन ही है।

7-ए : एषणा समिति 

42 दोष टालकर भिक्षा आदि लेने की सम्यक् (निर्दोष) प्रवृत्ति को एषणा समिति कहते हैं। इसके तीन भेद – 1. गवेषणैषणा 2. ग्रहगैषणा 3. परिभोगैषणा। है। 1. गवेषणेषणा – आहार आदि ग्रहण करने के पहले शुद्धि -अशुद्धि की खोज करना गवेषणेषणा है। 2. ग्रहणेषणा – आहारादि ग्रहण करते समय शुद्धि -अशुद्धि का ध्यान रखना ग्रहणेषणा है। 3. परिभोगैषणा – आहारादि भोगते समय शुद्धि – अशुद्धि का उपयोग रखना परिभोगेषणा है।

8-ऐ : ऐरावतकूट

-जंबूद्वीप के विदेह आदि क्षेत्रों में सातवां क्षेत्र। यह कर्मभूमि जंबूद्वीप की उत्तर दिशा में शिखरी कुलाचल और लवणसमुद्र के बीच में स्थित है। सौधर्मेंद्र का हाथी। यह श्वेत, अष्टदंतधारी, आकाशगामी और महाशक्तिशालीहै। इसके बत्तीस मुंह है, प्रत्येक मुंह में आठ दांत, प्रत्येक दांत पर एक सरोवर, प्रत्येक सरोवर में एक कमलिनी, प्रत्येक कमलिनी में बत्तीस कमल, प्रत्येक कमल में बत्तीस दल और प्रत्येक दल पर अप्सरा नृत्य करती है। सौधर्मेंद्र इसी हाथी पर जिन शिशु को बिठाकर अभिषेकार्थ मेरु पर ले जाताहै।

9-ओ : ओघालोचना

आलोचकों का कहना है कि जैन ज्ञानमीमांसा अपने स्वयं के सिद्धांतों पर जोर देती है, लेकिन विरोधाभासी सिद्धांतों को नकारने में असमर्थ हैं और इसलिए आत्म-पराजय है। यह तर्क दिया जाता है कि यदि वास्तविकता इतनी जटिल है कि कोई एक सिद्धांत पर्याप्त रूप से इसका वर्णन नहीं कर सकता है तो स्वयं अनेकांतवाद, एक सिद्धांत होने के नाते, अपर्याप्त होना चाहिए।

10-औ : औत्सर्गिकी निवृत्ति

पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है। आहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। अभयदान से उस भव का दु:ख छूटता है, अत: पात्र को संतोष होता है। ज्ञानदान तो अनेक सहस्र भवों के दु:ख से छुटकारा दिलाने वाला है। ये तीनों दान यथाविधि दिए गए त्याग कहलाते हैं। इसे ही औत्सगिंगी निवृत्ति कहते हैं।

11-अं : अंतराय कर्म

अंतराय कर्म- अंतराय यानी बाधा, रुकावट अर्थात् जो कर्म जीव की दान, लाभ, भोग-उपभोग आत्मशक्ति गुण को पूर्णत: प्रकट नहीं होने देते। प्रकट होने में बाधा डाले वह अंतराय कर्म है। इस कर्म के कारण आत्मा का अनंत बल और शक्ति कुछ ही अंशों में प्रकट होता है।

12-अ: : अ: जैन धर्म का अहसास

जैन धर्म में अ: शब्द से कोई शब्द नजर नहीं आया। मगर मनीषियों का कहना है कि जहां शब्द खत्म हो जाते हैं वहां साधना शुरू हो जाती है। सुरों के इस शब्द की साधना में आनंद की अनुभूति है। 24 तीर्थंकरों ने अपने लिए कुछ भी संचय नहीं किया और मानव मात्र के कल्याण के लिए अपना जीवन ही समर्पित कर दिया है।

13-ऋ : ऋषभदेव

भगवान ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर का अर्थ होता है जो तीर्थ की रचना करें। जो संसार सागर (जन्म मरण के चक्र) से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं।

14-क : कैवल्य ज्ञान

कैवल्य ज्ञान अर्थात् “ब्रह्म-विद्या का वह ज्ञान जो शंशय-रहित और स्थायी हो। या “विवेक उत्पन्न होने पर औपाधिक दु:ख-सुखादि-अहंकार, प्रारब्ध, कर्म और संस्कार के लोप हो जाने से आत्मा के चितस्वरूप होकर आवागमन से मुक्त हो जाने की स्थिति को ‘कैवल्य’ कहते हैं। :

15-ख : खरतरगच्छ :

खरतरगच्छ जैन संप्रदाय का एक पंथ है। इस गच्छ की उपलब्ध पट्टावली के अनुसार महावीर के प्रथम शिष्य गौतम हुए। जिनेश्वर सूरि रचित कथाकोषप्रकरण की प्रस्तावना में इस गच्छ के संबंध में बताया गया है कि जिनेश्वर सूरि के एक प्रशिष्य जिनबल्लभ सूरि नामक आचार्य थे।

16-ग : गणधर

गणधर जैन दर्शन में प्रचलित एक उपाधि है। जो अनुत्तर, ज्ञान और दर्शन आदि धर्म के गण को धारण करता है वह गणधर कहा जाता है। इसको तीर्थंकर के शिष्यों के अर्थ में ही विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है। गणधर को द्वादश अंगों में पारंगत होना आवश्यक है।

17-घ : घातिकर्म

जो आत्मा के गुणों का घात करते हैं, वे घातिया कर्म कहलाते हैं और जो आत्मा के गुणों का घात करने में असमर्थ हैं वे अघातिया कर्म हैं। ये घातिया कर्म सर्वथा अप्रशस्त-पापरूप ही हैं। अघातिया कर्मों में पुण्य और पाप ऐसे दो भेद हो जाते हैं।

18-ड़ : ड़र पर विजय

धर्म का सिद्धांत है- अपने को पूर्ण स्वाधीन रखना, अनैतिक कार्य न करना, किसी जीव को दुख न देना, हिंसा न करना, प्राणीमात्र को अपने समान समझना, क्रोध न करना, सहनशील बनना, परनारी पर कुदृष्टि न डालना, संकट आ जाने पर धीरज धारण किए रहना, द्वेष न रखना और अभिमान न रखना आदि-आदि। उपर्युक्त बातें सभी धर्मो के सिद्धांत हैं। यानी ये सभी बातें डर पर विजय को अभिलक्षित करते हैं।

19-च : चक्रवर्ती

जैन धर्म में चक्रवर्तियो की संख्या 12 होती है, संपूर्ण पृथ्वी के राजा होते हैं, जैन मान्यतानुसार धरती के 6 खंड होते हैं, और यह 6 खंड के मालिक होते हैं, इस कालखंड में प्रथम चक्रवर्ती भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती थे। जैन मान्यता अनुसार कोई विशिष्ट पुण्य आत्मा ही चक्रवर्ती का पद धारण करती है।

20-छ : छ्यात्या

जैन धर्म के तीर्थंकर ने किसी न किसी वृक्ष के नीचे ही बैठ कर ज्ञान प्राप्त किया था। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को वट वृक्ष के नीचे तो 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को साल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ। इसी तरह बीच के 22 तीर्थंकरों को अलग-अलग वृक्षों के नीचे ज्ञान मिला। जिन वृक्षों के नीचे इन महापुरुषों ने बैठ ज्ञान प्राप्त किया, उन्हें केवली वृक्ष कहा गया। बोर्ड में इन केवली वृक्षों का जिक्र किया गया। इसमें जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों व उनके आगे केवली वृक्ष अंकित किए गए। साथ ही वैज्ञानिक नाम भी दर्शाए हैं।

21-ज : जैन मंदिर 

मंदिर में श्रीजी का अभिषेक किया जाता है। अभिषेक के लिए पुरुष वर्ग द्वारा सफेद और केसरिया रंग की धोती पहनी जाती है। बगैर सिले सोहले के वस्त्र पहनकर जाना होता है। मंदिर में पूजन-पाठ की किताबों का वाचन तथा अष्टद्रव्य से पूजन किया जाता है। श्रीजी के अभिषेक के जल को गंदोदक कहते हैं। प्रतिदिन मंदिर जाना जरूरी है। मंदिर में जाने और व्रत-पूजा करने के नियम हैं।

22-झ : झूठ

सत्य ही जीवन का आधार है। जो व्यक्ति सत्य के मार्ग पर चलता है, वह हमेशा आगे बढ़ता है। सत्य मार्ग पर चलने पर कुछ कठिनाइयां तो आती हैं, लेकिन वह कठिनाइयां सहज ही दूर हो जाती हैं, इसलिए प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है कि सत्य धर्म का पालन करें। हमें जीवन में हमेशा सत्य बोलना चाहिए, कभी झूठ नहीं बोलें, क्योंकि एक बार झूठ बोलने पर बार-बार झूठ बोलना पड़ता है। सत्य धर्म के मार्ग पर चलकर ही अनेक साधु-संतों ने भगवान को प्राप्त किया।

23-ञ : खाली

उपरोक्त शब्द पर खूब मंथन किया, मगर जानकारी नहीं मिली। जैन धर्म का संदेश नाम प्रधान नहीं कर्म प्रधान है। इसलिए इस शब्द की हम ज्यादा व्याख्या नहीं कर पाएंगे।

24-ट : टीका

आज के लोगों को पूछेंगे तो टीके का अर्थ वैक्सीन को बताएंगे। लेकिन जैन धर्म और प्राचीन संस्कृत साहित्य में पुस्तकों में टीका लिखने से संबंधित अर्थ रखता है। वैसे शादी और सगाई में शगुन की राशि को भी टीका कहते हैं।

25-ठ : ठाठ

जैन धर्म त्याग की भावना पर आधारित है। राजा महाराजाओं ने अपनी सत्ताओं का त्याग कर तीर्थंकर बन गए। ठाठ का आशय धन-धौलत ही नहीं होती। अपनी आत्मा से से हजार गुणा अधिक उठना ही ठाठ है। जो ठाठ हमारे ऋषि मुनियों को प्राप्त हुए हैं, उनका एक अंश भी हम ग्रहण कर लें ताे संसार से सारे दुख खत्म हो जाएं।

26-ड : डेरावासी :

जीवन है चलने का नाम, चलते रहो सुबह शाम। जैन साधकों का जीवन इतना आसान नहीं है। हर रोज उनका सामना कष्टों से होता है। जो साधक जितना कष्ट उठाता है, वह संसार को संभालने का उतना ही अधिक भार सहने की शक्ति रखता है। संसार में जैन धर्म अपनी कठोर साधना के लिए जाना जाता है।

27-ढ : ढढ़िया

जैन धर्म ढढिया को आत्मसात किए हुए हैं। ढढिया का दर्शन ही बढ़िया है। हमारे जैन मनीषियों ने साधना में समय लगाया और आज आसमां के अनंत भाल पर अटल तिलक लगाकर दिया। जैन धर्म अनेक कष्टों को उठाने के बाद सिद्धियों का हकदार होता है। हमारा संसार के सभी जैन मुनियांें को नमन हैं।

28-ण : णमोकार साधना

णमोकार मंत्र 18 हजार 432 प्रकार से बोल सकते है। इस मंत्र का सबसे छोटा रूप ओम है। जिसमें पांचों परमेष्ठी गर्भित है। णमोकार मंत्र में कुल 58 मात्राएं, 35 अक्षर, 34 स्वर, 30 व्यंजन और 5 पद हैं। आठ करोड़ आठ लाख आठ हजार आठ सौ आठ बार लगातार णमोकार मंत्र का जाप करने से शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है और लगातार सात लाख जाप से कष्टों का नाश होता है। 

29-त : त्रिशला

महारानी त्रिशला ने अपने सोलह स्वप्न में फलों का वर्णन महाराजा सिद्धार्थ से प्राप्त किया। राजा सिद्धार्थ स्वप्न-फल बताकर शांत ही हुए थे कि उनके सामने कुछ दिव्य पुरुष प्रकट हुए। उनमें से एक ने अपना परिचय देते हुए कहा- ‘हे राजन! मैं देवराज इन्द्र अपने साथियों सहित आपको व महारानी को नमन करता हूं। आप धन्य हैं, आपको तीनों लोकों के स्वामी का माता-पिता बनने का सौभाग्य मिला है। आपके यहां उत्पन्न होने वाला जीव- अंतिम तीर्थंकर महावीर के रूप में प्रसिद्ध होगा और पापियों का कल्याण करके स्वयं मोक्ष को प्राप्त करेगा।

30-थ : थलचर

84 लाख योनियां अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग बताई गई हैं, लेकिन हैं सभी एक ही। अनेक आचार्यों ने इन 84 लाख योनियों को 2 भागों में बांटा है। पहला योनिज तथा दूसरा आयोनिज अर्थात 2 जीवों के संयोग से उत्पन्न प्राणी योनिज कहे गए और जो अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होते हैं उन्हें आयोनिज कहा गया। इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को 3 भागों में बांटा गया है- 1. जलचर : जल में रहने वाले सभी प्राणी। 2. थलचर : पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी। 3. नभचर : आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।

31-द : दसलक्षण

-जैनियों का दशलक्षण पर्व एक तरह का क्षमापना पर्व हाेता है। इसे दिगंभर साधु मनाते हैं। इन दस दिनों के दौरान कई सांस्कृतिक सामाजिक कार्यक्रम होते हैं और साधक जाने-अनजाने में हुई भूलों के लिए क्षमायाचना करते हैं। जैन धर्म की यह परंपरा बड़ी अनूठी है। संसार में इसके उदाहरण कम ही मिलते हैं।   

32-ध : ध्यान

जैन धर्म में ध्यान पर विशेष जोर दिया गया है। ज्ञान की प्राप्ति तो गुरु की कृपा से होती है। मगर यदि गुरु मंत्र दे दे और उसका साधक नियत ध्यान करें तो शिष्य का कल्याण हो जाता है।

33-नश्वर

जैन धर्म में कहा गया है कि शरीर मरता है। आत्मा नश्वर है। आत्मा कभी नहीं मरती। आत्मा अजर-अमर है। आत्मा को जानना ही खुद को जानना है। जो व्यक्ति खुद को जान लेता है, वह कभी दुखी नहीं होता। जैन तीर्थंकर कहते हैं कि आत्मा को जानने वाला बनो। यानी खुद से खुद का साक्षात्कार करो। यही जीवन का मूल है।

34-प : पावापुरी

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी हर्यक वंश के समकालीन थे। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म 599 ईसा पूर्व में वैशाली गणराज्य के कुंडाग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था, जो इक्ष्वाकु वंश के एक क्षत्रिय राजा थे। माता का नाम त्रिशला था। हालांकि, इतिहासकार जैन धर्म के समय पर भिन्न हैं। जैन धर्म के शास्त्र बताते हैं कि जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हैं। इनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हैं। हर्यक वंश का समकालीन होने के कारण बिहार में जैन धर्म के अनेक पवित्र स्थान हैं। अगर आप जैन धर्म के तीर्थंकर के दर्शन करना चाहते हैं और उनका आशीर्वाद लेना चाहते हैं, तो बिहार में इन जगहों को जरूर देखें।

35-फ : फल रस

जैन धर्म में फलाें के रस का बड़ा महत्व है। जैन साधु-संत भी फलाें के रस का उपयोग अधिक करते हैं। रस पचता भी जल्दी है और साधना की राह में सफल बनाता है। फलांें से ही तीर्थंकरांें का अभिषेक किया जाताहै।

36-ब : बंध

देखने को दृष्टा या साक्षी ध्यान कहते हैं। ऐसे लाखों लोग हैं जो देखकर ही सिद्धि तथा मोक्ष के मार्ग चले गए। इसे दृष्टा भाव या साक्षी भाव में ठहरना कहते हैं। आप देखते जरूर हैं, लेकिन वर्तमान में नहीं देख पाते हैं। आपके ढेर सारे विचार, तनाव और कल्पना आपको वर्तमान से काटकर रखते हैं। बोधपूर्वक अर्थात होशपूर्वक वर्तमान को देखना और समझना (सोचना नहीं) ही साक्षी या दृष्टा ध्यान है।

  1. सुनना :सुनने को श्रवण ध्यान। सुनकर श्रवण बनने वाले बहुत है। कहते हैं कि सुनकर ही सुन्नत नसीब हुई। सुनना बहुत कठीन है। सुने ध्यान पूर्वक पास और दूर से आने वाली आवाजें। आंख और कान बंदकर सुने भीतर से उत्पन्न होने वाली आवाजें। जब यह सुनना गहरा होता जाता है तब धीरे-धीरे सुनाई देने लगता है- नाद। अर्थात ॐ का स्वर।
  2. श्वास पर ध्यान :श्वास लेने को प्राणायाम ध्यान। बंद आंखों से भीतर और बाहर गहरी सांस लें, बलपूर्वक दबाब डाले बिना यथासंभव गहरी सांस लें, आती-जाती सांस के प्रति होशपूर्ण और सजग रहें। बस यही प्राणायाम ध्यान की सरलतम और प्राथमिक विधि है।

 

  1. भृकुटी ध्यान :आंखें बंद कर सोच पर ध्यान देने को भृकुटी ध्यान कह सकते हैं। आंखें बंद करके दोनों भोओं के बीच स्थित भृकुटी पर ध्यान लगाकर पूर्णत: बाहर और भीतर से मौन रहकर भीतरी शांति का अनुभव करना। होशपूर्वक अंधकार को देखते रहना ही भृकुटी ध्यान है। कुछ दिनों बाद इसी अंधकार में से ज्योति का प्रकटन होता है। पहले काली, फिर पीली और बाद में सफेद होती हुई नीली। उक्त चार तरह के ध्यान के हजारों उप प्रकार हो सकते हैं। उक्त चारों तरह का ध्यान आप लेटकर, बैठकर, खड़े रहकर और चलते-चलते भी कर सकते हैं।

 

37-भव  

जैन धर्म में भव से आशय अलग-अलग जन्म से है। हिंदू धर्म में कहा गया है कि मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार अलग-अलग योनियों में जन्म मिलता है। इसी तरह जैन धर्म में भी कर्मों के मुताबिक भव मिलती है।

38-म : मल्लिनाथ

मूल नायक मल्लीनाथ भगवान को जैन धर्म के लोग श्रद्धापूर्वक पूजते हैं। मल्लिनाथ को लड्‌डुओं का भोग लगाया जाता है। मल्लिनाथ ने जैन धर्म को नई दिशा दी। उन्होंने जीवन के मर्म को बताया और आत्मा को अजय-अमर बताते हुए कहा कि आत्मा को जानकर ही परमात्मा बना जा सकता है। 

39-य : याचना

जैन धर्म के लोग प्रभु से याचना करते हैं कि उन्हें जो भी दें उन्हें संतोषी बनाएं। याचना से आशय मांगने मात्र से नहीं है। जैन साधु-संत-साध्वियां याचना केवल प्रभु से करते हैं। वे घर-घर जाकर गोचरी करते हैं वे याचना की श्रेणी में नहीं अाती। क्योंकि वे केवल प्रभु से याचना करते हैं कि है प्रभु आज का दिन आपने मंगलमय निभाया, इसी तरह आगे भी निभाना।

40-र : रणदक्ष

दक्ष हर कोई हर फील्ड में होता है। मगर जैन धर्म में इसके मायने अलग हैं। जैन धर्म में बच्चों को रणदक्ष बनाया जाता है, ताकि आत्मरक्षा की जा सकें। साथ ही इसका बड़ा उद्देश्य आध्यात्मिक मोर्चे पर रण दक्ष होना है। बच्चा-बच्चा जब अध्यात्म को अपनाना है तो वह रणदक्ष कहलाता है।

41-ल : लक्खण

श्वेतांबर समाज 8 दिन तक पर्युषण पर्व मनाते हैं जबकि दिगंबर 10 दिन तक मनाते हैं जिसे वे ‘दसलक्षण’ कहते हैं। जब श्वेतंबर के पर्युषण समाप्त होते हैं तब दिगंबरों के प्रारंभ होते हैं। पर्युषण पर्व के समापन पर ‘विश्व-मैत्री दिवस’ अर्थात संवत्सरी पर्व मनाया जाता है। अंतिम दिन दिगंबर ‘उत्तम क्षमा’ तो श्वेतांबर ‘मिच्छामि दुक्कड़म्’ कहते हुए लोगों से क्षमा मांगते हैं। ये दसलक्षण हैं- क्षमा, मार्दव, आर्नव, सत्य, संयम, शौच, तप, त्याग, आकिंचन्य एवं ब्रह्मचर्य। इसे ‘दसलाक्षिणी’ पर्व भी कहा गया है। यह संतों के साथ ही गृहस्थों के लिए भी कर्तव्य कहे गए हैं। गृहस्थों को इन 10 दिनों तक दसलक्षण का पालन करना चाहिए।

42-व : वज्र शृंखला

जब कभी मानवता पर संकट आता है, जैन साधु महर्षि दधीचि का उदाहरा अवश्य देते हैं, जिन्होनें योग्यबल से अपने प्राण-त्याग दिए हैं और उनकी हडि्डयों से शस्त्र बने और राक्षसों का नाश हुआ है। जैन धर्म में भी ऐसी बहादुरी के किस्से भरे पड़े हैं।

43-श : श्वेतांबर

जैन धर्म में श्वेतांबर और दिगंबर धर्मावलंबी होते हैं। रास्ता चाहे कोई भी हो अंतिम लक्ष्य धरती और ब्रह्मंड के साथ अपना कल्याण करना होता है। श्वेतांबर जैन धर्मावलंबी और दिगंबर अब कई मुद्दों पर एक हाेने लगे हैं जो शुभ संकेत है।

44-ष : षोडश संस्कार 

गर्भाधान, प्रीति, सुप्रीति, धृति या सीमंतोन्नयन, मोद क्रिया, प्रियोद्भव, नामकर्म, बहिर्यान, निषद्या, अन्नप्राशन्न, वर्ष वर्धन या व्युष्टि, चौल, लिपिसंख्यान, उपनयन, व्रतावतरण, विवाह, आधान, उपनीति, केशवाय, जातकर्म आदि जैन संस्कार है। इन संस्कारों पर जैन धर्म की आशारशिला टिकी हुई है।

45-स : सर्वास्रा

सर्वास्त्रा जैन समाज का महत्पूर्ण साधना शब्द है। सबकी आशा पूरा करने वाला ये मंत्र तीर्थंकरों ने अपने शिष्यों को दिए और आगे चलकर ये जैन धर्म की आधारशिला बने। आज भी जैन साधक, साधु-साध्वियां इन मार्गों पर चलते हैं।

46-ह : हस्तलिखित ग्रंथ

जैन धर्म में हस्तलिखित ग्रंथ अनेक हैं। इन ग्रंथों में अध्यात्म, अायुर्वेद, प्राचीन गुप्त मंत्र, साधना, चमत्कारों से भरे दर्शन और लेखन हैं। बताया जाता है कि जैन धर्म के साधु-संतों के पास अनेक गुप्त विद्याएं थीं। इन गुप्त विद्याओं का हस्तलिखित ग्रंथों में वर्णन मिलता है। लेकिन कई ग्रंथाें की भाषाओं का पढ़ना दुरूह है।

47-क्ष : क्षीरोदसागर

विष्णु पुराण के अनुसार, कैलाश पर्वत से 40 किलोमीटर दूर स्थित मानसरोवर झील को ही क्षीर सागर कहा जाता है. शास्त्रों में क्षीर सागर का बड़ा ही महत्व बताया गया है। मान्यता है कि भगवान शिव की जटा से निकलने वाली गंगा के वेग से ही क्षीर सागर का निर्माण हुआ है। कहते हैं कि क्षीर सागर में भगवान विष्णुजी का निवास बैकुंठ लोक में है, जहां श्रीहरि शेषनाग के आसन पर विराजते हैं. यह भी कहा जाता है कि क्षीर सागर में मौजूद शेषनाग ने ही पृथ्वी का भार संभाल रखा है। जैन संत भी क्षीरसागर के अस्तित्व को मानते हैं।

48-त्र : त्रय विकारे

आयुर्वेद मंे तीन विकार बताए गए हैं। वात, पित और कफ। इनमंे तीनों में से किसी का कम अौर अधिक होना बीमारी का लक्षण होता हैै। उसी तरह संसार में तीनों विकारों का निदान करना जरूरी है। जैन संतों और साधकों की प्राचीन पुस्तकों मं इन त्रय विकारांें का विस्तार से विवरण है, जरूरी है उन किताबों को खोजने और उन पर शोध करने की।

49-ज्ञ : ज्ञान विनय

जैन धर्म कहता है कि विनय की अनदेखी मत करो। समव्यक विनय, ज्ञान विनय और अन्य विनय को आत्मसात करक ही हम जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए हमारे आस-पास के वातावरण को सुधारने की जरूरत है। तभी ज्ञान विनय का प्रयार-प्रसार हो सकेगा।

50-श्र : श्रावक

साधक ही श्रावक होता है। संतों और गुरु वाणी को सुनकर गुर के विचारों का प्रचार-प्रसार करना ही श्रावक का धर्म है। संसार में जितने भी धर्म हुए हैं, उसमें श्रावक की सीढ़ी पर चढ़कर धर्म रूपी छत नसीब हुई।

 

Rising Bhaskar
Author: Rising Bhaskar


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