मेहंदी वाले हाथ
( जोधपुर का पहला ई-कविता संग्रह)
तारा प्रजापत ‘प्रीत’
सद्गुरु प्रमिला भगवान के श्री चरणों में
दो शब्द
मां सरस्वती के आशीर्वाद व गुरु की असीम कृपा से, मेरा तीसरा काव्य संग्रह ‘मेहंदी वाले हाथ’ आपके हाथों में समर्पित हैं। मुझ पर मेरे सद्गुरु की विशेष कृपा रही है और आज मैं जो कुछ भी हूं उन्हीं की कृपा से।
इस काव्य संग्रह से पहले आसु कवि स्व. रतनलाल व्यास साहित्य एवं शैक्षणिक संस्था फलोदी द्वारा 2 सितंबर 2018 में प्रकाशित व पारितोषित मेरा प्रथम काव्य संग्रह ‘प्रीत’ को श्रेष्ठ साहित्य सृजन का सम्मान प्राप्त हुआ।
8 सितंबर 2019 को मेरे दूसरे काव्य संग्रह ‘मैं द्रौपदी नहीं’ का भव्य लोकार्पण वरिष्ठ साहित्यकारों के सान्निध्य में जोधपुर में संपन्न हुआ। जिस प्रकार आपने मेरे दोनों काव्य संग्रहों को स्नेह दिया है, आशा है आप मेरे तीसरे काव्य संग्रह को भी उससे ज्यादा स्नेह देंगे। मेरे इस काव्य संग्रह में आपको इंद्रधनुषीय सप्तरंगीय कविताएं मिलेंगी। जिसमें जीवन के सभी रंग समाहित हैं। मेरे इस काव्य संग्रह का नामकरण ‘मेहंदी वाले हाथ’ आदरणीय प्रमोद शर्मा जी ने किया। मैं उनकी हृदय से आभारी हूं कि उन्होंने अपना कीमती समय निकाल कर, मेरे इस काव्य संग्रह की भूमिका लिखी।
मुझसे एक बार किसी मित्र ने पूछा कि आपको लिखने के लिए कैसा माहौल चाहिए? मैंने विचार किया कि, क्या लिखने के लिए भी माहौल बनाना पड़ता है? और सच मानिए मैंने लिखने के लिए कभी लिखा ही नहीं। बस जब कभी मन में कोई भाव जागा उस समय कलमबद्ध कर लिया। चाहे भीड़ में हो या अकेले में, रात हो या दिन, कभी कहीं भी सृजन हो गया। मैंने कभी मेज कुर्सी पर बैठकर बंद कमरे में एकांत में बैठकर कभी कोई रचना नहीं लिखी। सोच कर कभी नहीं लिखा पर हां लिख कर बार-बार सोचा कि मैंने क्या लिखा है। मेरी कविताएं कोरी कल्पनाओं की उड़ान नहीं है। इनमें यथार्थ के रंग, आस-पास के परिवेश की झलक व मेरे अनुभवों का समावेश है।
मेरी साहित्यिक यात्रा में मुझे कई हमसफर मिले, जिनके साथ मुझे कई सुखद अनुभव हुए और उनसे बहुत कुछ सीखने को भी मिला। सभी का हृदय से आभार।
मेरी कलम को आप सभी प्रबुद्धजनों के आशीर्वाद की अत्यंत आवश्यकता है। आप सभी का स्नेह मुझे निरंतर प्राप्त होता रहे। मेरे इस काव्य संग्रह को पढ़कर प्रतिक्रिया अवश्य प्रदान करें, ताकि मैं आपकी भावनाओं को जान सकूं।
मेरे हृदय के भाव को,
कोई हृदय से पढ़े।
साथ मेरे तुम चलो तो,
ये कारवां आगे बढ़े।
जय गुरुदेव,
तारा प्रजापत ‘प्रीत
मेहंदी वाले हाथ एक सरगम ठहरी हुई
मैं जो हूं
वो मैं कतई नहीं
और जो मैं हूं
उसे तुम जानते नहीं।
तारा प्रजापत ‘प्रीत’ का यह कविता संग्रह चुनौतिपूर्ण प्रयोग द्वार है। यहां पर कवयित्री द्वारा स्वयं के चैतन्य मंडल की रूपरेखा भी रख देती है। वे अपने एजेंडे में किसी को भी गैर न समझते हुए सबको ‘प्रीत’ के आलिंगन में कस लेती है।
न स्वप्नों का डर
न मजहब की दीवार हो
प्यार की शुरुआत हो
नूर की बरसात हो
तेरी न मेरी कोई जात हो।।
तारा, जीवन को अद्वितीय उपकरण समझती है। बाहों ने आकाश भर कर उन्मुक्त सा ठहाका लगाने की चेष्टा उन्हें जीवट कवयित्री बनाता है। सबसे प्रेम करने वाली यह अपनी तन्हाई में भी गुनगुनाते हुए मुकद्दर को कबूल करती है और अपने अस्तित्व की खोज में तल्लीन हो जाती है-
आज क्या?
कभी भी तुमने
मेरे अस्तित्व को
स्वीकार ही नहीं किया।
श्रीमती तारा की यह वेदना इसलिए भी घनीभूत होकर प्रकट होती है कि वे स्त्री हैं। एक स्त्री के लिए जीवन आज भी दुश्कर तथा कठिन हो गया है। भोग्या तो वह बाजार के द्वारा बना ही दी गई थी अब राजनैतिक भाषाई समाज में उनका जो आरंभिक क्षरण हो रहा है, उसके चलते स्त्री अब सड़क पर चल भी नहीं पा रही है। हालांकि एक समर्थ पीढ़ी स्त्री को लेकर कैंडल मार्च करने को निरंतर तत्पर रहती है।। फिर भी यह समझना ही पड़ेगा कि स्त्री आज भी दबाव के जीवन जीती है। तारा भी यह दर्द अंतर्मन की स्लेट पर पक्की इबारत से लिखती हैं-
औरत का दर्द
न अहित समझे-
पुरुष भला क्या समझेगा!
स्त्री पुरुष (प्रकृति और पुरुष) सामाजिक विषमता, स्वार्थ, आशा, बचपन, ऋतु शृंगार, कर्तव्य, चंचलता, रिश्ते, मृत्यु, दुनियादारी, विवाह, पीड़ा जैसे आत्यांतिक संवेदनों को छूने की कवयित्री की कलम ने पुरजोर कोशिश की है।
यहां पर हम कह सकते हैं कि तारा प्रजापत कोशिश की, प्रयत्न की कवयित्री हैं। इधर यह कहना भी युक्तिसंगत होगा कि ताराजी को रचना कौशल, हुनर यानी कलात्मकता की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है। उनके यहां कई दफे चीजें सपाट और स्थूल होकर रह जाती हैं। वाक्य कविता नहीं हो पाते, कविता वाक्य बनकर रह जाती है, फिर भी वे अपनी तरह की एक अलग रचनाकार हैं। क्योंकि उनका द्रवित कर देने वाला हृदय, विशालता के परकोटे बांधता हुआ, इतनी सहजता से मन का किला बना लेता है, कि पाठक स्तब्ध रह जाता है।
इसी प्रकार से कविता की जगह उनके गीत कहीं गहरे स्पंदनशाली हैं। शृंगार और प्रीत को लेकर अगर वे इसी तरह के गीत लिखें तो एक दिन वे सुयश को प्राप्त करने योग्य कवयित्री होंगी। उम्मीद है आप (पाठक) अपने ही बीच की, जड़ की, जमीन की कवयित्री के संवेदन से जुड़कर एक नए यथार्थ की पूंजी को प्राप्त करेंगी। ताराजी को हृदय से शुभकामनाएं…।
प्रमोद कुमार शर्मा
वरिष्ठ उद्घोषक, आकाशवाणी बीकानेर
1
परिचय
किस का परिचय?
कैसा परिचय?
चंद शब्दों की
परिधि में,
नहीं बांध सकोगे
तुम मुझको।
क्या जानते हो तुम
मेरे बारे में?
और क्या जानना चाहते हो?
न पहचान सकोगे
तुम मुझको,
मैं जो हूं
वो मैं कतई नहीं,
और जो मैं हूं
उसे तुम
जानते नहीं।
000
2-
तेरी न मेरी कोई जात हो
न रवाजों का डर
न मजहब की दीवार हो,
प्यार की शुआए हो
नूर की बरसात हो,
तेरी न मेरी कोई जात हो।
खुली किताब सी मैं
तेरा भी न कोई राज रहे,
सुबह हो सुकूनों वाली
न गम की अंधेरी रात हो
तेरी न मेरी कोई जात हो।
थोड़ी शरारत हो
थोड़ी सी संजीदा हो
जिंदगी अपनी,
खुशी का नजराना हो और
दुआओं की सौगात हो।
तेरी न मेरी कोई जात हो।
000
3-
जीवन
उदास क्यों हो?
क्यों ठंडी आहें भरते हो?
निराशा ने क्यों
तुमको पकड़ा है?
मजबूरियों ने क्यों
तुमको जकड़ा है?
वक्त से नाराज क्यों?
तकदीर से
शिकायत कैसी?
निकल कर
एक बार तो देखो,
अपने ही,
बनाए दायरे से।
फिजाओं की
ठंडी हवा की ठंडक,
अपने अंतर्मन से
महसूस करो।
भर लो,
अपनी बाहों में
विस्तृत आकाश को।
सप्तरंगीय इंद्रधनुषीय
सपनों में भर दो
अपनी आशाओं के सुनहरे रंग।
एक बार,
सिर्फ…
एक बार,
लगाओ उन्मुक्त सा,
ठहाका।
पल भर में,
निचोड़ लो,
अपने संपूर्ण
जीवन का सार।
क्योंकि-
सिर्फ सांस
लेने का नाम ही तो
जीवन नहीं हैं।
000
4-
औरत का दर्द
न औरत समझे,
पुरुष भला क्या समझेगा?
औरत ने
औरत को सताया,
ताने मारे
दिल दुखाया,
बन कर सास
बहू को जलाया,
कन्या भ्रूण
गर्भ में मिटाया।
सम्मान सास को
बहू न देती,
जूठन अपना
उसे खिलाती,
सेवा भाव का
अभाव है देखा,
वृद्धाश्रम का
द्वार दिखाती।
मेमसाब की
बात न पूछो,
नौकरानी पर हुक्म चलाती,
हस्ती तेरी कुछ भी नहीं
बार-बार अहसास कराती।
मंथरा ने
कैकयी को भरमाया,
सिया-राम को
वन भिजवाया,
शक-संशय का
बीज उगाया।
औरत पर
घर बार है निर्भर,
चाहे घर में
स्वर्ग ले आए,
चाहे तो
घर नरक बना दे।
रिश्तों की मर्यादा
जो समझे,
समझ ले जो
अपनों की कीमत,
कोई औरत
करे न जुल्म और,
कोई औरत
सहे न जिल्लत,
दुनिया फिर
बन जाए जन्नत।
000
5-
चाहत
बगैर तेरे
तेरे साथ जिंदगी,
गुजारी है मैंने।
माना रूबरू तू नहीं,
तेरी कमी है फिर भी,
जहन में तू, दिल में तेरी जुस्तजू।
जीती हूं तुझे ख्यालों में
कभी लगा ही नहीं,
तू मुझसे है जुदा,
खुद से करीब तुझे पाती हूं।
तेरा अहसास ही बहुत है,
तेरे लिए, और अब!
जिंदगी में कोई चाहत ही नहीं।
000
6-
मेरा अस्तित्व
आज क्या?
कभी भी तुमने
मेरे अस्तित्व को
स्वीकार
नहीं किया।
हमेशा हुकूमत
चलाई अपनी,
मेरी भावनाओं को
समझने का,
रत्ती भर भी
प्रयास नहीं किया
कभी तुमने।
एक मोहरे की तरह
खेलते रहे,
मेरी सम्वेदनाओं के साथ।
मेरे बहते आंसुओं को
दिखावा कह कर,
झुठलाते रहे।
मेरी चुप्पी को
समझ कर,
मेरी कमजोरी
हावी होते गए,
तुम मुझ पर।
मेरी हर बात
तुम्हें बेतुकी लगी,
मेरी हर सलाह
बेवजह लगी,
कभी एतबार ही
नहीं किया
तुमने मुझ पर।
रुक गए आकर
मेरे जिस्म पर,
मेरी रूह तक तो
तुम कभी
पहुंचे ही नहीं।
एक बार तो
टटोला होता
मेरा अंतर्मन,
एक कोशिश तो की होती
मुझे समझने की,
तो तुम समझ जाते
मैं क्या हूं?
मैं कौन हूं?
000
7-
ख्वाब
यादों के पैरों में बंधी,
तेरे अहसास की पायल
कभी खामोश तो,
कभी छनक जाती है।
दिल के हाथों में पहनी
तेरे जज्बात की चूड़ियां
कभी उदास तो
कभी खनक जाती है।
सुबह तेरे ख्यालों की दस्तक
नींद से जगाती है मुझे
रात तेरे ख्वाबों की
चूनर ढलक जाती है।
यूं ही आज कल
गुजर रही है जिंदगी ‘प्रीत’
मेरी सांसों में तेरी सांसों की,
महक-महक जाती है।
000
8-
बगुला भक्त
यूं रास्तों की ठोकरों ने
सिखाया है मुझे कि
चलना संभल संभल कर
कदम कदम पर
घात लगाए बैठे कहीं
बगुला भगत
ताक में है
चील की तरह
झपटा मारने को
धर्म की दुकान
लगाए फिरते हैं
बेचने अपना ईमान और
खरीदने तुम्हारा अस्तित्व
दुविधा में हूं कि
किस पर विश्वास करूं
किस पर नहीं?
000
9-
यादें
आसमान से उतरी एक रात,
ठहर गई बोझिल पलकों पे।
शुरू हुआ सफर
तेरी याद की यादों का,
लम्हा-लम्हा बहता गया,
शुष्क आंखों से
दर्द का सावन।
सिसकते रहे
अहसास दिल के
तन्हा तन्हाई में,
बंजारे की तरह
भटक रहे हैं
ख्याल तेरे।
दूर तक निशान नहीं
कदमों के, शायद!
हमसफर मेरे,
इस रात की
कोई सुबह नहीं।
000
10-
रूहानी रिश्ता
एक अजीब सा रिश्ता है हमारा,
खून का नहीं दिल का।
कोई नहीं हो मेरे फिर भी,
अपने से लगते हो।
निश्चित पूर्वजन्म का
कोई संबंध रहा होगा,
जो हम तुमसे मिले।
घड़़ी भर भी तेरे ख्यालों से
जुदा नहीं होते।
मालूम नहीं क्यों?
एक बैचेनी लिए
दिल तड़पता है,
तेरे नाम पर धड़कता है।
फासलों से अब कोई
फ़क्र नहीं पड़ता,
कि तू मुझ से भी
मेरे करीब रहता है।
कोई नाम नहीं इस रिश्ते का,
ये सब रिश्तों से न्यारा है और,
हमें जान से प्यारा है।
000
11-
खत
अब वो जमाना कहां रहा?
जब इंतजार रहता था
डाकिए का बेसब्री से,
उसकी साइकिल की घंटी
सुनकर धड़कता था दिल,
कि लाया होगा
वो महबूब का खत
क्या लिखा होगा?
सोचकर घबराते थे,
पाकर उनका खत
हो जाते थे
मदहोश से हम,
धड़कते दिल से
जब खोलते थे खत,
चंद पंखुड़ियां
गुलाब की
बिखर जाती थी
दामन पर,
और महक जाता था
पूरा वजूद
एक-एक हर्फ में
उनका अक्स
नजर आता था,
एक बार नहीं
कई कई बार
पढ़ा करती थी
फिर भी,
दिल नहीं भरता था।
एक तड़प
एक कसक
जगाते थे दिल में
वो खत,
गुलाबी खुशबू भरे
वो खत
आज भी
संभाले रखे हैं मैंने,
हर्फ फीके पड़ गए
फूल सूख गए हैं,
पर अहसास
आज भी महकते हैं।
000
12-
नववर्ष
हर वर्ष नया वर्ष आता है
अपने साथ नई उमंगें लाता है
अपने लिए अपनी इन आंखों में
नए स्वप्न सजाता है
कुछ यादें याद रहती है
कुछ पीछे छूट जाता है
हर वर्ष कुछ नया करने का संकल्प
मन में आता है।
धीरे-धीरे वक्त के साथ
हर संकल्प टूट जाता है
नववर्ष में बहुत कुछ
बदलने की बात करते हैं लोग
पर साल के अंत तक भी
कुछ नहीं बदलता
हां, कुछ और तो नहीं बदलता
पर दीवार पर टंगा
पुराना कैलेंडर जरूर बदल जाता है।
000
13-
निर्बन्धन
मैं, परे हूं
हर परिधि से
नहीं बांध सकता
मुझे कोई बंधन
निर्बन्धन हूं मैं
मैं कुछ भी नहीं
पर सब कुछ हूं
निस्तेज सम्वेदनाओं का
संचार हूं मैं
ठहरी नदी का
प्रवाह हूं मैं
दूर मंदिर से
आती हुई आरती की
स्वर लहरी हूं मैं
तो, मस्जिद से आती
खुदा की अजान हूं मैं।
मुझ से ही
अस्तित्व है मेरा
और मुझसे ही मैं हूं।
000
14-
अहसास का रिश्ता
नहीं तोड़ूंगी मैं अपनी हद,
तुम भी अपने
दायरे में रहना।
मैं भी रहूंगी खामोश,
तुम भी न कुछ कहना।
रोक लूंगी
मैं खुद को
तुम भी
भावना में
मत बहना।
यूं ही उम्र भर
दिल के
किसी कोने में
रख लूंगी
मैं तुम्हें,
तुमसे छुपा कर।
तुम भी,
मेरी प्रीत, हरदम यूं ही,
दिल से महसूस करना।
000
15-
बिछुड़े लम्हे
बिछुड़ गए कुछ
लम्हे मुझ से,
जाने क्यों
मालूम नहीं?
पाया था
उन लम्हों में मैंने,
खुशियों का
अनमोल खजाना।
क्या होता है?
प्रेम का मतलब
उन्हीं लम्हों में जाना।
वो लम्हें हम
कैसे भूलें?
जीवन भर
जो साथ चले,
एक ऐसा
मोड़ आया
वो मुंह मोड़ चले।
और फिर एक दिन
यूं ही चलते-चलते,
हाथों से
वक्त का
दामन छूट गया,
पल भर में
सपनों का दर्पण
गिरा और टूट गया।
खो गई है कुछ
यादें पुरानी,
कुछ जानी सी
कुछ पहचानी।
बिछुड़े लम्हों में
अब जीना है,
दर्द का सागर
अब पीना है।
000
16-
जीवन यात्रा
धूमिल सी शाम
अपने घरोदों से लौटते पंछी,
थका सा सूरज
छुपने को आतुर,
शाम के आंचल में,
शाम के माथे पर चमकने लगा
सूरज का टीका,
बह गया हो जैसे,
शाम के नयनों से काजल,
स्याह रात गहराने लगी,
सितारों की छांव में,
रात की डोली में सवार,
चांद की दुल्हन ने
जब घूंघट खोला
बिखर गई धरा पर
उज्ज्वल चांदनी
समेट लिया चांद को
रात ने अपनी बाहों में
हर तरफ छा गई
नींद की खुमारी सी,
रात के दरवाजे पर
ये किसने?
हौले से दस्तक दी
किरणों के चमकते
वस्त्रों से सजी भोर ने
अंगड़ाई ली।
पसर गया धरा पर
सूरज के प्रकाश का सर्वस्व
और एक बार
फिर से शुरू हुई
जीवन की अनंत यात्रा।
000
17-
होली जल गई
होली से पहले ही,
होली जल गई।
किसी का सामान जला
तो किसी की दुकान,
किसी का मकान तो
किसी की खोली जल गई।
होली से पहले ही
होली जल गई।।
मां की ममता जली
बहन की राखी जली,
मांग के सिंदूर के संग
दुल्हन की डोली जल गई।
होली से पहले ही
होली जल गई।।
आग में नफरत की
शराफत जल गई,
उधर मुसलमान तो
इधर हिंदुओं की टोली जल गई।
होली से पहले ही
होली जल गई।।
बन गई बंदूकें हैं पिचकारियां
होली खेली जा रही है खून की,
सात रंगों की
रंगोली जल गई।
होली से पहले ही
होली जल गई।।
नाम पे मजहब के
झगड़े कब तलक?
कब तलक निकलेगा
जनाजा इंसानियत का?
राजनेताओं की लगाई आग में
जनता भोली जल गई।
होली से पहले ही
होली जल गई।।
अधर्म की जला कर होलिका
है बचाना धर्म के प्रहलाद को,
दर्द की कराह में
प्रीत की बोली जल गई।
होली से पहले ही
होली जल गई।।
000
18-
मौत से पहले मरते देखा
बहुत करीब से
आज हमने,
जिंदगी को
यूं मौत से डरते देखा।
पल-पल
मरने से पहले,
उसे सौ बार
मरते देखा।
डरा-डरा सा
सहमा-सहमा,
खुद से खुद को ही
लड़ते देखा।
सूनी सड़कें
शहर उदास सा
शाम से पहले,
सूरज ढलते देखा।
वक्त रुका सा
ठहरा हर लम्हा,
घड़ी के पैंडुलम को
तेजी से चलते देखा।
लगी न आग कहीं
न कहीं सूरज पिघला,
रात को झुलसते
सुबह को जलते देखा।
और, विधाता की
मर्जी के सामने
बेबसी से इंसान को
हाथ मलते देखा।
000
19-
लड़की होने का दर्द
ये कहानी मेरी है
कुछ-कुछ तेरी भी
जन्म के साथ ही
दुत्कार मिली
बोझ, पत्थर न जाने
कितनी उपाधियों से
नवाजा गया
एक अछूत की तरह
परवरिश की गई
भाई की जूठन व उतरन
हमारी किस्मत थी
अनपढ़ रखी गई
मुझे कौनसी
नौकरी करनी है
चौदह बसंत पूरे भी
नहीं हुए कि
मुझे इस पिंजरे से
निकाल कर
दूसरे पिंजरे में
कैद कर दिया गया
पिंजरे बदले
पर नसीब नहीं
अब बंधन और
मजबूत हो गए
मौन हो गए
अभिव्यक्ति के शब्द
बहरे हो गए
अनुभूति के कान
नेत्रहीन सी विस्मित
देख कर भी
कुछ नहीं देखती
नहीं टूटेंगे जीवन भर
मर्यादा के ये धागे
और इन्हीं धागों में
उलझ कर रह जाऊंगी
एक दिन।
000
20-
पैबंद
उम्मीद के धागों से
सी रहे हैं जिंदगी की
उधड़ी चादर,
जगह-जगह
पहले से ही
बहुत पैबंद लगे हैं,
झांक रहा है
मजबूरी का
कुंवारा बदन
इन पेबंदों से,
लीर-लीर चादर में
अब जगह ही
कहां बची है?
जो लगा सके
एक और नया पैबंद।
000
21-
रिश्तों की गरिमा
घर के
किसी तहखाने में
पड़े हैं कई रिश्तों के
पुराने कनस्तर
कुछ टूटे
कुछ जंग लगे
फुर्सत ही नहीं है
इन्हें संभालने की,
व्यस्त हैं सभी
अपने आप में
अपने परिवार की
खुशियों में,
लील लिया है
स्वार्थ की सीलन ने
इनके जीवन का उजास,
काट दिए हैं
इनके विश्वास के पंख
तोड़ दिए हैं
इनकी आंखों के
सुनहरे स्वप्न,
कहां जाएंगे
ये बिना तुम्हारे?
इनके पैरों की
जमीं मत छीनो
इन्हें इनके हिस्से का
आसमां दे दो,
आओ! आज
वक्त मिला है,
संभाल लें
अपने इन
टूटते रिश्तों को,
बचा लें अपनी
लुप्त होती
मानवीय संस्कृति को,
पुनर्निर्माण करें
अपनी ढहती हुई
संस्कारों की दीवारों को,
भर दें प्रेम से
नफरतों की
बढ़ती दरारों को,
और, एक बार
फिर से जी लें
अपनेपन से,
अपने स्नेहिल
रिश्तों की गरिमा को।
000
22-
कविता
न जानूं
शृंगार शब्द का
न रूपक में उलझे मन
भाव स्याही में
डूबी लेखनी
कागज पर
चल जाती है
न जाने कब
भावों के मोती
बन जाता
गुंथ जाते हैं
चुपके से
मन की सलाई
सपनों के स्वेटर
बुन जाते
कहते हो तुम
जिसे कविता
शून्य मगन
लिख जाते हैं।
000
23-
तुम भी इंसान हो
अपने भीतर के
इंसान को जगाओ
जो सोया पड़ा है
स्वार्थ के आगोश में
मर गई हैं सम्वेदनाएं
तड़प रही हैं भावनाएं
कोई समझता नहीं या
समझना चाहता ही नहीं
किसी और की
हृदय की पीड़ा
नफरतों के परदों में
ढक गई हैं इंसानियत
और नजर आ रही है
हैवानियत
अपने अंतस को टटोलो
बची-खुची अपनी
मानवता को बचाओ
आज बहुत जरूरी है
ये बताना कि तुम भी इंसान हो?
000
24-
एक सवाल स्वयं से
जीवन में आज
कौन से
सुख के साधन
काम आ रहे हैं?
कार, बंगले, बैंक बैलेंस
कुछ भी तो नहीं,
सारा जीवन
जो इनके पीछे
भागते रहे,
समझते रहे
इन्हें जीवन की
उत्कृष्ट उपलब्धियां,
सब धरी की धरी रह गईं।
दुबका-दुबका
सहमा-सहमा
डरा-डरा सा सोच रहा है,
कितना असहाय है
वो कुदरत के आगे,
आज समझ में आया कि
ये सुख-सुविधाएं हमारे लिए हैं
हम इनके लिए नहीं,
जीवन है तो
सब कुछ है।
इस आपाधापी में
हमें कभी
अपने ही साथ बैठने का
समय नहीं मिला,
अपने से अंजान
न जाने क्या ढूंढ़ रहे थे?
हमें आखिर चाहिए क्या
हमें खुद ही मालूम नहीं?
निरंतर चले जा रहे थे
उन रास्तों पर जिनकी
कहीं कोई मंजिल ही नहीं।
आशाओं के चक्रव्यूह में
फंसा मन का अभिमन्यु
नहीं जानता भेदना,
और मारा जाता है
नियति के क्रूर हाथों से।
000
25-
इंसान हो तो
इंसान में
इंसानियत की
कमी कैसी?
लब पे आह
आज हर
आंख की कोर पे,
नमी कैसी?
आग मजहब की
नफरतों का धुआं,
उदास आसमां
गमजदा
गमी कैसी?
जो उगले आग
बरसाए गोले
वो आसमां कैसा
वो जमीं कैसी?
000
26-
अहम
घुप अंधेरा
चुप उजियारा,
अहम ने मानव
तुझको मारा।
जगजीत
बन गया सिकंदर
वक्त के आगे
आखिर हारा।
समंदर पर्यंत
सुख मिल गए तुमको,
बुझी प्यास न
पानी खारा।
तेरी-मेरी
करते-करते,
व्यर्थ गया
ये जीवन सारा।
000
27-
स्वाभिमान
कौन क्या
सोचता है
मेरे बारे में?
ये सोचकर
ना सोचकर।
मैं जो भी हूं
जैसा भी हूं
ठीक हूं,
अभिमान नहीं
मैं खुद मेरा
स्वाभिमान हूं।
नहीं चाहिए
मुझे हस्ताक्षर,
दुनिया वालों के
जो मुझे साबित करें।
मेरा रिमोर्ट
मेरे हाथ में है,
मैं खुद अपनी नजर के
कैमरे में हूं।
000
28-
नियति
युगों-युगों से आज तक
समय का खेल जारी है…
इसके आगे चले न किसी की,
समय सभी पर भारी रे बंधु
समय का खेल जारी है…
राज मिल गया भीख मंगे को
राजा बन गया भिखारी रे बंधु
समय का खेल जारी है…
इससे कोई जीत न पाया
समय बड़ा जुआरी रे बंधु
समय का खेल जारी है…
कंस बन गया विध्वंस करता
पालक बना मुरारी रे बंधु
समय का खेल जारी है…
जगत को पार करे रघुराई
केवट पार उतारी रे बंधु
समय का खेल जारी रे बंधु…।
000
29-
स्मृति
अधखुले
दरवाजे की ओट से
वो तेरा ताकना
शर्मा कर छुप जाना,
मुस्करा कर
वो कनखियों से देखना
कुछ भी तो नहीं भूला हूं मैं
वो तेरी बड़ी-बड़ी
झील से गहरी आंखें
आज भी मेरी
आंखों में बसी है।
वो तेरा भोलापन
आज भी याद आता है मुझे
मेरी यादों के
दरीचे से निकल कर
एक बार सिर्फ एक बार
फिर से मेरे सामने आ जाओ
और मिल जाओ
कभी न बिछ़डने के लिए।
000
30-
निश्चित
संसार में
मेरे चाहने न चाहने से
कुछ नहीं होता,
मैंने नहीं चाहा
द्रौपदी का चीरहरण हो
पर हुआ,
क्या मैंने चाहा था
सीता को रावण हर ले जाए?
प्रारब्ध का खेल तो
खेलना ही पड़ेगा
मैंने भी खेला,
बहुत सी घटनाएं
मेरे न चाहने पर भी
घटित हुई,
क्योंकि-
सबकुछ निश्चित हैं
निर्धारित हैं,
फिर चिंता क्यों?
000
31-
मौन
कह दो!
तोड़ दो मौन,
घुट जाएंगे
शब्द,
हृदय की घुटन में,
उतार दो बोझ वेदना का,
बहने दो
भावनाओं की निर्मल सरिता
खोल दो बंद विवशता को
उड़ने दो आशाओं को
खुले आकाश में,
विचरने दो
मन के स्वच्छंद मृग को
सम्वेदनाओं के उपवन में
लगने दो अपनी किस्मत की
हथेली में प्रीत की मेहंदी
संवरने दो जीवन की दुल्हन।
000
32-
संवेदनहीन
सुन्न सा हो गया है
आज मानव,
सम्वेदनाओं को
मार गया है लकवा
मृतप्राय: सी
हो गई है भावनाएं,
न आभास है
फूलों की महक का,
न ही महसूस
कर पा रहा है
कांटों की चुभन,
न गर्माहट देती है
सूरज की गर्मी,
न ही शीतलता
दे पा रही है
चांद की ठंडक ,
कटता जा रहा है
आज मानव
प्रकृति से,
अपनी संस्कृति से,
मशीनी युग में
आज मानव भी
बन कर रह गया है
एक जड़ मशीन,
डाल कर
प्रेम का तेल
करना होगा सक्रिय
एक बार फिर
निष्क्रिय होती
इन जड़
मानव मशीनों को,
पुनर्जीवित
करनी होगी
मानव से बिछड़ी
मानवता को,
तभी होगा
मानव जीवन,
सफल और सार्थक।
000
33-
अनुत्तरित प्रश्न
स्मृतियों के
नाखूनों ने
खुरच दिए हैं,
समय के दिए
कुछ पुराने
पपड़ाए घाव।
बहुत खुश थी मैं
जब तुम मिले थे,
बिन पंख
उड़ने लगी थी
सपनों के,
विस्तृत आकाश पे।
इंद्रधनुषी रंगों से
रंग दिया था तुमने,
मेरे बेरंग से
जीवन को,
मन के
गहरे समंदर में
बनकर आए थे
तुम एक चंचल लहर।
मदहोश सी मैं
बह गई कब,
तुम्हारे प्रेम की
बहती धारा में?
पता ही
नहीं चला और,
जब होश आया तो,
अपने को
अकेला पाया।
चले गए
तुम न जाने
क्यों और कहां?
आज भी,
तुम्हारा यूं जाना
एक प्रश्न बनकर
रह गया है,
जीवन के
खाली पृष्ठ पर?
आज भी,
तुम्हारी प्रतीक्षा में
बैठी हूं,
पलकें बिछाए,
कुछ अनुत्तरित
प्रश्नों के उत्तर
जानने के लिए।
000
34-
मृगतृष्णा
ढूंढ़ रहा है
आज का मनुष्य,
अस्थाई जीवन में
स्थाई सुख,
कहां मिलेगा?
कहीं नहीं।
दौड़ रहा है
परछाई के पीछे
पर परछाई,
कब किसके
हाथ आई?
भटक रहा है मनुष्य
माया के विस्तृत
मरुस्थल में,
व्याकुल
मृग के मानिंद।
समझ बैठा
मृग मरीचिका को
स्रोत जल को,
मृगतृष्णा के
जल से
क्या बुझी है
कभी किसी की प्यास?
फिसल रहा है समय
भिंची मुट्ठी से
रेत की तरह
और एक दिन
हार कर
जीवन की बाजी
चला जाएगा
एक अनंत
यात्रा की ओर।
000
35-
बुढ़ापे की पीड़ा
पलकों की
अलगनी पर टंगे
मेरे कुछ सपने,
पीड़ा की धूप से
सूख गए।
सिलवटें पड़ गई हैं
बुढ़ापे की
झुर्रियों की तरह।
समेटू कैसे इनको
बिखर गए हैं,
राई के दानों से।
सूनी आंखों से
टूटे हैं ऐसे
जैसे बेवा की चूड़ी
रंगहीन है
उसके लिबास की तरह।
000
36-
मैं चुप रही
कहने को बहुत कुछ था
मगर मैं चुप रही।
ये सोच कर कि
कोई नाराज न हो,
चबा गई
शब्द दांतों से,
कहने को
बहुत कुछ था
मगर,
मैं चुप रही।
पी गई आंसू
सह गई पीड़ा,
दर्द अपना
किससे कहूं,
कहने को
बहुत कुछ था
मगर,
मैं चुप रही।
कभी कोसा गया
इल्जाम लगाए कभी
सोचा खोलूं जुबां
कहने को
बहुत कुछ था
मगर
मैं चुप रही।
घुटन
बढ़ने लगी
उम्र ढलने लगी,
कौन सुनेगा
मेरी व्यथा,
कहने को
बहुत कुछ था
मगर,
मैं चुप रही।
000
37-
रात अकेली
गुमसुम बैठी रात अकेली।
साथी कोई न कोई सहेली।।
शाम को उदास सूरज ढला,
आस का दीपक जला,
चांद की गोदी में खेली।
गुमसुम बैठी रात अकेली।।
हंसती थी वो गाती थी,
सुंदर गीत सुनाती थी,
आज बनी खुद एक पहेली।
गुमसुम बैठी रात अकेली।
किस जालिम की पड़ गई छाया,
बिजली से उजली ये काया,
हो गई है वो, आज मैली।
गुमसुम बैठी रात अकेली।।
000
38-
मेरे जीवन साथी
दिखते दो पर एक है हम-तुम,
तू दीपक मैं बाती, मेरे जीवन साथी…।
हम दो पहिए
जीवन रथ के,
साथी हैं हम
प्रेम के पथ के,
पीछे मुड़ के
कभी न देखें
आगे बढ़ते जाएं,
थाम लिया है
प्यार से तुमने
जब कभी मैं थक जाती,
तू दीपक मैं बाती, मेरे जीवन साथी…।
एक दूजे के पूरक हैं हम,
एक दूजे बिन आधे,
बिन राधा के कृष्ण नहीं,
और बिन कृष्ण नहीं राधे,
मेरे सपनों में
वो रंग भरते,
मैं प्रीत की रीत निभाती,
तू दीपक मैं बाती, मेरे जीवन साथी…।
एक जन्म की
बात नहीं ये,
जन्मों का
है बंधन
खुशियों से महके
घर-आंगन
महके जैसे चंदन,
सात रंगों के
वचनों से,
घर-परिवार सजाती,
तू दीपक मैं बाती, मेरे जीवन साथी…।
दोनों निभाते
जिम्मेवारी,
कभी जो
दुख की
आंधी आई,
हमने निभाई
साझेदारी
आज तलक
ये सफर है जारी,
जीवन की सीमा रेखा से,
पार मिलने की
आस बंधाती, तू दीपक मैं बाती…।
000
39-
मेहंदी वाले हाथ
मेहंदी वाले हाथ
मात-पिता की
गोदी में खेली,
बेटी पराई जात
सजन मेरे,
मेहंदी वाले हाथ।
बजने लगी
शहनाइयां
सजने लगी बारात
सजन मेरे,
मेहंदी वाले हाथ।
विदा हुई
जब जब डोली घर से,
बरस पड़ी बरसात
सजन मेरे,
मेहंदी वाले हाथ।
सुहाग सेज पर
बैठी दुल्हन,
जाग उठे जज्बात
सजन मेरे,
मेहंदी वाले हाथ।
मांग में मेरे
भर दिए तारे,
प्यार की दी सौगात
सजन मेरे,
मेहंदी वाले हाथ
रहते थे जो
ख्वाबों ख्यालों में
होगी उनसे मुलाकात
सजन मेरे,
मेहंदी वाले हाथ।
दूर ही रहना
पास न आना,
मान लो मेरी बात
सजन मेरे,
मेहंदी वाले हाथ।
तू दीपक
और मैं बाती,
जन्म-जन्म का साथ
सजन मेरे,
मेहंदी वाले हाथ।
000
40-
मन का विश्वास
क्या बहुत
कीमती था वो?
जिसके लिए
तुमने अनमोल
जीवन त्याग दिया।
आखिर क्या था वो?
नाम, रुतबा, दौलत
या फिर
कोई हसीना
विचार तो
किया होता,
क्या तुम्हारे
मरने से ये सब
तुम्हें हासिल
हो जाएगा?
एक बार तो
जाकर पूछा होता,
जिनके पास
ये सबकुछ है,
जिनका अभाव
तुम्हें खलता है,
क्या वो खुश हैं?
नहीं-
कोई खुश नहीं है,
खुशी बाहरी
पदार्थों में नहीं,
भीतर मन में है।
किसी भी स्थिति में
कभी भी जीवन से
हारना नहीं,
कभी अपने
मन के विश्वास को,
कमजोर मत
पड़ने देना।
जगाओ अपने
अंतर्मन में,
आत्मविश्वास की
अखंड ज्योत।
जीवन की राह
आसान हो जाएगी,
और-
मंजिल होगी
कदमों में।
000
41-
दिल की अलमारी
आज फुर्सत में हूं
सोचा…!
क्यों न आज?
दिल की अलमारी को ही,
खोला जाए जो एक अर्से से
बंद पड़ी थी।
खोला तो दरवाजे पर,
हल्की सी गम की
सीलन थी,
कुछ ख्याल बिखरे थे
बेतरतीब से इधर-उधर,
कुछ टूटे सपनों के किरचें
मिले एक कोने में,
एक पोटली दिखी
खोली तो, सिलवटों से भरी
पुरानी यादें थीं।
दराज में ठूंसे
कुछ गुलाबी
लिफाफों में
खत मिले
कागजों में पीलापन था,
हर्फ धुंधले थे
पर अभी भी,
आ रही थी उनसे
अहसास की
भीनी महक।
चलो अब
लॉकर खोलें
अरे! इसमें तो,
पुराने दोस्तों के
कई पुराने
किस्से निकले,
जो मेरी
जिंदगी के
हिस्से थे।
अनायास
आंखों में नमी और
लब मुस्करा उठे
उन्हें याद करके
बहुत देर हो गई
चलो अब…
बंद करते हैं
दिल की अलमारी,
मिली फुर्सत तो
फिर कभी खोलेंगे।
000
42-
रूहानी रिश्ता
एक अजीब सा रिश्ता है हमारा,
खून का नहीं दिल का
कोई नहीं हो मेरे फिर भी,
अपने से लगते हो
निश्चित पूर्वजन्म का
कोई संबंध रहा होगा,
जो हम तुमसे मिले
घड़ी भर भी तेरे ख्यालों से
जुदा नहीं होते
मालूम नहीं क्यों?
एक बैचेनी लिए
दिल तड़पता है,
तेरे नाम पर धड़कता है
फासलों से अब कोई
फ़र्क़ नहीं पड़ता,
कि तू मुझ से भी
मेरे करीब रहता है
कोई नाम नहीं इस रिश्ते का,
ये सब रिश्तों से न्यारा है और,
हमें जान से प्यारा है।
000
43
बारिश का मौसम
बारिश का मौसम आया है
बूंदों ने गीत सुनाया है
रिमझिम का नाद सुनाती है,
साजन की याद दिलाती है
ज़ालिम ने बड़ा सताया है
बारिश का मौसम आया है
धुल गए हैं चेहरे फूलों के,
दिन आए गए हैं झूलों के,
ये किसने मुझे बुलाया है
बारिश का मौसम आया है
सौन्धी सी खुशबू आयी है,
सांसों में मेरी समाई है,
कोई मेरे दिल को भाया है
बारिश का मौसम आया है
अंजानी मन में हूक उठी,
बागों में कोयल कूक उठी
नयनों में कोई समय है
बारिश का मौसम आया है
अनछुई मन में प्रीत जगी
प्रीतम से मेरी लगन लगी,
किस्मत ने तुम्हें मिलाया है
बारिश का मौसम आया है
बूंदों की रिमझिम तानों में,
मिश्री सी घुलती कानों में,
उड़ी नींदे, चैन गवाया है
बारिश का मौसम आया है
तुम आओ बहारें आए जाएं,
घनघोर घटाएं छा जाएं,
तुमने जो गले लगाया है
बारिश का मौसम आया है.
000
44-
अपनापन
वर्तमान देश का
ऐसा है तो,
भविष्य कैसा होगा?
सूनी आंखों में,
लाचारी लिए
न जाने क्या ढूंढ़ते हैं?
पपड़ाए होंठ
कहना चाहते हैं,
पर कौन सुनेगा इनकी?
गरीबी की कोख के पाले
चलते हैं, अभावों की
गर्म रेत पर।
नहीं देखते अपने,
जलते नंगे पांवों के छाले।
कौन इन्हें संभाले?
बस दो रोटी देकर
पूरा कर लेते हैं
अपना फर्ज
वो भी निस्वार्थ कहां?
कल के अखबार में
फोटो सहित खबर
जो छपवानी है।
आकाश में उड़ने वालों
कभी तो नीचे
धरती पर भी,
पांव रख कर देखो।
कभी तो
महसूस करो, इनकी भूख
इनकी प्यास।
एक दिन तो
इनकी तरह,
अभावों में
जीकर देखो,
सिर्फ एक दिन।
आसमां फट जाएगा
जमीं खिसक जाएगी
पैरों तले की,
जल जाओगे
इनकी लाचारी की,
धधकती आग में,
बह जाओगे इनके
पसीने की बाढ़ के बहाव में।
नहीं चाहिए इन्हें दया।
इन्हें तो चाहिए
प्यार और अपनापन।
000
45-
बचपन
फुदकती गिलहरियां
चहकती गौरय्या,
इठलाती तितलियां
डराती बिल्लियां,
भंवरों की गुंजन
कोयले का मंजन,
मेले वो झूले
नहीं उनको भूले,
इंद्रधनुष मन भावन
राम लीला का रावण,
पानी की छपाक, कागज की नाव,
मिट्टी के घरौंदे, केरी करोंदे,
गुड़ियों का ब्याह, मुन्नी गवाह,
घर-घर का खेल
कभी चोरी, कभी जेल,
गुच्चक के बंटे, मंदिर के घंटे,
बटनों की गोठी
बालों की चोटी,
नीम के गूठे, मक्की के भुट्टे,
इमली का बूटा, मिर्ची का कुटा,
झूलों की पींगे, बड़ी-बड़ी डींगें,
चमकते जुगनू, वो छगनी दो मगनू,
सावन की डोकरी, कमली की छोकरी,
जाड़े की धूप, मोर का रूप,
पीपल की छांव, पनघट का गांव,
छत पर बिछौना, मस्ती में सोना,
बादल में हाथी, बचपन के साथी,
तारों का गिनना, दादी का भूलना,
चंदा का चरखा, बरसती है बरखा,
बंदरी का रूठना, बंदर का मनाना,
भालू का नर्तन, पीतल के बर्तन,
गुल्ली और डंडा का कंडा,
नानी की कहानी, राजा की रानी,
न जाने कहां खो गया है?
बचपन सलौना, टूट गया जैसे कोई खिलौना।
कभी भी न भूले
हम हमारा ये बचपन
उम्र चाहे हो पचास या पचपन।
एक बार फिर से
हो गई यादें ताजा
लौट कर मेरे बचपन
एक बार वापिस आ जा।
000
46-
शायद कुछ भी नहीं
आज मैं हूं
शायद कल न रहूं!
मेरे बाद तुम
मुझे याद करोगे?
भूल भी कैसे सकते हो?
अपनी जिंदगी की
खूबसूरत भूल
मिले न थे हम
पर कभी बिछ़डे भी नहीं
दूरिया थी दरम्यां हमारे
पर फासले नहीं,
एक कदम के फासले पे थी मैं
पर तुमने कभी मुझे छुआ नहीं,
मुझे पाया नहीं तो
कभी मुझे, खोया भी नहीं।
क्या कुछ था हमारे बीच?
शायद बहुत कुछ,
शायद कुछ भी नहीं।।
000
47-
टूटा तारा
टूटते तारे ने उदास होकर
आसमां से पूछा,
मैं क्यों टूट जाता हूं?
चांद तो हमेशा आपकी
गोदी में खेलता है!
आसमां ने
हंसकर कहा,
चांद तो एक है
मैं फिर भी मैं
संभाल लेता हूं,
पर तुम तो
अनेक हो,
कभी भी
न चाहते हुए भी,
तुम में से कोई,
रूठ जाता है,
और मेरे हाथों से
छिटक कर,
टूट जाता है।
000
47-
नया जमाना
न बारिश की रिमझिम,
न कागज की कश्ती,
न बचपन की बातें,
न वो मौज मस्ती,
न बंदरिया है रूठी,
न बंदर को मनाना है
क्या करें भाई,
नया जमाना है।
नहीं मानते बच्चे
माता-पिता का कहना
न भाई की अकड़
न चुलबुली है बहना,
हर कोई बस
बनाता बहाना है।
क्या करें भाई
नया जमाना है।
बेच रहे हैं बच्चे
मां-बाप के सपने,
बात छोड़ो गैरों की,
अपने ही न रहे अपने,
स्वार्थ की खातिर,
वृद्धाश्रम पहुंचाना है
क्या करें भाई,
नया जमाना है।
पढ़-लिख कर
भूल गए आरती वंदन,
हाय-बाय के इस दौर में
भूल गए अभिनंदन,
अर्थहीन संस्कृति हो गई,
इन्हें तो डिस्को जाना है।
क्या करें भाई, नया जमाना है।
नहीं सुनते
वो बड़ों की बातें,
रहते बाहर,
वो सारी रातें,
उनकी सलाह भी
लगती उन्हें ताना है
क्या करें भाई,
नया जमाना है।
करे न कोई इनका सम्मान
अपने घर में बन गए अनजान।
संपत्ति पर लगाए बैठे हैं घात।
000
48-
आजादी के बाद क्या मिला
हर शख्स सोचता है
हमें क्या मिला?
कभी ये नहीं सोचता कि
हमने दिया क्या?
जन्मों की गुलामी से
जब हम आजाद हुए तो,
भूल गए गुलामी का दर्द।
जिस आजाद महल में,
आज हम बैठे हैं,
उसकी नींव में,
कितने शहीदों के
बलिदान दबे हैं।
हमें तो कृतज्ञ
होना चाहिए
उन वीर जवानों का,
जिनकी बदौलत
आज हम
आजादी की सांस ले रहे हैं
देश तो आजाद हो गया
पर क्या हम
आजाद हुए?
अपनी संकीर्ण मानसिकता से
अपने दूषित विचारों से
जरा सोचिए, शायद नहीं।
कहां है वो हिन्दुस्तान?
जिसे सोने की चिड़िया कहते थे,
दूसरों पर मत
थोपो अपना दोष,
कहीं न कहीं
हम खुद जिम्मेवार हैं
बांट दिया है हमने ही
कई टुकड़ों में इंसानों को,
कोई हिंदू, कोई मुस्लिम,
कोई सिख तो कोई ईसाई।
कहां गया हिन्दुस्तानी?
भूल गए देश के प्रति
अपनी कृतज्ञता,
अपना कर्तव्य,
जी रहे हैं सब,
अधिकार भावना से।
बात करते हैं हम आजादी की।
000
49-
ये कैसा दस्तूर है
ये कैसा दस्तूर
कोई डूबा
माया के नशे में,
कोई मद में चूर है
ये कैसा दस्तूर है रे,
बंधु ये कैसा दस्तूर?
जब-जब
जिसने जिसको चाहा,
हो गया उससे दूर है,
ये कैसा दस्तूर है रे,
बंधु ये कैसा दस्तूर रे।
अजब खेल ईश्वर का देखा
किसी को
मिली बटेर तो
किसी को मिली हूर है,
ये कैसा दस्तूर है रे
बंधु ये कैसा दस्तूर?
मिल जाए तो
इतराता है,
न मिले तो
खट्टे अंगूर हैं,
ये कैसा दस्तूर है रे
बंधु ये कैसा दस्तूर?
कोई दुख की
छाया में पलता,
कोई सुखों से
भरपूर है,
ये कैसा दस्तूर है रे
बंधु ये कैसा दस्तूर?
किसी के घर
फूंके तो,
किसी के कोहिनूर है
ये कैसा दस्तूर है रे
बंधु ये कैसा दस्तूर?
बेरौनक
बेनूर है कोई,
किसी के
मुख पे नूर है,
ये कैसा दस्तूर है रे
बंधु ये कैसा दस्तूर?
000
50-
ठहरना
ठहरना
चाहती हूं मैं,
तेरे होंठों की मुस्कान पर,
तेरी आंखों की पलकों पर।
ठहरना चाहती हूं
तेरी सुबह की मुंडेर पर,
तेरी शाम की दहलीज पर।
ठहरना चाहती हूं मैं
तेरी रातों की
नींद पर
तेरे ख्वाबों के
अहसास पर।
ठहरना चाहती हूं,
तेरे दिल के
आकाश पर,
तेरी चाहतों की
जमीं पर।
ठहरना चाहती हूं मैं,
हमेशा के लिए
तेरे दिल की
धड़कन पर,
तेरी सांसों की सुरमयी ताल पर।
000
51-
पराकाष्ठा
कौन सुरक्षित है?
मां, बहन-बेटी
हर कोई एक,
डर के साये में
जी रहा है।
चारों तरफ
कामुकता के
स्वछंद भेड़िए
वासना में लिप्त
वहसी दरिंदों ने,
सारी हदें तोड़ दी है
वहसीपने की,
हर पराकाष्ठा को
पार कर लिया।
चार माह की
दुधमुंही बच्ची,
कहते
जुबां जलती है,
सुनते कान
सुन्न हो जाते हैँ,
वासना में अंधे एक जानवर ने,
उसके साथ कुकृत्य किया,
तुम्हें जरा भी
दया नहीं आई।
अपने आपको
मर्द कहते हो?
क्या इंसानियत को
तुमने बेच खाया है?
या पड़ गया पाला
तुम्हारी बुद्धि पर
अरे! तुम तो नामर्द से भी,
गए- गुजरे निकले।
पता नहीं तुम्हारी
इस दरिंदगी की,
तुम्हें क्या सजा मिलेगी?
पर मेरे हिसाब से
मौत की सजा भी
तुम्हारे लिए बहुत कम है।
शायद तुम बच जाओ
यहां की अदालत से,
पर वहां की अदालत से,
कैसे बच पाओगे?
000
52-
कृतज्ञता
कृतज्ञ हूं मैं
उन माता-पिता के प्रति
जिन्होंने मुझे
जन्म दिया,
मुझे ये खूबसूरत
दुनिया दिखाई।
मैं कृतज्ञ हूं
उन गुरुजनों का,
जिन्होंने मेरे,
मन की बंजर भूमि पर
ज्ञान के बीज बोए,
मुझे दुनिया में
रहने के गुर सिखाए।
कृतज्ञ हूं मैं
उन दोस्तों का,
जो अच्छे बुरे समय में,
हमेशा मेरे,
साथ खड़े थे।
मैं कृतज्ञ हूं,
उन खून के रिश्तों का,
जिन्होंने मुझे,
रिश्तों की,
अहमियत समझाई,
रिश्तों की मर्यादा सिखाई।
कृतज्ञ हूं मैं,
उनका भी जिनसे,
मेरा खून का तो
कोई रिश्ता नहीं,
पर एक लगाव,
एक संबंध है,
जिसमें स्वार्थ नहीं,
प्रीत की खुशबू है।
कृतज्ञ हूं मैं,
उन वीर जवानों का,
जो हमारी सुरक्षा के लिए,
सर्दी, गर्मी, बारिश में भी,
बिना अपनी जान की,
परवाह किए,
सरहद पर टिके हैं।
अखबार वाला,
दूधवाला,
सब्जीवाला,
कामवाली बाई,
मैं कृतज्ञ हूं,
इन सबका भी,
जो महान हैं।
000
53-
झील सी आंखें
तेरी आंखों ने
चुपके से कुछ
कहा है मुझसे,
बहुत कुछ
अनकहा भी
पढ़ा मैने,
तेरी इन किताबी
आंखों में।
दिखते हैं
मुझे ख्वाब मेरे
तेरी इन
हंसी आंखों में,
झलकता है
वजूद मेरा,
तेरी आंखों के
आइने में।
बिठा कर
मुझे अपनी
आंखों की
दहलीज पर,
पलकों की
चिलमन गिरा देना,
इन झील सी
गहरी आंखों की
गहराई में,
डूबे तो
डूबते ही गए।
बस यूं ही
गुजर जाए
जिंदगी,
तेरी आंखों की
घनी पलकों की,
ठंडी छांव तले।
000
54-
शायद
वो शाम का सुहाना मंजर
वो नीली झील के
दर्पण में डूबती सूरज की छवि
सिंदूरी लाली से रक्तिम
गगन की पेशानी
वो तेरा साथ, हाथों में हाथ
मधुर मुस्कान लिए अधरों की चुप्पी
बोलती आंखों ने सब कह दिया जैसे
हवा के झोंके से
आती वो भीनी खुशबू
तुमने अहसास की
आंखों से छुआ था मुझको
तेरी उंगलियों ने संवारे थे
मेरे बिखरे गेशू बेखुदी में यूं ही
रेत के आंचल पे
लिख दिया था तुमने मेरा नाम
याद है मुझे तो आज भी
वो सुहानी शाम
तुमने भुला दिया शायद।
000
55-
मगर तुम न आए
बैठे हैं कब से
तेरी राहों में,
पलके बिछाएं
मगर तुम न आए।
चमकती है
आसमां में बिजली
काले-काले
बादल हैं छाए।
मगर तुम न आए।।
फूल खिले
चटकी कलियां,
गुनगुन गीत
भंवरों ने गाए।
मगर तुम न आए।।
तारों की बारात
है छाई,
चांद की चांदनी
मुझे जलाए।
मगर तुम न आए।।
ऋतु आई है
सावन की,
बरसातें
आग लगाए।
मगर तुम न आए।।
साज शृंगार
न कजरा-गजरा,
तुम बिन मोहे
कुछ न सुहाए।
मगर तुम न आए।।
टूट गई
उम्मीद की डोरी,
याद तेरी ना
दिल से जाए।
मगर तुम न आए।।
000
56-
दरार
जब तुम
मुझे दूर थे,
सुन लेते थे
मेरे दिल की
धड़कन की आवाज,
पर आज
इतना नजदीक
होकर भी,
अनजान हो मुझसे।
मेरे ख्यालों से
शुरू होती थी
तेरी हर सुबह,
हर रात मेरे
ख्वाबों में गुजरती थी,
पर आज जैसे,
न सुबह होती है,
न रात ढलती है।
तुम भी तो तड़पती थी मेरी याद में,
बदलती थी करवटें सारी-सारी रात,
लिखती थी खत आंसुओं से
दिल के कागज पर,
बेखुदी में पुकारती थी
मेरा नाम
मेरे इंतजार में
बिछा देती थी पलकें
पर आज देखती भी
नहीं हो मेरी तरफ,
चली जाती हो
चुरा कर नजर।
हम दोनों के बीच
ये तन्हाइयां
ये खामोशियां,
ये घुटन भरी जिंदगी
आखिर क्या हुआ?
हम दोनों के बीच
न तुम्हें पता,
न मुझे खबर।
ऐसा क्यों?
शायद आज
गलतफहमियों ने,
घर बना लिया है
हम दोनों के दिलों में,
पड़ गई है दरारें
दिल की दीवारों में,
जो हम सुन नहीं पा रहे
एक दूसरे की आवाज,
समझ नहीं पा रहे हैं
एक दूसरे की बात।
000
57-
उम्र तो गुजर ही जाएगी
सच कहें
हमने कभी
सोचा ही नहीं
उम्र के बारे में
हम तो तमाम उम्र
जिंदगी के साथ रहें
न बीते कल में जिए
न आने वाले कल में गए
बस आज में ही
ठहर गए
उम्र का क्या
वो तो एक दिन
गुजर ही जाएगी
रह जाएंगे तो सिर्फ जिंदगी के
कुछ सुनहरे पल
किसी की यादों में
किसी की जिंदगी में।
000
58-
मुझे चुप रहना है क्यों
जब से होस संभाला है
सुनती आ रही हूं,
तुझे चुप रहना है
पर आज तक,
समझ नहीं पाई,
आखिर क्यों?
शायद मैं लड़की हूं
इसलिए
बचपन में,
मां, दादी सभी
कहतीं थी कि
पराए घर जाना है,
लड़कियों को,
ज्यादा बोलना,
शोभा नहीं देता,
चुप रहा करो।
ससुराल आई तो।
सास ने हिदायत दे दी,
हमारे यहां बहुओं को
किसी मामले में,
बोलने का अधिकार नहीं है।
पति से भी कभी कुछ
कहती तो,
सुनने को मिलता
अगर घर में
शांति बनाए रखना है तो
तुम्हें चुप रहना होगा।
और आज तो
हद ही हो गई,
मेरे अपने बच्चों ने
कह दिया मम्मी
आप कुछ नहीं समझती,
आप चुप रहिए
आपका जमाना और था।
मैंने मन में सोचा कि
मेरा जमाना तो,
तब भी वही था
और आज भी वही है,
कुछ नहीं बदला,
मुझे तो तब भी
चुप रहना था और,
आज भी चुप रहना है।
कभी-कभी सोचती हूं
आखिर,
हम ही चुप क्यों रहें?
काश हम भी कह सकते,
अपने मन की बात।
000
59-
आजाद परिंदा
बेटी के लिए
अक्सर कहते
सुना है कि,
बेटी तो चिड़िया है,
एक दिन उड़ जाएगी।
पर उड़ कर जाएगी कहां?
मायके के पिंजरे से
निकलकर,
ससुराल के
पिंजरे में,
रिश्तों के नाम पर,
बस बदल दिए
पिंजरे
पर वही बंधन।
खोल दो कभी तो
चिड़िया का पिंजरा,
काट दो कभी तो
उसके सब बंधन।
कभी तो सांस लेने तो
उसे खुले आकाश में,
कोई तो हो जो उसके
उसके कोमल पैरों को दे,
अपने प्यार के अहसास की जमीं।
कोई तो हो जो दे
उसके शिथिल परों को,
अपने हौसलों की
ऊंची परवाज,
हो उसके लिए भी
कल्पनाओं का एक
विस्तृत आकाश,
उसकी आंखों में
कोई तो भर दे
इंद्रधनुषीय स्पनों का रंग।
कभी तो उसे भी
आभास होने दे,
अपनी आजादी का।
कभी तो उसे भी लगे,
कि वो भी एक
आजाद परिंदा है।
उसके पंखों में भी उड़ान है,
उसका भी अपना
एक आसमान है,
उसकी भी अपनी स्वयं की,
एक पहचान है।
जीने दो उसे अपनी
पहचान के साथ।।
000
60-
संदेश
तुम उस पार, मैं इस पार
बीच में, नदियां की धार,
दिन उदास, रातें मायूस
फीका सा लगे रूप शृंगार।।
वक्त ने कैसा खेला खेल?
बिछड़ गए हम हुआ न मेल,
बिछड़ गए हम हुआ न मेल,
जीवन नैय्या अब है मझधार।
फीका सा लगे….।।
याद आए वो सिंदूरी शाम
नहीं एक पल को आराम,
भूलता नहीं तुम्हारा प्यार।
फीका सा लगे….।।
डूबता सूरज, नदी का तट
उलझी उलझी सी तेरी लट,
बही आंख से कजरे की धार।
फीका सा लगे….।।
लिखा है लहरों पर संदेश
आ जाओ पिया अपने देश,
झूठी माया, है झूठा संसार।
फीका सा लगे…।।
सुन भी लो तुम मन की बात
शायद फिर न हो मुलाकात,
आ जाओ बस आखिरी बार।
फीका सा लगे….।।
000
61-
दूत
अनमना मन
थका तन लेकर
क्यों ढो रहे हो?
जीवन का बोझ
खुल कर जी
आज में कल की
छोड़ दे फिक्र
वक्त के आगे
न घुटने टेक
वक्त के साथ चल मिलाकर
कदम से कदम
सकारात्मक विचार
जैसी हमारी सोच
वैसा ही बनता जाएगा जीवन
विश्वास का थाम कर दामन
अग्रसर हो
अपने लक्ष्य की ओर
रख धीरज
एक दिन तो
मंजिल मिल ही जाएगी।
000
62-
इकरार
जब मिले थे
हम पहली बार
नजर से नजर मिली
दिल धड़का था
न तुमने कुछ कहा
न मैंने कुछ
फिर भी बहुत कुछ
सुन लिया हमने
तेरे ख्यालों में
दिन तो
रात ढलने लगी
तेरे नाम से धड़कनें बढ़ने लगी
आग लगी थी
इसकी दोनों तरफ
याद है वो बारिश की शाम
जब तुम आए थे
मुझसे मिलने
छुआ था जब तुमने
मुझे पहली बार
एक बिजली सी
कौंधी थी बदन में
तेरी बाहों में आकर
भूल गई थी
मैं अपने आपको
तेरे होठों ने लगाई थी
प्रीत की मोहर
मेरे होंठों पर
आज भी महासूस करती हूं
अपने होंठों पर
समय ने करवट बदली
जमाने का है
यही दस्तूर
कब मिल पाए हैं
दो दिल
बिछड़ गए थे
हम दोनों भी
कभी ख्याल में भी
ये तसव्वुर ही नहीं था
कि एक लंबे अरसे के बाद
उम्र के इस मोड़ पर
हम यूं मिलेंगे
बाद मुद्दत के
मिले हैं हम
कोई तो कारण होगा
या खुदा कि मर्जी होगी
या फिर पिछले जन्म का
कोई इकरार बाकी होगा।
000
63-
शृंगार
चांद सा
चमकता चेहरा तेरा
घटाओं सी
काली जुलफें।
सूरज सी
ताब तेरी,
बिजली सी चपलता।
आंखों में तेरे
जैसे दो हीरे
जड़ दिए हो
होंठों की नाजुकी,
फूलों की पंखुड़ियों सी
संगमरमर सा
जिस्म तेरा,
छू लो तो
पिघल जाए।
शृंगार की
क्या जरूरत?
सच्चा शृंगार तेरा
तेरी सादगी में बसा।
हाथों खुदा से
निर्मित तुम,
खुद हो खूबसूरत।
अब क्या लिखूं?
तुझ पर,
तुम खुद,
शृंगार की मूरत।
तुम गजल का
काफिया हो,
हो तुम ही,
कविता का शृंगार।
000
64-
धूप का टुकड़ा
बहुत खुश हूं मैं
मेहनत करके,
कमा कर खाता हूं
हक की दो रोटी,
रूखी-सूखी है
पर स्वादिष्ट,
घी की नहीं
खुशबू आती है,
पसीने की।
कहने को
बहुत कुछ है,
दुनिया में इंसानों के पास,
परंतु मेरी तो
संपूर्ण धरती है,
आसमां पूरा।
मेरे हिस्से में आई,
संतोष की अखुट संपत्ति।
गरीब हूं पर सबसे अमीर,
क्योंकि मेरे पास है
धूप का एक टुकड़ा।
000
65-
फुटपाथ
भूख से व्याकुल
प्यास से अचेतन
बेसहारा, बेबस
जिंदगी की
हर खुशी से
नावाकिफ गम के सायों में
पला करते हैं
मायूस चेहरे
पपड़ाए होंठ
सूखी आंखें
लाचार सी
नींद नहीं जिनकी आंखों में
कैसे देखेगी
भला वो सपने।
फटे हाल फुटपाथ पर
गुजार देते हैं
ठिठुरते, झुलसते
और भीगते
तमाम उम्र।
मर जाते हैं इनके साथ ही,
इनकी सूनी आंखों के टूटे सपने।
000
66-
बासंती रुत
बासंती रुत आई, सखी री!
बासंती रुत आई।
लहर-लहर चुनरी लहराई
साजन सूरत जो हृदय बसाई,
मनमोहक छटा मन भाई सखी री!
बासंती रुत आई।
पीली-पीली सरसों फूले
मन मितवा संग झूला झूले,
प्रीत ने ली अंगड़ाई सखी री!
बासंती रुत आई।
सांझ पड़े दीपक जल जाए
सजनी बैठी आस लगाए,
कोई खबर न आई सखी री!
बासंती रुत आई।
हंसता जौबन, बिखरी कलियां,
पिया बिन सूनी-सूनी गलियां
विरह अगन, जलाई सखी री!
बासंती रुत आई।
000
67-
भोला बचपन
निर्मल मन में भेद न कोई
न कोई चतुराई।
हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई,
आपस में सब भाई।
प्यार ही इनका
राम-रहीम है
प्यार ही इनका साईं।
ईद मनाते, गले लगाते,
खेले रंग और
दिवाली मनाई।
भोला बचपन न समझे
ये धर्म कर्म की बातें,
किसने इनके भोले मन में,
नफरत की आग लगाई।
000
67-
स्मृतियां
समय की अंजुरि से
छिटक कर,
कुछ क्षण
बिखर गए,
स्मृतियों के
आंचल पर।
ढलती सांझ सी
उम्र ढल गई,
बरस गई आंखें,
बन कर
घटा घनघोर,
जल गई
आशाओं की चिता,
बस रह गई
बुझी सी राख।
000
68-
मन का दीप जला कर रखना
जीवनपथ पर चलने वाले
हर पथ तेरा न्यारा होगा,
चलना संभल संभल कर
पग-पग पर अंधियारा होगा,
ठोकर खाकर गिर मत जाना
मन का दीप जला कर रखना।
भीतर घोर अंधेरा तेरे
कुछ भी नजर नहीं आता है,
कोई क्या सताए तुझको
अज्ञान तेरा सताता है,
हो जाएगा तम दूर जीवन से
मन का दीप जला कर रखना।
शतरंज का खेल है ये जीवन
मनुष्य एक खिलाड़ी है,
जो जीत गया तो विजेता है
और हार गया तो अनाड़ी है,
आ जाए विपदा तो न डरना
मन का दीप जला कर रखना।
जीवन की राह के ओ राही
ये रस्ते बहुत ही पथरीले हैं,
फूलों की फुलवारी कहीं हैं।
कहीं कांटों की कंटीली है,
आलोकित पथ तुझे है करना
मन का दीप जला कर रखना
दुख का सूरज ढल जाएगा
सुख का सुखद सवेरा होगा,
न कुछ तेरा न ही कुछ मेरा
हम सबका सब कुछ होगा,
हम सबका सब कुछ होगा,
ईश्वर का सदा विश्वास करना
मन का दीप जला कर रखना।
000
69-
आवाज
तेरी आवाज की
भीनी खुशबू से,
मैं महक जाती हूं।
सुनती हूं
फिर सुन के,
बहक जाती हूं।
तेरे अंदाज के
पैमाने से,
बन के मदिरा
छलक जाती हूं
तेरी हंसी की
खनकती खनक,
हाथ की चूड़ी सी
खनक जाती हूं
तेरे अहसास के
गुलिस्तां में,
लचीली शाख सी
लचक जाती हूं।
000
70-
नया सवेरा
सोच रहे हो
क्या सोच रहे हो?
तुम ये नहीं कर सकते?
तुम वो नहीं कर सकते?
तुम में वो सामर्थ्य कहां?
तुम अकेले हो?
कोई नहीं है तुम्हारे साथ,
तुम अकेले कर
भी क्या सकते हो?
और फिर उम्र
भी तो हो गई है,
इस उम्र में आखिर तुम,
कर भी क्या सकते हो?
वक्त के मोहताज
हो गए हो तुम,
बस यही सब सोचकर,
तुम अपनी जिंदगी का,
बेशकीमती समय
बर्बाद कर देते हो।
आखिर जीवन में
इतनी उदासी मायूसी
हताशा क्यों?
अरे!
ये सब तो सिर्फ दलीलें हैं।
जो नकारा लोग दिया करते हैं।
थाम कर विश्वास का दामन,
शुरू तो करो जीवन जीना,
सफलता बाहें फैलाये
तुम्हारी राह देख रही हैं,
तेताब हैं
खुशियां तुम्हारे
कदम चूमने को।
भूल जाओ
बीते कल को,
आज का सूरज
लाया है,
तुम्हारे जीवन में
नया प्रकाश।
एक बार जाग जाओ
गफलत की नींद से,
बस, एक बार
जाग जाओ,
नया सवेरा तुम्हारा,
इंतजार कर रहा है।
तभी तो
किसी ने कहा है…!
जागो तभी सवेरा।।
000
71-
मैं हूं ना
न जाने क्यों?
कभी कभी
वक्त बेजार और
जिंदगी निस्सार लगती है
बेताल्लुक से दिन
बेचैन सी रातें लगती हैं
दूर तक अंधेरा ही अंधेरा
डर लगता है
अपने ही साये से
अपने बेगाने से लगते हैं
बेबुनियाद रिश्ते
बेस्वाद सी ये उम्मीदों की
दुनिया लगती है।
ऐसे में दिल की दरार से
झांकती ये रोशनी की लकीर
कहां से आई?
जो जीवन में
एक आशा की
किरण लाई
किसी की आवाज की कशिश ने
मेरी रूह को छुआ
किसी की
अनकहीं बातें
मन बेवजह
सुनने लगा
फिर से स्वप्न का
एक जाल
बुनने लगा
किसी ने धीरे से आकर
मेरे कानों में कहा
मैं हूं न
मेरी खाली-खाली
आंखों की
बोझिल पलकों को,
किसी ने अहसास
के लबों से चूमकर
एक बार फिर कहा
मैं हूं न
वो मेरे पास नहीं
पर उसने ख्यालों में
मुझे संभाला है
और आज
फिर से एक बार
किसी की जज्बात की
अंगुली पकड़ कर
चल पड़ी हूं अपनी
मंजिल की ओर।
000
72-
छपना जरूरी है
छपना जरूरी है
मैंने लिखी, तुमने पढ़ी,
तुमने लिखी, मैने पढ़ी
ऐसा लिखना भी,
लिखना क्या?
जो छपे न कहीं,
वो रचना क्या…?
न किसी ने कहा
न किसी ने सुना
ऐसे लिख-लिख कर
डायरी भरना क्या?
छो छपे न कहीं,
वो रचना क्या…?
कोई भी सुनता नहीं?
सब अपनी सुनाते हैं।
ऐसे मंचों पर,
पढ़ना क्या?
जो छपे न कहीं,
वो रचना क्या…?
इंटरनेट पे लिखते हैं।
इंटरनेट पे पढ़ते हैं।
लाइक कमेंट्स
करना क्या?
जो छपे न कहीं,
वो रचना क्या…?
साहित्य के गगन पर
चमके मेरा सितारा
गर्दिश में उसे छुपा के
रखना क्या?
जो छपे न कहीं,
वो रचना क्या…?
मेरा भी नाम हो
मेरी भी पहचान हो,
इस चाह में ठंडी आहें
भरना क्या?
जो छपे न कहीं,
वो रचना क्या…?
000
73-
भोर सुहानी
छोड़ रात का
काला दामन,
लाली लाली
ओढ़ चुनरिया,
चले चाल मस्तानी।
आई है भोर सुहानी।।
ओस किरण जब
पड़े फूल पर,
मुखड़े पर
चमके मोती,
ऋतु हुई दीवानी।
आई है भोर सुहानी।।
छोड़ घोंसले
विचरण करते,
नील गगन पर
पंछी उड़ते,
दृश्य ये नूर नूरानी।
आई है भोर सुहानी।।
गगरी ले
पनघट को जावै,
गांव की
नटखट छोरी,
छलके गगरी से पानी।
आई है भोर सुहानी।।
हरे-भरे
खेतों को कर दो,
जीवन में
खुशहाली भर दो,
लहराए फसलें धानी।
आई है भोर सुहानी।।
मस्जिद में
अजान गूंजती,
मंदिर घंटा
गूंजे झंकार,
अहसास है रूहानी।
आई है भोर सुहानी।।
सोया जीवन
जागृत हुआ,
धरती पर
उतर आया सूरज,
प्रेम की ज्योत जलानी।
आई है भोर सुहानी।।
000
74-
मधु कलश
आज हर तरफ हर जगह,
हर किसी का
जायका बिगड़ा हुआ है।
रिश्तों ने अपने
निजी स्वार्थ के लिए,
रिश्तों की मिठास छोड़ दी है।
शुगर में भी
मीठा खाना नहीं छोड़ा,
पर मीठा बोलना छोड़ दिया है।
इस कोरोना की
महामारी ने तो
संपूर्ण मानव जाति के
जीवन का जायका ही
बिगाड़ कर रख दिया।
मौसम ने भी
अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है,
वायरल से मुंह का
जायका जैसे,
नाराज हो गया।
मिठास तो जीवन से
दूध से मक्खी की तरह,
निकाल कर फेंक दी गई है।
कैसे जी पाएंगे?
इतनी कड़वाहट के साथ,
एक बार फिर से
स्वार्थ बुद्धि त्याग कर,
हमें सर्व हित के लिए
सोचना होगा, सीखना होगा
मधुमक्खी से कि वो कैसे?
अथक परिश्रम करके
फूलों के पराग से
शहद निर्मित करती है
आखिर किसके लिए?
हमारे लिए ही न,
हमें निष्काम कर्म
व निष्काम प्रेम से
मानव जीवन की
खोई हुई मिठास को,
पुन: भरना होगा।
अपने जीवन में और
समस्त सृष्टि में मधुकलश
स्थापित करना होगा।
तभी हम सही मायने में
मानव कहलाएंगे।
000
75-
उम्र का पड़ाव
धन्य है!
आज की संतान
जिन्हें मां-बाप ने
अपने सुखों का,
बलिदान देकर
पढ़ा-लिखाकर
अपने पैरों पर
खड़ा किया
जिन मां-बाप ने
उन्हें भाई-बहन
घर-परिवार दिया,
वही संतान
आज कहती है कि,
उनके घर
आने-जाने से
उनकी गृहस्थी
डिस्टर्ब होती है।
तुम्हें अपने बच्चे,
जान से प्यारे लगते हैं
तुम्हारे मां-बाप ने भी,
तुम्हें इतने ही
प्यार-दुलार से
पाला होगा।
आज मां-बाप,
भाई-बहन से ज्यादा
सास-ससुर, साले-साली
प्यारे लगते हैं।
उनके ससुराल वाले,
उनके मां बाप को
अपमान भरे
शब्द कह जाते हैं।
पर वो अपने
मां-बाप से कहते हैं
कि हमें तो,
अपने ससुराल वालों से
निभाना ही पड़ेगा।
मां-बाप घर में,
भूखे बैठे हैं पर,
उन्हें ससुराल में,
बर्थडे पार्टी मनानी है।
अरे! क्यों भूलते हो नादान?
कल तुम भी,
उम्र के इस पड़ाव पर
पहुंचोगे,
कल जब,
तुम्हारी संतान,
तुम्हारे साथ भी,
ऐसा व्यवहार करेगी।
तब एक बार हमें,
याद कर लेना।
000
76-
मत कर अभिमान रे बंदे
सदा नहीं तुझे रहना रे बंदे, छोड़ कर सब कुछ जाना।
मान या तू ना मान बंदे, मत करना अभिमान रे बंदे।।
साथ तेरे कुछ भी नहीं जाना, जो कुछ भी तूने अपना माना।
क्यों बनता तू नादान रे बंदे, मत करना अभिमान रे बंदे।
रावण की लंका जल गई, समय के साथ उम्र ढल गई।
मनुज जन्म वरदान रे बंदे, मत करना अभिमान रे बंदे।।
जाना तूने सब कुछ लेकिन, कोई बात न मानी लेकिन।
अपने को पहचान रे बंदे, मत करना अभिमान रे बंदे।।
इतना तू क्यों अकड़ता है, भाई बंधुओं से क्यों लड़ता है।
झूठी तेरी सब शान रे बंदे, मत करना अभिमान रे बंदे।
कर्मों की गति अति गहन है, करना तुझको सब सहन है।
यही गीता का ज्ञान रे बंदे, मत करना अभिमान रे बंदे।।
000
77-
उषाकाल
उषाकाल की
स्वर्णिम किरणें,
जब पड़ती है
धरती पर तब,
जीवंत जीवन होता है।
अलसाई सी,
भोर के साथ
अंगड़ाई लेकर सूरज,
जब झांकता है
बादलों की ओट से,
छा जाती है लालिमा
धरा के मुखड़े पर।
भरते हैं उड़ान
स्वछंद पक्षी,
विस्तृत
नील गगन की ओर।
शाखाओं पर
पुष्प खिलते हैं,
झूम झूम कर
वृक्ष आपस में
मिलते हैं गले,
मंदिर में आरती
व मस्जिद से,
आती अजान की
स्वर लहरी से,
पाक पवित्र
हो जाता है वातावरण।
तुलसी सींचती
सूर्य को अर्ग्य देती,
सौम्य स्त्रियां
आभास देती हैं,
धरा पर
स्वर्गलोक का।
उषाकाल में
चाय की मुस्कियों के साथ
अखबार पढ़ते लोग
देख कर उन्हें
ऐसा लगता है
जैसे चंद मिनटों में
समझ लेंगे विश्व को
हौलेहौले
चलते-चलते उषा
संध्या से मिलकर
ओढ़कर चांद सितारों की
सुनहरी चूनर
सो जाती है
निशा की बाहों में
भोर की प्रतीक्षा में।
000
78-
आशा
जीवन की
आखिरी स्वांस तक
कभी भी जीवन में
आशा का
दामन मत छोड़ना
ईश्वर पर
रखना भरोसा
वो चाहे तो,
सुई के छेद से
निकाल सकता है ऊंट
पहाड़ का
सीना चीर कर
नदियां ला सकता है
उजड़ जाते हैँ
जो बाग
पतझड़ में
बहार आने पर
हो जाते हैं
फिर से हरे-भरे
सूखने मत देना
आशाओं की
टहनी को
विश्वास के जल से
सींचते रहना
जीवन की जड़ों को
देखना अवश्य ही
एक दिन जीवन की
सूखी डाली पर भी
खिलेंगे सुंदर फूल
कभी भी
अपने सपनों को
मरने मत देना
जीवंत होंगे
एक बार फिर से
सूखी डाली पर
खुशहाली के
हरे पत्ते।
000
79-
बंटवारा
बंटवारे का मतलब
सिर्फ वस्तुओं का
बंटवारा नहीं,
परिवार बंटते हैं
संस्कार बंटते हैं,
यहां तक जिस्म के
साथ-साथ रूह के
ख्वाब बंटते हैं।
टूट कर
बिखर जाती है,
मानवता,
आंसू बहाता है रब,
बच्चों के हाथों,
मां-बाप बंटते हैं।
000
80-
प्रेम प्रतीक्षा
खिला-खिला
मन का उपवन है,
भीगा-भीगा
मादक यौवन है,
नयनों भरी है
मधुशाला,
प्रेम प्रतीक्षा में बैठी
मन मोहिनी अल्हड़बाला।
राह तके
व्याकुल नैना है,
मधुर प्रेम
गहना पहना है,
तन से निकले हैं ज्वाला,
प्रेम प्रतीक्षा में बैठी,
मनमोहिनी अल्हड़बाला।
कमल से
कौमल ये तन है,
प्रीत में डूबा
पावन मन है,
छलके अधरों का प्याला,
प्रेम प्रतीक्षा में बैठी,
मनमोहिनी अल्हड़बाला।
पिया मिलन की
आस लगी है,
अधरों पर
ये प्यास जगी है,
नाम पिया की
जपे माला
प्रेम प्रतीक्षा में बैठी,
मनमोहिनी अल्हड़बाला।
मधुरस से है
भरी गगरिया,
कब आओगे
निष्ठुर सांवरिया,
सूना मन का है शिवाला
प्रेम प्रतीक्षा में बैठी
मनमोहिनी अल्हड़बाला।
000
81-
मेरी अभिलाषा
हिंद देश के
हम हैं वासी,
हिंदी हमारी भाषा है।
नाम हो इसका
विश्व पटल पर,
ये हमारी अभिलाषा है।
कीमत समझो
स्वदेशी की,
विदेशी का तिरस्कार करो।
बोल-चाल में
केवल हिंदी,
हिंदी पर उपकार करो।
सिर्फ कानून
कि किताब में नहीं,
व्यवहार में इसे लाना है।
कद्र करो हिंदी की,
जो मातृभाषा इसे माना है।
हिंदी में ही हो
हमारे सब,
सरकारी काम।
न हो अब
किसी और,
भाषा के गुलाम।
विडंबना देखो
हम हिंदी भी
अंग्रेजी में लिखते हैं।
हैं भारतीय पर
जानबूझकर,
अंग्रेजों से दिखते हैं।
मैं गुजराती,
तू बंगाली,
ये पंजाबी,
वो मद्रासी।
अपना-अपना
राग अलापे,
कहां गए वो हिंदी भाषी?
हिंदी की बिंदी
भारत माता के
ललाट पर हमें लगानी है
हम भारतीय के हृदय में,
हिंदी के प्रति प्रीत जगानी है।
हिंदी हमारी मातृभाषा है,
ये बात हमें
इसे दुनिया को समझानी है।
000
82-
सबको आपस में जोड़ें
हर तरफ
बिखराव है,
कहीं भावनाओं का तो,
कहीं संवेदनाओं का।
आदमी स्वयं
बिखरा पड़ा है,
जमाने की दौड़ की भीड़ में,
जी रहा है
घुटन भरा जीवन,
खोया-खोया सा,
कुछ ढूंढ रहा है,
स्वार्थ की गलियों में।
भटक कर रह गया है,
उसका अस्तित्व,
संवेदनहीनता की,
अनजानी राहों में।
नोच-खसोट रहा है
नफरत के नाखूनों से
खुदा के नूर से बने
नूरानी चेहरों को।
अपने ही घर में
अपनों के ही बीच
आज कहां कोई सुरक्षित है?
आओ तो एक बार फिर से
क्यों न समेट लें,
इस बिखरते संसार में
बिखरते इंसान को,
उसके बिखरते अहसास को।
हो जाए हम सब
मिलकर एक,
हमारी एकता को,
न कोई तोड़ पाए।
आपस में
हम सब प्यार करें
नफरत को छोड़ें,
आओ हम सब मिलकर,
सबको आपस में जोड़ें।
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83-
याद आता है मुझे
देख कर दूर
क्षितिज पर मिलता,
मुस्कुराती शाम से
ढलता दिन,
याद आता है मुझे
उनसे वो पहला मिलन।
कड़कती बिजलियों से
मेरा वो डर जाना,
बरसते सावन की,
बौछारों की
मीठी छुअन,
याद आता है मुझे
उनसे वो पहला मिलन।
झील के किनारे,
वो चांद की चांदनी रात,
हाथों में हाथ लिए
जब मिला था
मन से मन,
याद आता है मुझे
उनसे वो पहला मिलन।
छुप छुप कर मिलना,
वो छत पर हमारा,
महकता वो खिलता,
वो मेरे मन का उपवन,
याद आता है मुझे
उनसे वो पहला मिलन।
बांधती हूं जब भी
चोटी में गजरा,
लगाती हूं जब भी
नयनों में अंजन,
याद आता है मुझे
उनसे वो पहला मिलन।
सौंप दिया मैंने
तुम्हें अपना सर्वस्व,
अब मन न रहा मेरा,
न रहा मेरा तन,
याद आता है मुझे
उनसे वो पहला मिलन।
तुमने छुआ तो
जवां हुए सपने,
बिछड़ गया मुझसे
मेरा भोला बचपन,
याद आता है मुझे
उनसे वो पहला मिलन।
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84-
बिटिया रानी
कल की सी बात
मेरे अंगना उतरी थी
जब आसमां से
एक नन्हीं सी परी।
चांद से उजला मुखड़ा उसका
किरणों सी मुस्कान,
मेरी प्यारी बिटिया रानी,
थी पापा की जान।
आंखों में छलकता उसके
निश्छल पावन प्यार,
जीवन में वो मेरे लाई,
खुशियों का संसार।
चलती जब वो
ठुमक ठुमक कर
घर आंगन इतराता,
जब वो मुझसे गले लिपटती
रोम-रोम खिल जाता।
तुतलाती जब पापा कहकर
गोदी में सिमटती
कभी इधर और कभी उधर वो
चिड़िया सी फुदकती।
उड़ जाता समय
न जाने कब?
पंख लगा कर पता ही न चला।
और आज मेरी
नन्हीं परी,
बैठी है बनकर दुल्हन,
पापा से बिछुड़ कर चली जाएगी,
करके पिया से विवाह लग्न।
होंठों पर वही निश्छल
फूलों सी,
मनमोहक मुस्कान,
पापा की बेटी,
पापा की शान।
देखते ही देखते
कब बड़ी हो गई
पता ही न चला?
और आज मेरी नन्हीं सी
रानी बिटिया को,
ब्याहने कोई,
राजकुमार आएगा,
और अपने साथ
बिठाकर डोली में
अपने संग ले जाएगा,
पापा की आंखें
बरसेगी,
मिलने को बेटी तरसेगी,
देता दुआ पिता का अंगना,
खनके सदा
बिटिया तेरा कंगना।
रीत चली सदियों से ये तो,
बेटी सदा पराई होती।
बेटियां तो,
होती है चिड़िया,
एक दिन तो उड़ जाना है,
छोड़ कर बाबुल का अंगना,
पिया का घर बसाना है।
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